अंजु शर्मा-
ठीक ठाक फ़िल्म है ‘गहराइयाँ’। मतलब मुझे इतनी बुरी नहीं लगी जितने बुरे रिव्यूज़ पढ़ने को मिले। हाँ, जिन दो बातों के लिये फेसबुक रिव्यूज़ इसे ख़ारिज कर रहे थे वहाँ मुझे भी आपत्ति महसूस हुई क्योंकि दोनों से बचा जा सकता था या युवावर्ग को आकर्षित करने के हथकंडे की बजाय फ़िल्म के आम दर्शकों को भी ध्यान में रखा जा सकता था। उनमें पहला था फ़िल्म की भाषा। अब क्या ही कीजिये जिस वर्ग पर आधारित है फ़िल्म वहाँ युवा ऐसे ही फ़ फ़ करते हैं पर इतना अधिक फ़ फैक्टर जरूरी था कि 90% डायलॉग्स में यही सुनने को मिला? मेरे जैसे व्यक्ति के लिये ये बहुत अधिक है। डर रही थी कहीं कुछ देर और चलती फ़िल्म तो मेरे कानों से खून न बहने लगता।
दूसरा था फ़िल्म में मौजूद अंतरंग दृश्य। अब आज की हाई फाई जेनेरेशन के दो यंग कपल हैं जो लिव इन में हैं। समझ आता है उनका व्यवहार और बॉडी लैंगुएज। पर थोड़ा दर्शकों की समझ और कल्पना पर भी छोड़ देते निर्देशक महोदय तो फ़िल्म देखने लायक बन जाती। पर नहीं फ़िल्म तो जैसे बनी ही ott प्लेटफार्म के लिये थी कि 60% दृश्य बस उन्मुक्त प्रेमालाप को ही दर्शा रहे थे जबकि हम फ़िल्म देखना चाह रहे थे।
कहानी की बात की जाए तो मुझे कहानी अच्छी लगी। बांधे रखती है कहानी कि आगे क्या होगा पर पास्ट और प्रेजेंट के दो स्तरों पर चलती कहानी जहाँ पहले बहुत रफ़्तार से चल रही थी, वहीं अंत तक आते आते कुछ सुस्त और बोरिंग होने लगती है। रजत कपूर और सिद्धांत वाले सीन थोड़े इरिटेटिंग हो गए थे। इस जगह बहुत दोहराव लगा। मुझे सबसे अधिक नसीरूद्दीन शाह और दीपिका के सीन लगे। वह खास सीन जब वह सच जान जाती है,फ़िल्म की जान है। उस एक सीन के लिये मैं इस फ़िल्म को दोबारा भी झेल सकती हूँ। अतीत हो या वर्तमान, रिश्तों का परस्पर ताना बाना उसके खिंचाव, उसके गुंजलक और मजबूरियों को बखूबी दर्शाया गया है। विशेषकर दो रिश्तों में फंसे सिद्धांत और दीपिका की कशमकश का तनाव दर्शकों को भी महसूस होता है। दीपिका के पास्ट को लेकर एंजायटी अटैक्स वाले सीन दोहराव के बावजूद फ़िल्म से जोड़ते हैं।
कलाकारों की बात करें तो दीपिका और सिद्धांत ने अपना बेस्ट दिया। नसीर कुछ ही दृश्यों में अपने मंजे हुए अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब हुए। धैर्य करवा ठीकठाक थे। अनन्या पांडे को जितना मूर्ख या भोला नज़र आना चाहिये था वे आयीं। उनकी जगह कोई और अच्छी अभिनेत्री रही होतीं तो कहानी में फिट बैठना मुश्किल होता। बेसिकली ये दीपिका और सिद्धांत की फ़िल्म थी। हाँ ये मेरा निजी आकलन है कि दीपिका इस रोल के लिये कुछ ज्यादा अनुभवी लग रही थीं। उनके चेहरे की परिपक्वता उनकी वल्नरेबिलिटी के असर को कुछ हल्का कर रही थी। मतलब 30 साल की अलीशा के लिये चॉइस थोड़ी यंग हो सकती थी।
फ़िल्म के शीर्षक की बात सबसे पहले करनी चाहिये पर ये मुझे सबसे अनुपयुक्त लगा। गहराइयाँ की बजाय बेवफ़ाइयाँ ज्यादा सटीक बैठता। जोकिंग अपार्ट पर शीर्षक बस फ़िल्माये गए अंतरंग दृश्यों की ओर इशारा करता लगता है इसका फ़िल्म से कुछ लेना देना नहीं बनता। पता नहीं क्या सोचकर ये नाम रखा गया।
म्यूज़िक के मामले में भी कहने को कुछ नहीं क्योंकि लगभग सारे गाने बैकग्राउंड स्कोर्स हैं जहाँ इंस्ट्रुमेंटल से भी काम चल सकता था। मुझे फ़िल्म देखने के बाद एक भी गाने की धुन या बोल याद नहीं जबकि मैं म्यूजिक लवर हूँ। तो गाने बस खानापूर्ति के लिये डाले गए प्रतीत हुए। हालांकि म्यूज़िक के लिये स्कोप काफी था।
कुल मिलाकर एक बार देखने के लिये आप इसे अपने रिस्क पर देखें तो बेहतर हैं। सबक लेने के लिये भी देख सकते हैं कि गर्लफ्रेंड की कज़न से फ्लर्ट करना बहुत महंगा पड़ सकता है जबकि आपके पाँव मजबूती से न जमें हों और आपकी गर्लफ्रेंड मालदार हो। बाकी एक सबक ये भी कि छह साल के रिश्ते से मिली घुटन के बावजूद आप एक नए रिश्ते में बंधने के बाद बिना कोई वक़्त दिए सब कुछ तुरंत चाहेंगे तो अंजाम वही होगा जो दीपिका और सिद्धांत का हुआ।