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सुख-दुख

आजकल मैं “दी” संप्रदाय से आक्रांत हूं : गीता श्री

Geeta Shree : एक पोस्ट “दी” संप्रदाय के लिए…

पत्रकारिता में अपनी सीनियर को ” दी” का चलन नहीं. वो तो साहित्य में आकर देखा जाना. जिन्हें मै पहले ” जी” लगा कर संबोधित करती थी, उन्हें ” दी” कहने लगी. अच्छा लगा. फिर मुझे ” दी” कहने वाले आ गए, खोह से निकल के. जिन्हें जानती नहीं, पहचानती नहीं, वे भी दी दी की रट लगाए आ धमकीं. चलो, ये भी मंज़ूर.

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Geeta Shree : एक पोस्ट “दी” संप्रदाय के लिए…

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पत्रकारिता में अपनी सीनियर को ” दी” का चलन नहीं. वो तो साहित्य में आकर देखा जाना. जिन्हें मै पहले ” जी” लगा कर संबोधित करती थी, उन्हें ” दी” कहने लगी. अच्छा लगा. फिर मुझे ” दी” कहने वाले आ गए, खोह से निकल के. जिन्हें जानती नहीं, पहचानती नहीं, वे भी दी दी की रट लगाए आ धमकीं. चलो, ये भी मंज़ूर.

अब मैं जिन्हें ” दी” कहती हूँ, उसका निर्वाह जरुर करती हूँ. ख़याल रखती हूँ कि किसी एक पक्ष की पार्टी बन कर उलझूँ न उनसे. सोच समझ कर ” दी” कहती हूँ. यूँ ही मुँह उठाए किसी अनजान को दी कहने नहीं जाती.

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आजकल मैं “दी” संप्रदाय से आक्रांत हूँ.

आप लोगो से निवेदन है कि भूल से भी मेरे रास्ते को काटते हुए न निकलें. यह रास्ता मेरा बनाया हुआ. रोज़ सतह को चिकनी करती हुई डग धरती हूँ. मुझसे किसी के एजेंट की तरह( कुछ कुछ प्रेमिकाओं की तरह) न भिड़ने आ जाएँ. दी दी कहके गला न काटें और मेरे बहाने अपना जन संपर्क न बढ़ाएँ. जब मैं किसी को संबोधित हूँ तो वहाँ पैरोकारी या हस्तक्षेप की दरकार नहीं.

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जैसे वरिष्ठ पीढी हमारी पीढी को संदेह से देखती है , ठीक वैसे ही हम आपको संदेह से देख रहे. अभी ख़राद पर चढ़ना बाक़ी है बहनों.

कुछ लिख पढ लेना चाहिए फिर बहसों में उतरना चाहिए. कुछ उत्कृष्ट रचनाएँ पॉकेट में हो तो फिर बात करिए.

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फूलो पर पत्तों पर शहद भरे छत्तो पर… लिखने से साहित्य का क्या भला होगा जी?

वरिष्ठ पत्रकार गीता श्री के उपरोक्त एफबी स्टेटस पर आए कई कमेंट्स में से कुछ प्रमुख कमेंट यूं हैं :

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Ranjana Tripathi : फेसबुक पर दी-दी की पीपड़ी बजाने वाले कुकुरमुत्तों की तरह उग आये हैं। यहां फेसबुक पर एक बड़ा वर्ग है, जो दी-दी करके पोस्ट पर उबकाई करने लगता है। ऐसे भाई-बहनों को लगता है, दी-दी करके वे हमारे ड्राइंगरूम तक घुस जायेंगे और फिर ड्राइंगरूम से बाहर निकल कर घर के पर्दों और चादरों के बारे में बात करेंगे। ऐसे भाई-बहनों से ईश्वर दूर रखे। मैं तो खुद सबसे पहले ऐसे भाई और बहनों को बाहर का रास्ता दिखाती हूं, फिर भी हर दिन एक नया भाई-बहन पैदा हो जाता है… बाबा, नाम ले लो… भगवान के लिए “दी” न बनाओ। हम लोग रिश्ते निभाने के मामले में थोड़े कच्चे हैं और आपकी मंशा भी अच्छे से समझते हैं।

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Neeta Mehrotra : मैम , सहमत हूँ आपसे। बेवजह की रिश्तेदारी को सम्मान देना कहकर जस्टिफाई किया जाता है। पहली ही मुलाकात में रिश्तेदारी कैसे बना ली जाती है यह समझने की क्षमता मुझमें नहीं। …. और मजे की बात ये कि इस आदर के भीतर जो घात छुपा होता है उसका दर्द झेलने वाला ही समझ सकता है।

Narendra Bhalla : गीता जी,इतना गुस्सा अच्छा नहीं.अब आप उस मुकाम पर हैं,जहाँ नई लेखिकाओं की हौसला अफ़ज़ाई करना चाहिए…ये सिर्फ अभिव्यक्ति है,सलाह नहीं….अब कहीं मुझ पर मत भड़क जाइयेगा,वरना दिवंगत शरद जोशीजी के शब्दों में हम तो नरभसिया जाएंगे…☺☺☺

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Mukesh Mahan : यह सिर्फ साहित्य में ही नहीं है, कभी पत्रकारिता में दी और भैय्या का प्रचलन रहा है.हां जब से कारपोरेट (चैनल) की पत्रकारिता चलन में आई है तब दी और भैय्या की जगह जी लगने लगा है. इससे परे बिजनेस और दूसरे सेक्टरों में भी सर और मैडम का उपयोग भी उसी के लिए होता है जिससे आप अभी त्रस्त हैंं .सच तो यह है कि इसका इस्तेमाल सिर्फ पैरोकारी के लिए ही नहीं किया जाता बल्कि कभी कभी तो इन शब्दों के सहारे आपके संबंध रुपी संसाधन को ही हड़प लेने की कोशिश की जाती है.

Jugal K Malpani : Do not have to be so upset. Clearly and gently say how you want to be addressed and how you like to addressed by others. I think most sensible people. will respect your wishes otherwise you break the relationship. Your post does not come across as to whom it is addressed. Respectfully written with no malice.

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