Hareprakash Upadhyay : संस्थान छोड़ने का किस्सा यह है कि मुझे बहुत जरूरी कारणों से अचानक दो दिन के लिए गाँव जाना पड़ा और उसके बाद मुझे ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार लेने दिल्ली जाना था। मैंने इसके लिए संपादक को मैसेज कर छुट्टी की दरख्वास्त की। उन्होंने प्रबंधन के माध्यम से मुझे एक मैसेज कराया कि आपकी छुट्टी रद्द की जाती है। एक तो कई महीनों से लगातार वेतन नहीं मिल रहा था, दूसरे छुट्टी भी न मिलने से खफा होकर मैंने उस मैसेज का जवाब यह लिखकर दिया कि अगर छुट्टी नहीं दे सकते तो मेरा हिसाब किताब कर दिया जाय। यह 27 अगस्त की घटना है। उस मैसेज का तत्काल मुझे जवाब मिला कि आप आयें और अपना बकाया ले जाएं। मैं पुरस्कार लेकर लौटा तो अखबार के जीएम विनित मौर्या से मिला, उन्होंने कहा कि आधे घंटे में आपका चेक बना दिया जाएगा, आप संपादक से मिल लें।
मैंने जब संपादक से मुलाकात की, तो वे भी तैयार थे। उन्होंने कहा कि समकालीन सरोकार में आपको जो वेतन मिला था, उसमें से अंतिम दो महीने का वेतन मुझे वापस कर दीजिये, बाद में जरूरत हो तो भले आप ले लें। मैंने कहा कि समकालीन सरोकार में आपने मुझे काम करने के लिए इसीलिये रोका था कि प्रतिमाह बीस हजार देंगे। उन्होंने कहा कि नहीं उस पत्रिका में कोई फायदा नहीं हो रहा था और वे पत्रिका बंद कर देंगे तथा आजीवन व संरक्षक सदस्यों का पैसा लौटाएंगे। तथा प्रतिमाह प्रंबंध संपादक की ओर से मिलने वाला पैसा पचीस हजार रुपया भी वापस कर देंगे, तो फिर मैं इस बात के लिए भी राजी हो गया कि मेरे हिसाब में से आप चालीस हजार काट लें। उन्होंने कहा कि आपका चेक बन जाएगा एक-दो दिन में। फिर चार दिन बीतने पर कोई रेस्पांस नहीं मिला तो मैंने मोबाइल संदेश भेजकर निवेदन किया कि मैं विनम्रतापूर्वक चाहता हूँ कि मेरा भुगतान कर दिया जाय और इस मामले का निपटारा शांतिपूर्वक हो जाय, इसका जवाब उन्होंने बहुत खराब ढंग से देते हुए कहा कि धमकी मत दीजिये। इसके बाद प्रबंधन से फोन आया कि 15 सितंबर तक अंतिम तिथि है, इसके पहले आपका भुगतान कर दिया जाएगा। पर भुगतान नहीं हुआ। क्या यह कर्मियों के साथ ज्यादती नहीं है…? यह मेरे साथ ही नहीं, इधर जितने लोगों ने छोड़ा, सबके साथ यही हुआ।
जनसंदेश टाइम्स, लखनऊ में फीचर एडिटर रहे हरे प्रकाश उपाध्या के फेसबुक वाल से. उपरोक्त कमेंट के जवाब में आए कई कमेंट इस प्रकार हैं….
Subhash Rai : इस्तीफे मोबाइल और फेसबुक पर घोषित नहीं होते। हरेप्रकाश ने न संस्थान को नोटिस दिया, न इस्तीफा। जिम्मेदार पद पर रहते हुए मुझे एक मेसेज करके 10 दिन के लिए गायब हो गये। दो-तीन दिन पहले 6 या सात सितंबर को लौटे तो अपना फैसला सुना कर चले गये। आठ को मुझे फोन किया तो मैंने कहा कि जो भी पैसे तुम्हार बनेंगे, मिल जायेंगे। कोई संस्थान दो दिन में हिसाब नहीं करता, वो भी तब जब आप अपनी मर्जी से बिना कोई औपचारिक सूचना दिये गये हों। जब मुझसे उनकी बात हो गयी तो थोड़ी प्रतीक्षा करनी चाहिए थी लेकिन उसकी जगह, उसी दिन उन्होंने मुझसे मोबाइल पर जिस धमकाने वाले अंदाज में बात की, वह अद्भुत था। पूर पूरी बातचीत आप भी देखिये
हरे प्रकाश – महोदय बहुत विनम्रता से निवेदन है कि 4 महीने का जो हिसाब है, उसे बिना किसी विवाद के कर दें। यही सबको हित में होगा। मैं इस प्रकरण को कहीं और नहीं ले जाना चाहता, शांतिपूर्ण ढंग से खत्म करना चाहता हूं।
सुभाष-विनीतजी से कह दिया है, उनसे बात करें और धमकी देने से बचें
हरे प्रकाश- धमकी नहीं है महोदय। यह तो निवेदन ही है। काम किया है तो मजूरी बनती है। समकालीन सरोकार में काम कराकर 3 महीने का वेतन आप ने नहीं दिया।
सुभाष- मैं इन बेकार की बातों में अपना समय नष्ट नहीं करना चाहता।
हरे प्रकाश- मैं भी चाहता हूं कि काम से काम, संवाद की गुंजाइश बची रहे और यह प्रकरण शहर में नाटकीय रूप न ले।
सुभाष- फिर कहता हूं धमकी देने से बचें।
हरे प्रकाश- फिर कहता हूं कि यह धमकी नहीं है, यह हकीकत है।
सुभाष-समझते रहो हकीकत।
हरे प्रकाश-ठीक है।
अब जिसे वे इस्तीफा कह रहे हैं, उसे भी देखिये—-
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महोदय,
लंबे समय तक वेतन भुगतान न होने के कारण व जरूरी कार्य हेतु अवकाश न दिये जाने की स्थिति में गत 27 अगस्त को मोबाइल संदेश से मैंने अपना इस्तीफा आपको व संस्थान के महाप्रबंधक को भेज दिया था, जिस पर आपने मोबाइल संदेश के माध्यम से ही अपनी सहमति भी जताई थी। फिर पाँच सितंबर को मिलकर भी मैंने अपनी इच्छा से आपको अवगत करा दिया था और आपने आश्वस्त किया था कि एक-दो दिन में चार महीने के मेरे बकाया वेतन का शीघ्र भुगतान कराने की कार्यवाही करेंगे। पर अब तक उसका पालन नहीं हुआ है।
मैं निवेदन करता हूँ कि एक सप्ताह के भीतर मेरा बकाया भुगतान कराने का कष्ट करें।
भवदीय
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वे मोबाइल पर इस्तीफा देते हैं।
Hareprakash Upadhyay : श्री सुभाष राय जी, मैंने मेल किया है यह इस्तीफा आपको और विनित मौर्या दोनों को। और धमकाने वाले अंदाज में कभी बात नहीं किया। हमेशा निवेदन किया। जब पाँच सितंबर को मिला था आपसे और आपने कहा कि एक-दो दिन में हिसाब हो जाएगा। तब आपने नहीं कहा कि कागज पर डॉट पेन से लिखकर इस्तीफा दो। तब तो आपने मेरी मजदूरी काटने भर की बात की।
Vinayak Rajhans : मेरा भी दो महीने का वेतन जनसंदेश टाइम्स ने नहीं दिया है. मेहनत के पैसे हैं सर, ऐसे नहीं छोड़ सकते. इसे तो हासिल करके ही रहेंगे. तरीके बहुत से हैं…..
Hareprakash Upadhyay : विनायक राजहंस का भी दो महीने का वेतन दिया जाय.
Kaushal Kishor : इस प्रसंग का सबसे दुखद पहलु यह है कि यह विवाद हरे प्रकाश बनाम सुभाष राय बन गया है या बना दिया गया है। फेसबुक पर इस प्रसंग को लाकर इसे जिस तरह का रूप दिया गया है, उससे कई बार यह आभास देता है कि यह सचेतन रूप किया जा रहा है। जबकि यह विवाद शुद्ध रूप से एक संस्थान के अन्दर सेवायोजक और उसके कर्मचारी के बीच का विवाद है। संस्थानों में चाहे वे सरकारी हों या गैरसरकारी सभी जगह इस तरह के विवाद के अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगे। ऐसे विवादों को हल करने के अपने तरीके हैं, सुलह वार्ता से लेकर वैधानिक। उन्हीं का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसे व्यक्तिगत बनाने तथा वाद विवाद का रूप देने से अवश्य बचना चाहिए। इसे इतना मत तानिए कि यह व्यक्तिगत प्रतिष्ठा या हार जीत का प्रश्न बन जाय। और मामला सुलझने के बजाय उलझ जाय। इसे ऐसा कतई नहीं होना चाहिए जिससे आपसी संबंध कटुतापूर्ण हो, भाषा अमर्यादित हो तथा लेखकीय प्रतिष्ठा को आघात लगे। हम जानते हैं कि सुभाष राय जी और हरे प्रकाश जी दोनो संवेदनशील, जागरूक व बड़े सरोकार वाले साहित्यकार व पत्रकार हैं। उनसे समाज व साहित्य को बड़ी उम्मीदे हैं।
Hareprakash Upadhyay : श्री Kaushal Kishor जी, क्या आप बताएंगें कि जिस संस्थान में कर्मचारियों को चार महीने का वेतन नहीं मिला है, उनके लिए प्रधान संपादक के तौर पर संस्थान का प्रमुख होने के नाते श्री सुभाष राय क्या कर रहे हैं? आखिर क्यों प्रबंधन उनका नाम लेकर ही लोगों का हिसाब-किताब करने में आना-कानी कर रहा है? चार महीनों से लोगों को तनख्वाह नहीं मिली है और वे विधिवत् इस्तीफा माँग रहे हैं…यह सब क्या है? क्या यह मानवीय स्थिति है, मजदूर को काम के बदले अपनी मजदूरी का हक है और संपादकीय सहयोगियों से प्रधान संपादक के तौर पर सुभाष जी ने ही काम लिया है, अतः जो लोग छोड़कर जा रहे हैं, कम से कम उनका तो भुगतान कराने की पहल उन्हें करनी चाहिये….यह सिर्फ हरेप्रकाश और सुभाष राय के बीच का मामला आपको लगता है, जबकि ऊपर विनायक राजहंस भी अपना बकाया वेतन माँग रहे हैं…
शशिभूषण द्विवेदी : इस्तीफा ई मेल से नहीं, सरकंडे की कलम से भोजपत्र पर देना चाहिए था। फिर उस पर नोटरी के साइन भी करा लेने चाहिए थे। यही तुम्हारी गलती थी। हद है। सुभाष जी इस सब से क्या फायदा? पैसा देकर मामला ख़त्म करिये। मैंने आप लोगों की मुहब्बत भी देखी है। हरे का आपके प्रति सम्मान और आपकी हरे को लेकर चिंता भी। उसका ही लिहाज़ रखा जाये।
Kashyap Kishor Mishra : अत्यंत दुखद है, यह सब । एक आदमी नौकरी करता है अपना और परिवार का पेट पालनें के लिए । दिन भर मजूरी करने वाले मजदूर की मजूरी जरा रोक कर देखिए शाम को । चार महीने से वेतन रोक रखना और फिर इस्तीफे के तरीके पर सवाल उठाना, यह तो विचित्र बात है । …चार महीनों का वेतन रोके रखना कौन तरीका है, भला ? आदमी छुट्टी माँगे तो जिम्मेदारी बताई जाए पर क्या कर्मचारी को समय से वेतन दिया जाए इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं ? यह तो वही बात हुई जिम्मेदारी दे दो और आदमी भीख माँग कर घर चलाए पर दी हुई जिम्मेदारी जरूर निभाए । हद है !
Brijesh Neeraj : मुझे दोनों पक्ष यह स्वीकार करते दीखते हैं कि नौकरी छोड़ी जा चुकी है. ऐसे में बकाया मेहनताने का भुगतान करके प्रकरण समाप्त कर दिया जाना चाहिए. अनावश्यक तर्क-वितर्क का कोई नतीजा नहीं. मूल मुद्दा है बकाये का भुगतान. उसके लिए बहानेबाजी, दांव-पेंच या भुगतान न करने के आधार खोजना उचित नहीं. यह प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाता है.
Shyamal Tripathi : जनसंदेश के प्रधान संपादक की सोच, अपना काम बनता भाड़ में जाए संस्था…. आज प्रदेश में तीन बड़े नेताओं की रैलियां थीं राहुल गांधी अमेठी में लोगों को संबोधित कर रहे थे, सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव बनारस में लोगों को संबोधित कर रहे थे वहीं भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी गोरखपुर में एक विशाल जनसभा कर रहे थे। लखनऊ अखबारी जगत से इन तीनों जगह पर कवरेज के लिए या तो अखबारों के संपादक या फिर ब्यूरो चीफ पहुंचे हुए थे, लेकिन एक अखबार ऐसा भी था जिसने खबरें तो लगाईं लेकिन अपने संवादसूत्रों द्वारा लिखी खबरों को लगाया। बात जनसंदेश टाइम्स की हो रही है। जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक डा. सुभाष राय को संस्थान के कार्यों में मन नहीं लगता जहां इन बड़े नेताओं की रैलियों की कवरेज के लिए या तो ब्यूरो चीफ को जाना चाहिए था या स्वयं उनको जाना चाहिए था बजाय इसके वह स्वयं सुल्तानपुर में एक कार्यक्रम के दौरान स्वयं अपना सम्मान कराने पहुंच गए। कहते हैं न अपना काम बनता, भाड़ में जाए संस्था। सुभाष राय पर यह मुहावरा एकदम सटीक बैठता है। ऐसा नहीं है कि कवरेज खबरों की नहीं हुई, अमेठी में ब्यूरो के सीनियर रिपोर्टर ने कवरेज किया था लेकिन बाकी दो जगहों से या तो एजेंसी से खबर ले ली गई या फिर संवादसूत्र द्वारा भेजी गई खबरों को लिया गया। क्या इसी कार्यशैली के चलते अखबार का विकास संभव है शायद नहीं। डा. सुभाष राय भी इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं बावजूद इसके वह कभी भी संस्थान के हित के बारे में नहीं सोचते।
Shyamal Tripathi : are Hare ji subhash rai to sabko khud dhamkee dete rahate hai nokari se nikal dene di. mere 14 sal ki ptrakarita ki life me itana ghatiya sampadak nahi dekha ye to chor haiSee Translation
Shyamal Tripathi : Kaushal Kishor and डॉ.आशीष वशिष्ठ ji asal me subhash rai ji jab se sampadak kam aour manager jyada huye hai tab se hi unki mryadit rahane sakti khtma ho gai hai jabtak o sampadak the tab tak sabhi se unake madhur sambandh the lekin ab o manager ho gaye hai aour apni mryada bhool gaye hai…
Bhagwanswaroop Katiyar : par subhash ji se bat chit karke bhi masla hal kiya ja sakta hai,aap purane dost hain.
Hareprakash Upadhyay : श्री Bhagwanswaroop Katiyar जी, आप ही को हम मध्यस्थ चुनते हैं, आप ही बातचीत कराइये। मैं पिछले 15 दिनों से बातचीत ही तो कर रहा हूँ। साथी विनायक राजहंस का भी पैसा दिलवा दीजिये, मेरे साथ उन्होंने भी काम किया है।
पूरे प्रकरण को जानने-समझने के लिए इन शीर्षकों पर क्लिक करें…
नंबर बढ़वाने के लिए सुभाष राय सहयोगियों सेे प्रबंधन की ज्यादती को शह दे रहे हैं : हरेप्रकाश
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shyamal
September 17, 2014 at 7:18 am
mitro vineet morya subhash rai ke jhashe me aakar mere PF ke lagbhag 60,000Rs/- ko mere account me jama nahi kar rahe hai kai bar kahane ke bad bhi kuch nahi hua aab mai soch raha hu ki manager vineet morya ke khilaf labour comissnor se likhit sikayat karu aour vineet morya ke khilaf FIR bhi karu aap mitra jano aour bare bhaiyo ki kya rai hai plz muje uchit salah de