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देर से फैसला न्याय न मिलने के समान फिर भी ‘सुशासन’ का प्रचार, एचटी ने मंच, माइक भी मुहैया कराया!

संजय कुमार सिंह

आज के अखबारों में अनुच्छेद 370 खत्म किये जाने से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसले और उससे संबंधित टीका टिप्पणियों को ही प्रमुखता मिली है। इसलिए आज उसी की बात करें। कहने की जरूरत नहीं है कि फैसले पर टीका-टिप्पणी करने की योग्यता मेरी नहीं है और मैं फैसले से ज्यादा उसकी प्रस्तुति और उससे संबंधित टीका-टिप्पणी की चर्चा करूंगा। इसमें यह स्पष्ट करना जरूरी है कि ‘जस्टिल डिलेयड इज जस्टिस डिनायड’ (न्याय में देरी न्याय न मिलना है) पुरानी बात है। फिर भी नोटबंदी के मामले में यही हुआ था और अब भी यही हुआ। महाराष्ट्र में सरकार गिराने से लेकर गुजरात से संबंधित फैसले याद किये जा सकते हैं। इस बार तो पांच जजों की पीठ ने आम राय से फैसला दिया है। इसलिए इस फैसले को व्यवस्था मान लेना चाहिये। यही व्यवस्था नोटबंदी के समय से चल रही है। भारतीय अदालतों की हालत और वहां न्याय के नाम पर जो सब हो रहा है वह अलग मुद्दा है। इसका वर्णन और कई लोगों के अलावा, अरुण शौरी ने अपनी पुस्तक, ‘अनीता गेट्स बेल’ में बखूबी किया है। इसलिये मु्द्दा वह भी नहीं है।

मेरा मुद्दा यह है कि खबरों से लग रहा है और कुछ लोग यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि फैसला तो यही होना था, केंद्र सरकार का फैसला सही था, उसे चुनौती देने की जरूरत ही नहीं थी आदि आदि। सोशल मीडिया पर भी ऐसी चर्चा है। हालांकि मैं इससे सहमत नहीं हूं। मेरा मानना है कि इस सरकार ने ऐसे काम किये हैं जिसे अदालतों में चुनौती देना मजबूरी थी और न्याय हुआ कि नहीं उसे अगर छोड़ दिया जाये तब भी यह तथ्य है कि अदालत में समय बहुत लगता है और जकिया जाफरी के मामले में जब या जितनी देर से फैसला हुआ उससे न्याय तो होना नहीं था राजनीति जरूर हो सकती थी। और इस लिहाज से देखिये तो फैसला राजनीति के अनुकूल लगता है। बिलकिस बानो का मामला उदाहरण है। अनुच्छेद 370 का फैसला भी ऐसा ही है। यह भी राजनीति के अनुकूल है और हिन्दुस्तान टाइम्स में फैसले की खबर के साथ प्रधानमंत्री का लेख छापकर इसे पुख्ता कर दिया है।

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फैसले पर प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया ‘खबर’ भले हो पर उसकी जरूरत तब होती जब फैसला उनके या उनकी सरकार की कार्रवाई के खिलाफ होता। जब फैसला समर्थन में है तो उन्हें जो कहना है वह सबको मालूम है। फिर से कहने का मौका क्यों देना? हालांकि उनके पास अपनी बात कहने के तमाम तरीके हैं और वे किसी का भी उपयोग कर सकते थे। इसलिए हिन्दुस्तान टाइम्स ने जिस ढंग से फोटो के साथ प्रधानमंत्री का पक्ष छापा है, वह खबर या प्रतिक्रिया नहीं प्रचार है। अखबार ने बताया है कि पूरा आलेख अंदर पेज 11 पर है। ऐसे में पहले पन्ने पर मूल खबर के साथ, ‘एकता के बंधन, सुशासन का वादा हमें परिभाषित करते हैं’ प्रचारक प्रधान सेवक को मंच, माइक और श्रोता मुहैया कराना है। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी प्रधानमंत्री का यह आलेख छापा है और पहले पन्ने पर पूरा आलेख अंदर होने की सूचना दी है। लेकिन वह इतना भोंडा नहीं है। दिलचस्प यह कि हिन्दुस्तान टाइम्स ने प्रधानमंत्री का कोट भी छापा है और वह रिवर्स लाल रंग में है।

द हिन्दू ने पहले पन्ने पर इसे खबर के रूप में छापा है। शीर्षक है, फैसला उम्मीद की घोषणा है, प्रधानमंत्री ने कहा। अखबार ने बताया है कि प्रधानमंत्री ने यह सब ट्वीटर (अब एक्स) पर कहा है। मुझे लगता है कि तरीका यही है। पहले बयान या बाइट लेने रिपोर्टर को भेजा जाता था, छपास रोगी खुद भेज देते थे। अब ट्वीटर है तो पाठक सीधे देख सकता है। इसलिए नहीं छापने से भी चलता। लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स ने तो हद कर दी। इंडियन एक्सप्रेस ने भी इसे हिन्दू की तरह खबर बनाकर छापा है। एक्स की खबर को बाइलाइन के साथ दो कॉलम में लगाया है। इंडियन एक्सप्रेस ने इसके नीचे जो खबर छापी है उसका शीर्षक है, संघर्ष जारी रहेगा : उमर; मुफ्ती ने कहा, कोई भी फैसला अंतिम नहीं होता है। सरकार ने कश्मीर में जो किया उसपर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का फायदा उठाने के लिए पूर्व तड़ीपार, अब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा है, मोदी के तहत यह नया कश्मीर है। इसे भी अखबारों ने प्रमुखता से छापा है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस सरकार ने पक्ष में फैसला देने वाले जजों को पुरस्कृत भी किया है। ऐसे में फैसले का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश अनुचित न भी हो तो अनैतिक जरूर है। फिर भी, अमित शाह ने कहा है और नवोदय टाइम्स ने तीन कॉलम में छापा है, फैसला विपक्ष की हार।   

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खासकर तब जब जम्मू और कश्मीर की पार्टियों ने कहा है, संघर्ष जारी रहेगा (द हिन्दू)।  फैसले के बारे में महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि यह न सिर्फ जम्मू व कश्मीर के लिए मौत का फरमान है बल्कि आईडिया ऑफ इंडिया के लिए भी। इसी तरह, उमर अब्दुल्ला ने फैज़ का उल्लेख करते हुए कहा है, दिल ना उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है, लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है। और ऐसे में प्रधानप्रचारक सुशासन का दावा कर रहे हैं जब आज ही टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक खबर के अनुसार मध्य प्रदेश के सतना जिले में 30 साल की महिला के साथ चलती ट्रेन में बलात्कार किया गया और 22 साल के संदिग्ध कमलेश कुशवाहा ने खुद को एक खाली कोच में बंद कर लिया। तीन घंटे की कोशिशों के बाद उसे गिरफ्तार किया जा सका।

यही नहीं, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इस फैसले की आड़ में अगर अपने सुशासन का प्रचार कर रहे हैं तो कपिल सिब्बल ने कहा है, और द टेलीग्राफ में आज अपने कोट के रूप में छापा है, “कुछ लड़ाइयां हारने के लिए लड़ी जाती हैं ताकि असहज करने वाले तथ्य इतिहास में दर्ज हो जायें और पीढ़ियां उन्हें जान सकें। संस्थागत कार्रवाइयों के सही-गलत पर आने वाले कई वर्षों तक चर्चा चलती रहेगी। इतिहास अकेले ऐतिहासिक निर्णयों के नौतिक कंपास का अंतिम मध्यस्थ है।” अखबार ने लिखा है कि कपिल सिब्बल ने यह बात सोमवार को सुबह कही थी। आप जानते हैं कि इस मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया गया था और कल आना था। कपिल सिबल ने फैसला आने से पहले यह बात कही थी। यह अलग बात है कि लोग कई लोगों ने इस मुकदमे को अदालत का समय खराब करने वाला भी कहा है।   

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कहने की जरूरत नहीं है कि अखबारों ने फैसले की जो खास बातें छापी हैं उससे जाहिर है कि मामला बहुत आसान नहीं था और जो किया गया वह सब सही नहीं था। सबसे पहले तो इतने समय तक चुनाव नहीं कराना। हिन्दुस्तान टाइम्स ने बताया है कि अदालत ने जम्मू व कश्मीर राज्य के बंटवारे पर कोई फैसला नहीं दिया है और कहा है कि सॉलिसिटर जनरल ने कहा है राज्य का दर्जा बहाल किया जायेगा। इसके मद्देनजर हम यह तय करना आवश्यक नहीं मानते हैं कि नहीं जम्मू व कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 अवैध था। अदालत ने निर्देश दिया है कि सितंबर 2024 तक जम्मू व कश्मीर विधानसभा चुनाव कराये जाएं। यही नहीं, राज्य का दर्जा जल्दी से जल्दी दिया जाना है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने 19 जनवरी को ही प्रेस कांफ्रेंस करके कहा था कि राज्य में चुनाव की सारी तैयारी हो चुकी है। खबरों से पता नहीं चल रहा है कि चुनाव नहीं होने का कारण यह मुकदमा था या कुछ और।      

कहने की जरूरत नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट में जब ज्यादातर मामले सरकार की कार्रवाई के खिलाफ जा रहे हैं और अगर उसका राजनीतिक उपयोग किया जाएगा तो सांसद महुआ मोइत्रा के मामले में फैसला शीघ्र क्यों आना चाहिये। वैसे भी उनका कार्यकाल कुछ महीने में समाप्त होने वाला है और तब उनकी सदस्यता खत्म किये जाने का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। ऐसे में न्याय तभी होगा जब फैसला शीघ्र हो पर सुप्रीम कोर्ट में जो मामले लंबित हैं उनमें यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना गया तो देर होगी और शीघ्र आ गया तो सत्तारूढ़ दल को नुकसान होगा। क्या अदालत सत्तारूढ़ दल का राजनीतिक नुकसान करने (या कर पाने) की स्थिति में है? समय बतायेगा। पर जो तय है वह यह कि अदालतों में फैसले देर से होते हैं और सत्तारूढ़ दल ने उसका राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की है जबकि राजनीतिक असर वाले कई मामले अभी भी लंबित हैं। उनका फैसला लोकसभा चुनाव से पहले आये तो राजनीतिक उपयोग होगा और नहीं आये तो न्याय नहीं होगा या देर से होगा जो न्याय मिलना नहीं है। सरकार की चिन्ता यह होनी थी पर कुछ और है। इसकी चिन्ता किसी को है ऐसा नजर नहीं आ रहा है।

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