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सुख-दुख

क्योंकि जो मरा वो एक पत्रकार था…

राकेश चतुर्वेदी

पिछले 24 घंटे से मन बड़ा विचलित हुआ पड़ा है। हालांकि पहले विचलन कुछ अजीब सा होता था। घंटों, दिनों या कभी-कभी हफ़्तों तक मन नहीं लगता था, दिमाग झुंझलाया रहता था। मगर अब वक्त की ठोकरें कहें या मस्तिष्क की परिपक्वता, मन अब विचलन के साथ दैनिकचर्या का सामंजस्य बिठाने के तरीके सीख गया है। विचलन का कारण वही है जिससे कमोबेश कल से बनारस और आसपास के पत्रकारिता जगत के अलावा तमाम लोग विचलित हैं… राकेश चतुर्वेदी सर का असमय जाना।

आज सुबह तो कलेजा मुंह को ही आ गया जब आंखें खुलते ही फेसबुक पर जन्मदिन का नोटिफिकेशन आया, उनमें एक विजय का भी था। विजय उपाध्याय… वही लड़का जो कम समय में तमाम सफ़र करते हुए एक सम्मानित अखबार तक पहुंचा और फिर अचानक एक दिन अनंत के सफ़र पर चल पड़ा। तमाम बातें थीं जो मन में सुबह से ही घुमड़ रही थीं।

आखिर एक पत्रकार क्या है… समाजसेवी नहीं है, क्योंकि समाज को समय नहीं दे पाता। नौकरी से जो थोड़ा-मोड़ा समय मिलता है उसमें अपनी तमाम दुश्वारियों को दरकिनार कर सबसे ज्यादा हंसना चाहता है। खुद को larger then life दिखाना चाहता है। वह नौकरशाह भी नहीं है क्योंकि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के समय वो जिंदगी से सबक सीखने में अपना समय ‘नष्ट’ कर चुका होता है, बाद में अपने से कम उम्र या बेहद कम मेधा वाले अफसरों को सर या भाई साहब कहने को अभिशप्त होता है। वो कारोबारी नहीं है, नेता नहीं है, शिक्षक नहीं, वकील नहीं, डॉक्टर नहीं, पुलिस नहीं…समाज का नजरिया उसे एक सामान्य नौकरीपेशा बनने नहीं देता।

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तो कुल मिलाकर वो एक ऐसी अभिशप्त आत्मा का जीवन जीता है, जिसके पास न अपना कोई बड़ा बैंक बैलेंस होता है, न कारोबार, न नौकरी की निश्चिंतता। और तो और अगर कुर्सी पर नहीं रहा तो अंत समय में चार कंधे साथ होंगे या नहीं इसमें भी संदेह है। बच्चों के, परिवार के बड़े सपने उसे डराते हैं। ‘मुझे कुछ हो गया तो इनका क्या होगा’ की फिक्र कई लोगों की सच हो भी चुकी है।

साथी अफसोस जताते हैं, जो सक्षम हैं वो मदद का ढांढस बंधाते हैं, कुछ अफसरों के यहां तक की दौड़ लगाते हैं और वहां बड़े ही विनम्र तरीके से ये बताकर लौट आते हैं कि जो गया उसका परिवार बड़ी ही परेशानी में है। अगर प्रशासन मदद कर देता तो उसका यशोगान होता आदि आदि…

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फेहरिस्त लंबी है ऐसे जाने वालों की। राकेश सर से पहले विजय, मंसूर चचा, गंगेश सर, सागर, सुशील चचा जैसे कई रहे जो असमय काल के गाल समा गए। कारण अलग अलग हो सकते हैं मगर नियति एक सी दिखी है अब तक। दो-चार दिनों की श्रद्धांजलियों का दौर, कुछ हफ़्तों की दौड़भाग। जो खुशकिस्मत थे उन्हें संस्थान और प्रशासन से सहयोग मिला।

कुछ ऐसे भी थे जो अपने बाद बेटे और परिवार के लिए संघर्ष की थाती ही छोड़ पाए…

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समाज के किसी भी तबके से न जुड़ के भी हम पत्रकार हर तबके की सोच विकसित कर लेते हैं। हम एक नेता, एक नौकरशाह, एक समाजसेवी, एक डॉक्टर, एक वकील, एक पुलिस वाले, एक कारोबारी और ऐसे ही न जाने कितने एक-एक की तरह एक ही समय में सोच सकते हैं। लेकिन यह सब विकसित करने में हम अपने विकास को कहीं पीछे, बहुत पीछे छोड़ देते हैं।

30 साल से ज्यादा पत्रकारिता और 15 साल से ज्यादा संपादकी कर चुके एक वरिष्ठ पत्रकार को एक फ्लैट खरीदने के लिए मैंने पाई पाई जुटाते देखा है, एक अति वरिष्ठ को बार बार वही टुटही स्कूटर बनवाते देखा है, दशकों के क्राइम रिपोर्टर को अपने प्लॉट पर मिट्टी गिरवाने के लिए पिता से पैसे मांगते भी देखा है।

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आखिर क्यों ऐसा है। आखिर क्या वजह है कि इनके मरने पर अफसोस करने वाला सबसे पहले यही कहता है कि बेचारे का घर कैसे चलेगा !!! जबकि अखबारों के मालिकान या दिल्ली में बैठे जिल्ले-इलाहियों के बारे में ऐसी बातें नहीं होतीं !!! अफसोस होता है कभी कभी कि मैंने जीवन के अमूल्य डेढ़ दशक इस काम को दे दिए। अफसोस होता है जब पलट कर देखता हूं और सोचता हूं कि मुझे आज भी इस काम से उतना ही प्यार है। खैर, अफसोस बहुत से हैं।

बस कामना है कि राकेश सर, विजय या मंसूर चचा जैसे अफसोस न करने पड़ें जिंदगी में आगे। आवाज़ वहां तक पहुंचे जहां संस्थान अपने लोगों की सुधि लेने का संकल्प लें। क्योंकि जो मरा वो सबकी सोचने वाला एक पत्रकार था…

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हे ईश्वर, उन्हें सद्गति और इन्हें सद्बुद्धि देना।

पत्रकार अभिषेक त्रिपाठी की एफबी वॉल से।

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