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उत्तराखंड

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पत्रकारों के लिए सुनाया एतिहासिक फैसला, लेकिन सवाल वही है- ‘इसे लागू कौन कराएगा माई लॉर्ड?’

सुप्रीम कोर्ट ने नाक रगड़ लिया लेकिन किसी अखबार मालिक ने ठीक से मजीठिया वेज बोर्ड लागू नहीं किया. वो मीडियाकर्मी जो खुलकर मजीठिया वेज बोर्ड मांगते हुए सामने आए, उन्हें या तो नौकरी से निकाल दिया गया या फिर दूर दराज कहीं ट्रांसफर करके फेंक दिया गया. जो लोग चुप्पी साधे अखबारों में मालिकों की गुलामी बजाते रहे, उन्हें बाबाजी का ठेंगा मिला.

उत्तराखंड हाईकोर्ट भले कह ले कि तलवार से अधिक ताकतवर है कलम, लेकिन सच्चाई आजकल यही है कि अखबार मालिक सत्ता के हरम में कान-आंख विहीन नपुंसक दास हो चुके हैं जिनसे कलम की बात करना अपने मुंह पर थूकने जैसा है.

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फिलहाल पत्रकार लोग खुश हैं कि कोर्ट ने बड़ा अच्छा अच्छा फैसला दिया है. पर जल्द ही हकीकत पता चल जाएगी कि जब सुप्रीम कोर्ट के कहे का कोई असर नहीं तो फिर ये हाईकोर्ट क्या चीज है. फिर भी, बात कर लेते हैं आज आए फैसले का.

उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सरकार को मजीठिया वेज बोर्ड आयोग की रिपोर्ट लागू कराने के लिए निर्देश दिए हैं. उत्तराखंड हाईकोर्ट ने आज ऐतिहासिक निर्णय देते हुए श्रमजीवी पत्रकारों, रिपोर्टर्स, स्ट्रिंगर्स, संवादसूत्रों व मीडिया कर्मियों का उनके संस्थानों द्वारा शोषण किए जाने का संज्ञान लेते हुए फैसला सुनाया.

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पत्रकारों की समस्याओं पर पत्रकार रविंद्र देवलियाल ने जनहित याचिका दायर की थी. इस याचिक पर कोर्ट ने उत्तराखंड राज्य सरकार को कई आदेश जारी किए हैं. उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को कहा है कि सभी श्रमजीवी पत्रकारों को 1955 के अधिनियम के अनुरूप मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के तहत संस्तुत वेतनमान दिया जाए और इसे 2011 की अधिसूचना की तिथि से ही दिया जाए.

जरूरत मन्द मीडिया कर्मियों की आकस्मिक सहायता के लिए निधि बनाया जाए. सभी कार्यरत मीडियाकर्मियों और पत्रकारों को एक सीमा तक निःशुल्क चिकित्सा सुविधा दी जाए. वयोवृद्ध पत्रकारों को उचित पेंशन राशि दी जाए. पेंशन की राशि महंगाई सूचकांक के अनुसार बढ़ाएं और पेंशन की योजना तुरंत लागू करें. वयोवृद्ध पत्रकारों के लिए स्वास्थ्य योजना लाए सरकार.

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आवास, प्लाट योजनाओं में पत्रकारों को आरक्षण और संरक्षण दिया जाए. आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर कल्याणकारी योजना बनाया जाए. निर्भीक पत्रकारिता हेतु उनकी सेवा अवकाश शर्तों में सुधार की जरूरत. 1955 के श्रमजीवी पत्रकार एवं अन्य समाचार पत्र कर्मी (सेवा की शर्तें) अधिनियम के प्राविधान सख्ती से लागू करे सरकार.

मीडिया कर्मियों व पत्रकारों की दशा के संदर्भ में न्याय मित्र के रूप में एडवोकेट दुष्यन्त मैनाली ने आंकड़ों और दस्तावेजों सहित मजबूती से मीडिया कर्मियों का पक्ष रखा. न्यायालय ने सभी दलीलों को सुनने के बाद इस मामले में फैसला सुरक्षित रख लिया था जिसका निर्णय आज आया. न्यायालय का फैसला सरकार को जगाने वाला और मीडिया कर्मियों की दशा और सामाजिक सुरक्षा के संदर्भ में दिशा प्रदान करने वाला है. अपने आदेश के अंत मे न्यायालय ने कहा है कलम तलवार से अधिक ताकतवर है.

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कहा जा सकता है कि इस फैसले से अगर उत्तराखंड सरकार की नींद टूटी तो इस राज्य के पत्रकारों के लिए कुछ योजनाएं लाई जा सकती हैं. इससे ज्यादा कुछ होने वाला नहीं है क्योंकि मजीठिया वेज बोर्ड लागू कराते कराते सुप्रीम कोर्ट थक चुका है लेकिन माफिया में तब्दील हो चुके मीडिया मालिकों की सेहत पर कोई असर नहीं. वे खुलकर और लगातार सुप्रीम कोर्ट की अवमानना कर रहे हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट की ताकत-औकात नहीं कि वह किसी अफसर या किसी मालिक को मजीठिया वेज बोर्ड न लागू करने को लेकर जेल भेज सके.

ऐसे में उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले की असलियत को समझा जा सकता है. यह फैसला बहुत सारी अच्छी अच्छी बात करता है लेकिन असल सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन?

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जाते-जाते पत्रकारों के लिए बड़ा आदेश कर गए न्यायमूर्ति राजीव शर्मा

उत्तराखंड हाई कोर्ट से सोमवार को स्थानांतरित हो करके गये वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजीव शर्मा जाते-जाते राज्य के पत्रकारों को बड़ा तोहफा दे गए हैं।

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सोमवार को न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व न्यायमूर्ति शरद कुमार शर्मा की खंडपीठ में नैनीताल के वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र देवलाल द्वारा दाखिल की गई जनहित याचिका पर संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार को राज्य के श्रमजीवी पत्रकारों को आंध्रप्रदेश, उड़ीसा आदि राज्यों की तर्ज पर सुविधाएं दिए जाने के आदेश दिए हैं।

साथ ही पत्रकारों को दी जा रही ₹5000 मासिक पेंशन में बढ़ोतरी करने के आदेश दिए हैं । उल्लेखनीय है कि इस लड़ाई को विगत लंबे समय से उत्तराखंड के पत्रकार लड़ रहे थे। सरकार से मांग कर उत्तराखंड में भी पत्रकारों की पेंशन 5000 से बढ़ाकर कम से कम ₹20000 महीना करने की मांग करते आ रहे हैं । पत्रकार रविंद्र देवलिया ने जो जनहित याचिका दाखिल की थी उसमें उन्होंने कहा था कि कई राज्यों में पत्रकारों को सामाजिक आर्थिक सुरक्षा दी जा रही है। अदालत ने अपने निर्णय में यह भी निर्देशित किया है कि पत्रकारों के कल्याण के लिए आंध्र प्रदेश और उड़ीसा राज्यों की तरह वेलफेयर फंड बनाए जाएं।

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इसके अलावा पत्रकारों की पेंशन व स्वास्थ्य योजना को राज्य के अपर मुख्य सचिव लोक सूचना व जनसंपर्क विभाग के निदेशक से उत्तर प्रदेश सरकार की भांति तैयार कराने सरकार की हाउसिंग योजना में पत्रकारों के लिए कुछ हाउसिंग प्लॉट या फ्लैट आरक्षित करने को भी कहा गया है। –

उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले को पढ़ने के लिए नीचे इस पीडीएफ लिंक पर क्लिक करें : WPPILNo208of2018J

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भड़ास के संपादक यशवंत सिंह की रिपोर्ट. संपर्क- [email protected]

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2 Comments

2 Comments

  1. Deepak awasrhi

    November 12, 2018 at 5:13 pm

    Uttar pradesh me akhvaaro ke jila mukhyalay ke reporters ke alava yaha bhinkise kya mil raha hai

  2. Rohit

    May 13, 2020 at 4:45 pm

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