गोरखपुर के वरिष्ठ पत्रकार आलोक शुक्ल ने स्थानीय प्रेसक्लब के वाट्सऐप ग्रुप पर ‘हुआं हुआं’ करने वालों की जमकर खबर ली है। ग्रुप में मचे कांव-कांव किच-किच पर कई वरिष्ठों की चिंता पर एक अति वरिष्ठ ने जो जवाब दिया, प्रस्तुत है। पढ़ें आलोक शुक्ल की खुली चिट्ठी…
गिरोहियों’ के नाम!
साढ़े तीन साल के बाद जब चुनाव की घोषणा हुई तो संस्था में कुंडली मारकर बैठे ‘गिरोहबाजों’ की मौज में खलल पड़ गया। ये गिरोहबाज नहीं चाहते कि संस्था का चुनाव हो। हालांकि, ये चुनाव न होने की बात खुद, सीधे तो कह नहीं सकते, इसलिये, संस्था के सदस्यों की जुटान वाली जगहों पर अपने जमूरे छोड़ दिये जो प्रेस क्लब के शुद्धिकरण की कोशिशों में लगे लोगों को देखते ही सियारों के झुंड की मानिंद हुआं हुआं करने लगते हैं। यह अलग बात है कि जमूरों को अपनी सफलता की तनिक भी गुंजाइश दिख नहीं रही है लेकिन, वे करें तो क्या करें, आखिर उनके भी नून रोटी और शाम के राष्ट्रीय कार्यक्रम का सवाल जो है।
ये जमूरे भी कोई सामान्य नहीं, पक्का ‘गिरोही’ हैं। ‘किसी’ के पालित पोषित ‘हुआं हुआं गिरोह’ के सदस्य होने के नाते अपने पालनहार पर उठती कोई उंगली देख श्रृगालों की भांति हुआं हुआं करना इनकी नियति है।
ये गिरोही अपनी बातों से तो ऐसा दर्शाते हैं, जैसे इन्हें प्रेस क्लब और पत्रकारों के प्रतिष्ठा, मान मर्यादा की बहुत चिंता है। लेकिन, साढ़े तीन साल तक अपने शपथग्रहण कार्यक्रम का आयोजन न कर सकने और बिना शपथग्रहण के ही कालातीत हो जाने वाली अभूतपूर्व कार्यकारिणी से कोई सवाल पूछे जाने पर इन्हें दिक्कत होती है।
इन्हें लगता है कि समय से चुनाव न होने देने से संस्था या इनके पालनहार की प्रतिष्ठा को चार चाँद लग जाते हैं! ये शायद समझते हैं कि आम सभा की बैठक न बुलाकर इनके ‘परवरदीगार’ ने कोई जंग फतह कर ली है जिससे संस्था के प्रतिष्ठा की पताका दिगदिगंत तक फहराने लगी है! इन्हें भ्रम है कि पांच साल से संस्था के पंजीयन का नवीकरण न कराने वाले जिम्मेवारों ने ऐसा करके कोई अभिनंदनीय कार्य किया है!
ये गिरोही! सिर्फ ऊल-जलूल सवाल ही पूछ सकते हैं या बकवास कर सकते हैं, क्योंकि इनके पास न तो किसी सवाल का जवाब है और न ही सार्थक व सकारात्मक विमर्श के लिए बुद्धि विवेक। ज्यादातर विवेक तो राष्ट्रीय कार्यक्रमों की भेंट चढ़ गया है और जो थोड़ा बहुत बचा भी है वह संविदा पर घास चरने चला गया लगता है!
मजे की बात यह है कि गिरोही जब किसी पर झपट्टा मारकर टूटते हैं और हुआं हुआं शुरु करते हैं तो उन्हें लगता है कि कोई उनके हुआं हुआं का नोटिस लेगा, प्रतिउत्तर में कुछ कहेगा। लेकिन, कोई भी संजीदा कलमकार उनकी कोई नोटिस नहीं लेता जिनकी वर्तनी अशुद्धियों से भरी हो फिर भी अपने को पत्रकार कहता, मानता हो। अच्छा, नोटिस ले भी तो किसकी? उसकी, जो अपनी ही चुनी कार्यकारिणी से सवाल न कर सकता हो? उसकी, जिसने निवर्तमान कार्यकारिणी से अब तक एक बार भी नहीं पूछा कि उसने संस्था की मर्यादा से खिलवाड़ क्यों किया? कि समय से चुनाव कराने की पहल क्यों नहीं की? कि साढ़े तीन साल तक आमसभा की बैठक क्यों नहीं बुलाई?
अंतिम बात (गिरोहियों से)
तो हे पाले पोसे हुए गिरोहबाजों! तुम चाहे जिसके पालतू हो या चाहे जिस किसी वजह से सुपारी किलर बनने की मंशा से हुआं हुआं करते फिर रहे हो, चाहे जिसके इशारे पर गोलबंद होकर प्रतिप्रश्न कर रहे हो या अपना आपा खोकर भाषायी हिंसा पर उतारू हो और सोच रहे हो कि सवाल करने वाला तुम्हारे हमले से भाग खड़ा होगा तो ये तुम्हारी भूल है। तुम चाहे जितना उछल कूद लो, चाहे जितनी धमाचौकड़ी मचा लो, हम जरा भी पथ विचलित होने वाले नहीं हैं। हम यहीं हैं, रहेंगे और गोरखपुर जर्नलिस्ट प्रेस क्लब के शुद्धिकरण का प्रयास तबतक करते रहेंगे, जबतक कि शुद्धिकरण कर नहीं लेते।
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