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जीएसटी वसूली नवंबर के मुकाबले घटी, अमर उजाला ने छापा पिछले साल के मुकाबले 10 फीसदी बढ़ी!

संजय कुमार सिंह

द हिन्दू की आज की लीड का शीर्षक है, जीसएटी राजस्व वृद्धि दिसंबर तिमाही में सबसे कम हुई। उपशीर्षक है, गए महीने (यानी दिसंबर में) राशि 1,64,800 करोड़ रुपए से ज्यादा रही जो नंबर में वसूली गई राशि से करीब 1.8 प्रतिशत कम है। कहने की जरूरत नहीं है कि दिसंबर में वसूली नवंबर के मुकाबले कम हुई। उसके कारण हो सकते हैं, संभव है जायज भी हों पर राजस्व वसूली बढ़ा दिखाने की होड़ में न सिर्फ सरकार बल्कि अखबार भी आगे रहते हैं और इस चक्कर में मूल खबर में खेल कर दिया जाये तो वह वैसे ही छप जाता है। उदाहरण द हिन्दू की खबर में ही है। इसका उपशीर्षक गौरतलब है, मंत्रालय ने कहा यह 1.6 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की वसूली वाला लगातार सातवां महीना है।

सरकार की यह कमाई भ्रष्टाचार रोक कर या काले धन पर टैक्स लगाकर नहीं हो रही है। 10 साल के शासन में मुद्दा यह नहीं है कि लोगों की काली कमाई रुकी या नहीं, काला धन विदेश जाना रुका या नहीं। उल्टे आम आदमी को जीएसटी देने के लिए मजबूर किया गया और यही प्रचारित किया जा रहा है। इसे सरकार अपनी उपलब्धि और सब कुछ ठीक होने के सबूत के रूप में प्रचारित करती है। इस तरह पहले के मुद्दों पर चर्चा ही नहीं है। मीडिया का काम था इनकी चर्चा करना पर उसे छोड़कर वे जीएसटी वसूली बढ़ी बताने में लगे हैं और इस चक्कर में जो दावा किया जाता है या विज्ञप्ति जैसी आती है वैसे छप जाती है। अखबारों में अब न पहले जैसे रिपोर्टर हैं और ना संपादक। इसी का असर है कि अमर उजाला में शीर्षक है, जीएसटी संग्रह 10 फीसदी बढ़कर 1.64 लाख करोड़ रुपये हुआ। तथ्यात्मक रूप से सही होते हुए भी यह सरकारी प्रचार है।

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ऐसी हालत में अमर उजाला की आज की लीड है, “शिकंजा : कनाडा में छिपा कुख्यात गैंगस्टर गोल्डी बरार आतंकी घोषित”। ठीक है कि गोल्डी बड़ा आतंकी होगा और उसे अब आतंकी घोषित किया जाना बड़ी खबर है। लेकिन बुलडोजर न्याय के जमाने में अभी तक बचा हुआ कैसे है? नवोदय टाइम्स में जापान का भूकंप लीड है। सबके साथ सवाल यह भी है कि पन्नून की हत्या की साजिश की खबर को भारत में इतनी प्रमुखता क्यों नहीं मिलती है। बनारस में पकड़े गये बलात्कार और यौन उत्पीड़न के आरोपियों की तस्वीर भाजपा नेताओं के साथ क्यों नहीं छप रही है। वह भी तब जब कांग्रेस ने इसका उल्लेख किया है इंडियन एक्सप्रेस ने पहले पन्ने पर तीन कॉलम में छापा है और गोल्डी बराड़ वहां सिंगल कॉलम में है। आज जब लीड जैसी कोई बड़ी खबर नहीं है तो ट्रकों की हड़ताल बड़ी खबर हो सकती थी। खासतौर से इसलिए कि उनसे संबंधित कानून बगैर किसी मांग के घोषित कर दिया गया है।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने एक जनवरी को इंडिया गेट पर भीड़ को लीड बनाया है, तो हिन्दुस्तान टाइम्स ने जापान के भूकंप और सुनामी की सूचना को लीड बनाया है, इंडियन एक्सप्रेस ने एक्सपोसैट लांच किये जाने को लीड बनाया है तो द टेलीग्राफ ने बताया है कि भाजपा मंदिर से दो-दो उम्मीद कर रही है। दि हिन्दू का बता चुका कि जीएसटी वसूली कम होना लीड है। कहने की जरूरत नहीं है कि 10 साल शासन चलाने के बाद भाजपा अगर मंदिर से चुनावी फायदे की उम्मीद कर रही है और राम नवमी से पहले लगभग जल्दबाजी में राम लल्ला के नये ‘घर’ में उनकी प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठा की राजनीति कर रही है तो खबर यह भी है। लेकिन जो छप रहा है और जिसकी चर्चा हो रही है वह आप देख ही रहे हैं। यह सब तब है जब सरकार ने संसद की सुरक्षा जैसे मुद्दे पर सवाल उठाने या विरोध करने के लिए करीब 150 सांसदों को निलंबित कर दिया है और ऐसा काम तो नहीं ही कर रही है उसपर नजर रखने वाली संस्थाएं व लोग उसकी गुलामी करने लगें या प्रशंसा में जुट जाएं।  

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दूसरी ओर, सरकार ने जीएसटी वसूली बढ़ने को प्रचार का एक बड़ा मुद्दा बना रखा है। यही नहीं, जब तमाम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, आरटीआई का जवाब नहीं आता है, सवाल नहीं पूछे जा सकते हैं तब जीएसटी वसूली बढ़ी – बजट भाषण में अलग से बताया जा चुका हैं। अखबारों का काम था कि वे इस खेल को बताते पर ज्यादातर इसमें शामिल लगते हैं। यह भी संभव है कि खुद ही नहीं समझते हों। द हिन्दू की खबर से स्पष्ट है कि लगातार, तेजी से बढ़ती, बहु-प्रचारित जीएसटी वसूली इस बार (दिसंबर में नवंबर के मुकाबले) कम हुई है और अखबारों ने इसे लगभग नहीं बताया है। शीर्षक में तो नहीं ही। यह तथ्य है कि बहुत सारे अखबार जीएसटी वसूली की खबर पहले पन्ने पर छापते हैं। द टेलीग्राफ अक्सर इसे बिजनेस पन्ने पर रखता है और इसबार भी वहीं है। शीर्षक है, जीएसटी वसूली तिमाही में सबसे कम हुई।

टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है और शीर्षक प्रचार वाला। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह खबर टॉप पर है और शीर्षक है, दिसंबर में जीएसटी कलेक्शन साल के मुकाबले साल के हिसाब से 10 प्रतिशत बढ़कर 1.65 लाख करोड़ हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होता, दिसंबर में जीएसटी कलेक्शन गये साल के मुकाबले 10 प्रतिशत बढ़ा। मेरा मानना है कि सरकार यह प्रचारित करे कि उसने जनता से पिछले महीने के मुकाबले ज्यादा टैक्स वसूले हैं या वसूल पाई है इसलिए जनता की हालत ठीक है – अपने आप में अटपटा है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें बहुत सारे टैक्स जबरन वसूले जा रहे हैं, नए हैं, महंगाई इसी कारण बढ़ी है और यह सरकार की उपलब्धि नहीं है। पहले कहा जाता था कि लोग आयकर नहीं देते हैं।

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भ्रष्टाचार दूर करने का मतलब था कि लोगों की दो नंबर की आय कम होगी और जो टैक्स चोरी करते हैं उन्हें पकड़ा जायेगा, टैक्स चोरी रुकेगी तो सरकारी वसूली बढ़ेगी। लेकिन सरकार ने कॉरपोरेट के लिए आयकर कम दिया। जब कहा जाने लगा कि कॉरपोरेट के टैक्स कम करने से राजस्व वसूली कम होगी, जन कल्याण के लिए पैसे कम होंगे तो सरकार बताने लगी की जीएसटी वसूली बढ़ रही है, खूब हो रही है इसलिए सब ठीक है। दूसरी ओर वही 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने का प्रचार करती है और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार ऐसा कुछ करना चाहे तो प्रधानमंत्री उसे उसे रेवड़ी कहते है, मुफ्त राशन लोगों के घर भेजना चाहे तो एलजी के जरिये मुश्किलें खड़ी करती है। अखबार यह सब बताने की बजाय खबर और विज्ञापन छापे जा रहे हैं। जब खबर में तथ्यों की जांच नहीं हो रही तो विज्ञापन के दावों का क्या कहूं।

जीएसटी वसूली का सच इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसे जबरन, लगभग बिना तैयारी के लागू किया गया है। वैसे तो यह टैक्स है और सरकार वसूलती है, अब उन सेवाओं पर भी लगता है जिनपर पहले नहीं लगता था। उदाहरण के लिए ट्रेन या डाक टिकट। लेकिन यह सब पुरानी बातें हैं और मेरा मुद्दा भी नहीं। मैं यह बताने की कोशिश करता हूं कि अखबार कैसे सब कुछ अच्छा या हरा-हरा बताते हैं। वैसे तो आज ट्रक व बस चालकों की हड़ताल से कई राज्यों में चक्का जाम बड़ी खबर है, पर अंग्रेजी अखबारों के लिए यह बड़ा मामला नहीं है। जीएसटी को जबरन बिना तैयारी लागू करने का एक असर यह भी हुआ है कि तमाम छोटे-मोटे कारोबार बन्द हो गये हैं। इससे भी बेरोजगारी बढ़ी है और लोगों की कमाई घटी है। जिनके पास अथाह पैसा है उनकी बात अलग है। लेकिन जो किराये के घर में रह रहे हैं उन्हें किराये पर भी टैक्स देना है। भले सबको नहीं, कुछ को ही।  

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आप जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को भारी और दीर्घअवधि का नुकसान पहुंचाने वाली नोटबंदी, बिना तैयारी जीएसटी लागू करने, कॉरपोरेट टैक्स में भारी कमी तथा इस बीच कोविड के कारण सरकारी राजस्व में भारी कमी हुई है। जब देश की खराब आर्थिक स्थिति का हवाला दिया जाने लगा तो सरकार की ओर से जीएसटी वसूली को पैमाने की तरह पेश किया गया। हर महीने खबर छपती है कि जीएसटी वसूली बढ़ी और इस तरह बाकी सब ठीक है। भोली भाली भक्त जनता मान जाती है और व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड करती है कि रेल में, हवाई जहाज में, मॉल में, रेस्त्रां में भीड़ ही भीड़ है तो खराब क्या है और सब बढ़िया चल रहा है। इसमें लोग भूल जाते हैं कि बात गरीबों, बेरोजगारों, बूढ़े-बुजुर्गों और उनकी होती है जो कमाते नहीं हैं या कमा नहीं सकते हैं। ऐसे लोगों से भी जीएसटी वसूली जा रही है और उस राशि पर भी ली जा रही है जो बैंक में न्यूनतम जमा नहीं रखने पर या ईएमआई नहीं देने पर जुर्माने के रूप में बैंक वसूलता है। यानी पहले बैंक खाते में पैसा रखने पर ब्याज मिलता था अब वह बैक का शुल्क होता है और कम हो तो बैंक जुर्माना लेता है और सरकार उसपर जीएसटी लेती है।

यही हाल सरकार की बहुप्रचारित जन-धन योजना का है। खाते खुल गये, बीमा हो गया, प्रीमियम खाते से कट गया। पर कितने लोगों को बीमा कराने का लाभ मिला। कोविड से मरने वाले कितने लोगों को जनधन खातों का लाभ मिला यह बताने की बजाय सरकार मंदिर के उद्घाटन और प्राणप्रतिष्ठा का प्रचार क्यों कर रही है। हिन्दुत्व की बात करने वाली सरकार ने डाक घरों को 300 रुपए लीटर से ज्यादा की दर पर गंगा जल बेचने का अधिकार दे रखा है। जीएसटी उसपर भी था, कांग्रेस ने रेखांकित किया तो खबर को गोल मोल कर दिया गया, हिन्दुओं को जगाने वालों के लिए ऐसी खबरें खबर नहीं बनती। आप कह सकते हैं कि जीएसटी वसूली नवंबर के मुकाबले बढ़ी या पिछले दिसंबर के मुकाबले, बढ़ी तो है ही और इस खबर से क्या दिक्कत है। मेरा कहना है कि अगर बढ़ी ही बताना है तो यह खबर नहीं है, प्रचार है। सरकार को प्रचार करने दीजिये, अखबार क्यों प्रचारक बने। वैसे भी सरकार देश भर में विज्ञापन छपवाकर बता ही रही है कि उसने राजस्थान में एलपीजी का सिलेंडर 450 रुपये का कर दिया है।  

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