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साहित्य

फणीश्वरनाथ रेणु की एक दुर्लभ तस्वीर देखें

Pushya Mitra : वह पिस्तौल वाला लेखक- फणीश्वरनाथ रेणु… गांवों की जीवन्तता के अद्भुत चितेरे हिंदी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की यह दुर्लभ तस्वीर 1951-52 में नेपाल में राणाशाही के विरुद्ध हुई क्रांति के दौर की है।

नेपाल राष्ट्र को अपनी मौसी मां कहने वाले रेणु उस वक़्त उस क्रांति में अपने मित्रों (कोईराला बन्धु) का साथ देने पहुंच गए थे। उस क्रांति में रेणु को नेपाली रेडियो के संचालन की भूमिका दी गयी थी। यह सीधे सीधे बंदूक चलाने वाला काम नहीं था। मगर जब वे उस क्रांति में भाग लेने जा रहे थे तो कहा जाता है कि उनकी पत्नी लतिका रेणु ने उन्हें यह पिस्तौल भेंट की थी कि बुरे वक़्त में यह उनकी रक्षा करेगा।

आज अगर रेणु जीवित होते तो अपना 99वां वर्षगांठ मना रहे होते। इस मौके पर अगर लतिका जी भी जीवित होतीं तो आज के माहौल को देख कर न जाने उन्हें क्या उपहार देतीं। मगर अपने प्रिय, सरस और सहृदय लेखक के कमर के पास लटकी यह पिस्तौल देखकर मुझे बरबस याद आ जाता है कि रेणु महज एक किताबी किस्म के लेखक नहीं थे। बदलाव की आकांक्षा सिर्फ उनके शब्दों से नहीं झांकती थी। अक्सर उनके मन में छिपा लाल कलगी वाला मुर्गा बांग देने लगता था और वे कलम छोड़ कर एक्शन में आ जाते और बदलाव की मुहिम में निकल पड़ते।

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1921 में जन्में रेणु की पहली बड़ी लड़ाई 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन था। जब वे अपने गुरुतुल्य बांग्ला लेखक सतीनाथ भादुड़ी के साथ देश को आजाद कराने निकल पड़े थे। बाद में उन्हें भागलपुर जेल में बंद रहना पड़ा, मगर वह अनुभव उनके लिए वरदान ही साबित हुआ, क्योंकि भादुड़ी जी के सान्निध्य में उनके अपने समाज को देखने समझने की सोच विकसित करने में मदद मिली। तभी मैला आँचल उपन्यास में आज़ादी के जुलूस का वर्णन लिखते वक्त उनके मन में छिपा एक चोर चीख उठा, यह आज़ादी झूठी है, देश की जनता भूखी है।

आज जिन्हें आज़ादी के नारों से सफोकेशन होने लगता है, उन्हें मैला आँचल का यह प्रसंग जरूर पढ़ना चाहिये। और पढ़ना चाहिये कि कैसे उसी उपन्यास में लघु शरीर वाला विराट मानव बावनदास भारत-पाकिस्तान(आज का बांग्लादेश) की सीमा पर जाकर नफरत और भ्रष्टाचार के खिलाफ शहीद हो गया।

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यह वही रेणु थे, जिन्होंने अकाल की पृष्ठभूमि में किसानों की समस्या को लेकर हजारों किसानों के साथ एक लंबी पदयात्रा की थी पूर्णिया से पटना तक, लगभग 350 किमी की। जबकि वे उनदिनों लगातार बीमार रहते थे।

उनके इलाके में बाढ़ आई तो नाव लेकर पीड़ितों की मदद करने के लिये उतर पड़े। बाद में उसी नाव को अपना चुनाव चिह्न बनाया और निर्दलीय चुनाव लड़ बैठे, क्योंकि उन्हें लगता था कि समाज को बदलने के लिये सदन में पहुंचना जरूरी है। हालांकि बाद में लोगों के व्यवहार से उन्हें दोनों काम से नफरत हो गई, राहत अभियान से भी और चुनावी राजनीति से भी। वे अन्यमनस्क से रहने लगे। मगध के इलाके में जब भयंकर अकाल पड़ा तो इसी वजह से वे घर से नहीं निकल रहे थे, मगर अज्ञेय उन्हें अपने साथ खींच कर ले गए। उस अकाल का जो वर्णन उन्होंने दिनमान के लिये लिखे गए रिपोर्ताज में किया है वह उनकी उस मनोदशा को जाहिर करता है।

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मगर फिर जैसे ही जेपी ने सम्पूर्ण क्रांति का बिगुल फूंका रेणु के मन में छिपा लाल कलगी वाला उनका प्रिय मुर्गा गैबी बांग दे उठा। वे फिर नई आशा और उम्मीद के साथ मैदान में उतर पड़े। पुलिस ने जेपी पर लाठी चलाई तो उन्होंने पद्मश्री के अलंकरण को पापश्री कह कर वापस कर दिया।

इमरजेंसी में फिर जेल गए और जेल में ही पेप्टिक अल्सर के शिकार हो गए। उनके परिजन कहते हैं, जेल में रहते हुए उनका सही उपचार नहीं हुआ, इसी वजह से 1977 में महज 57 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

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यह पूरा जीवन बताता है कि एक संवेदनशील लेखक का जीवन कैसा होना चाहिये। रेणु सिर्फ अहो ग्राम्य जीवन कहने वाले लेखक नहीं थे। उनके लेखन में रस है तो विषाद भी है। अपने तरह के सवाल भी हैं, जो चुभते हैं। उनके रिपोर्ताजों को पढ़े बगैर रेणु को पूरी तरह नहीं समझा जा सकता। वे नेहरू के अन्यन्य प्रशंसक हैं, मैला आँचल और परती परिकथा दोनों उनके सर्वाधिक सफल उपन्यास नेहरूवादी विकास मॉडल की गाथाएं लगती हैं।

मगर जब उनके किसी फैसले से दुखी होते हैं, तो उत्तर नेहरूचरित नामक एक व्यंग्य नाटक भी लिख मारते हैं। उनके आखिरी उपन्यासों में से एक जुलूस में शरणार्थियों की पीड़ा का जो वर्णन है, उसे आज के वक़्त में जरूर पढ़ा जाना चाहिये। वे कलम की मार से हर बार समय के सवालों को जिंदा कर देते हैं।

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और फिर जब लेखक रेणु को लगता है कि बात कलम की क्षमता से बाहर हो चली है तो वे लेखक की मेज छोड़ कर सड़कों पर उतर आते हैं। कभी नाव लेकर, कभी पैदल तो कभी पिस्तौल लेकर भी।

इसलिय रेणु के साहित्य से महज गांव की चुहुलबाजियों को उठाकर जो खुश हो जाते हैं, वे रेणु का अधूरा परिचय समाज को देते हैं। असली रेणु एक योद्धा थे, बदलाव के सिपाही। कलम उनका सबसे बड़ा हथियार था, मगर कभी भी किसी बदलाव के लिये आंदोलन में उतर जाना भी उनके जीवन की खासियत थी। क्या लिट् फेस्ट और टॉक शो से बनी ग्लैमरस छवियों का गुलाम आज का बहुसंख्यक लेखक समाज रेणु के इस बागी जीवन से कुछ सीखेगा?

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(तस्वीर रेणु के अनन्य प्रशंसक लेखक अनंत सिन्हा की वाल से साभार)

लेखक पुष्य मित्र बिहार के सामाजिक सरोकारों वाले पत्रकार हैं.

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