इंडिया गठबंधन को ‘झटका’ लगा, अखबारों ने ‘हलाल प्रमाणित’ की तरह परोस दिया!
बहस इस पर क्यों नहीं है कि मनीष सिसोदिया को जेल में रखना गलत है या सही अथवा हलाल प्रमाणन पर प्रतिबंध क्यों
संजय कुमार सिंह-
आज के मेरे सात अखबारों में पांच की लीड एक ही है। टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस अपवाद हैं। द टेलीग्राफ ने उसी खबर के असर या विश्लेषण को लीड बनाया है जबकि इंडियन एक्सप्रेस में यह पहले पन्ने पर है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने पर है ही नहीं। टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस में केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की खबर लीड है। हालांकि, यह परिवार द्वारा मुखिया की तारीफ और उसे विज्ञापन के रूप में छपवाने जैसा है। दूसरे शब्दों में किसी एचयूएफ (हिन्दू अविभाजित परिवार) का मुखिया पुश्तैनी घर के परिसर में अपने जीवित रहने की खुशी में मंदिर बना दे तो पूरा मोहल्ला नाचने लगे।
तथ्य यह है कि मंदिर बनाने और शंकराचार्यों के विरोध के बावजूद सक्रियता से उद्घाटन में शामिल रहने वाले प्रधानमंत्री ने यह भी प्रचारित करवाया कि इसके लिए उन्होंने सख्त शुद्धीकरण ‘नियमों’ का पालन किया है। पूरे 11 दिन तक उपवास पर रहे। नारियल पानी पीया, भूमि पर शयन किया, गो सेवा के अलावा सरयू जी का ध्यान नियमों का पालन किया है। ऐसे कुल 40 नियमों का पूरे उपवास के दौरान पालन किया और यह सब करते हुए सरकारी खर्चे पर यात्रायें की, दिल्ली में रहते रहे और पूजा के दिन भी साढे़ 10 बजे वहां पहुंचने तथा चार घंटे ही रहने का कार्यक्रम था। धर्म निरपेक्ष देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री द्वारा दिल्ली में रहते हुए, यात्राएं करते हुए, पूजा के नियमों का पालन करते हुए, सरकारी खर्च पर अयोध्या जाकर धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए पहले राष्ट्रपति (भवन) से प्रशंसा और उसका प्रचार प्राप्त कर चुके प्रधानमंत्री की तारीफ अब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने की है।
इसे टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ इंडियन एक्सप्रेस ने भी लीड बनाया है और इससे लगता है कि तारीफ कुछ ज्यादा ही हो रही है। विदेशी अखबारों के शीर्षक की ठीक से चर्चा भी नहीं हुई। इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक के अनुसार देश को आजादी 1947 में मिली थी आत्मा (प्राण प्रतिष्ठा से?) 22 जनवरी को मिली। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दुओं के करोड़ों देवी-देवता है। इनमें (एक) राम को भगवान भले माना जाता है (वह भी उनके चरित्र के कारण) वरना वे थे तो राजा रामचंद्र ही जो राजा दशरथ के सबसे बड़े पुत्र होने के कारण वंशवाद से राजा बनते उससे पहले ही सौतेली मां (और पिता के कारण भी) वन जाने का मजबूर हुए थे। और इस कारण उनका चरित्र बन पाया। ऐसे भगवान के बाल्यकाल की मूर्ति और मंदिर में तथाकथित प्राण-प्रतिष्ठा (जो मूर्ति पूजने वाले ही करते हैं) से अब भारत को आत्मा मिली है तो वाकई यह बड़ी खबर है।
निर्वाचित और विधिवत गठित तथा संविधान की शपथ ले चुके सदस्यों वाले मंत्रिमंडल ने कहा है तो कोई विवाद भी नहीं होना चाहिये। भले प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल में सदस्यों को शामिल करने या निकालने के लिए म्युजिकल चेयर जैसा फॉर्मूला अपनाते भी नजर नहीं आते हैं। ऐसे सदस्यों को चुनना प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है और शायद इसीलिए इनकी प्रशंसा की इस खबर को टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रेस ने ही इतना महत्व दिया है। इंडियन एक्सप्रेस में आज पहले पन्ने पर प्रचार वाली एक और खबर है। वह यह कि एक केंद्रीय मंत्री, राज्य सभा के एक सांसद और विधायकों ने अतिवादी मैतेई समूह द्वारा बुलाई गई बैठक में हिस्सा लिया। आप जानते हैं कि मणिपुर में मैतेई और कुकी समुदाय के बीच पिछले मई से विवाद चल रहा है। कितने ही घर और चर्च जलाये जा चुके हैं, सैकड़ों लोग मारे गये हैं हालत यह रही कि परिवार वाले मृतकों के शव तक नहीं ले पाये और महीनों बाद उनका सामूहिक संस्कार हुआ।
फिर भी वहां जाना तो दूर, प्रधानमंत्री ने अभी तक शांति की अपील भी ढंग से नहीं की है। ऐसे में एक अतिवादी समूह का बैठक बुलाना और उसमें बुलाये गये लोगों का शामिल होना – खबर तो है ही पर खबर का जो हिस्सा पहले पन्ने पर है उसमें केंद्रीय मंत्री का नाम तक नहीं है। ये जरूर बताया गया है कि इनके खिलाफ “समन” जारी हुआ था। यहां खबर मंत्री के नाम समन जारी होना और उसमें उनका शामिल होना है पर खबर ऐसे छपी है जैसे चुनाव से पहले सरकार इस मामले को ठीक करने की कोशिश में हो। दूसरे कई अखबारों की लीड इंडियन एक्सप्रेस में डबल कॉलम की छोटी सी खबर है। हालांकि, शीर्षक यहां भी अलग है या वो नहीं है जो दूसरे अखबारों ने छापा है। अब मूल खबर पर आता हूं।
अमर उजाला में इस खबर का शीर्षक है, बंगाल में तृणमूल ने दिया कांग्रेस को झटका, आम आदमी पार्टी (आप) को भी पंजाब में हाथ का साथ नामंजूर। उपशीर्षक है, बिखरने लगा विपक्षी गठबंधन, उत्तर प्रदेश और बिहार में भी खटपट। इसके साथ बॉक्स में ममता बनर्जी की फोटो के साथ खबर का शीर्षक है, राज्य में कांग्रेस से अब कोई रिश्ता नहीं : ममता। यही नहीं, भगवंत मान की फोटो के साथ खबर का शीर्षक है, पंजाब में आप सभी सीटें जीतेगी। और भी खबरें हैं तथा इस मामले में सबसे विस्तार से खबरें अमर उजाला ने ही छापी है तथा बाकी खबरों पर आने और दूसरे अखबारों की चर्चा से पहले यह बता दूं कि भाजपा दावा चाहे जो करे जीत के प्रति आश्वसत होती तो कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न क्यों घोषित करती? और बात इतनी ही नहीं है, राष्ट्रपति की प्रशंसा के बाद मंत्रिमंडल की प्रशंसा और उसका प्रचार क्या कहता है।
ऐसे में मुझे मीडिया का रोल ज्यादा अटपटा लगता है। क्या उसे डर ही नहीं है कि ये सरकार चुनाव हार भी सकती है। ईवीएम को छोड़ दें तो राजनीतिक स्थितियां ऐसी नहीं है कि इस ओर से आश्वत हुआ जा सके और तब दूसरी पार्टी के चुनाव जीतने पर परेशान किये जाने की आशंका या डर नहीं होने का क्या कारण हो सकता है। मीडिया को ये आत्मविश्वास कहां से आ रहा है। ऐसे में यह संभावना भी नहीं है कि ममता बनर्जी इंडिया गठबंधन से अलग हो जायें। अभी उन्हें चुनाव जीतने के लिए भाजपा का विरोध करना जरूरी है और इंडिया गठबंधन से वे अलग हो भी जायें तो बंगाल में ना गठबंधन को और ना तृणमूल कांग्रेस को कोई नुकसान होने वाला है। इसलिए भाजपा के समर्थकों और प्रचारकों के खुश होने का कोई कारण नहीं है। फिर भी वे खुश हैं तो इसलिए कि बेशर्मी से प्रचार कर रहे हैं पर मेरी चिन्ता यह है कि उन्हें डर क्यों नहीं है।
यह समझने से पहले कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी या पंजाब में आम आदमी पार्टी के इंडिया गठबंधन से अलग रहने पर भी दोनों राज्यों में ना तो इंडिया गठबंधन को नुकसान होने वाला है ना इन दोनों दलों को। उल्टे भाजपा को कोई फायदा नहीं होने वाला है फिर भी वे खुशी दिखा रहे हैं। हालांकि इसका पता दूसरी खबरों और शीर्षकों से भी चलता है। उदाहरण के लिए, द हिन्दू में उपशीर्षक है, उन्होंने (ममता) ने कहा है कि पार्टी (कांग्रेस) ने दो सीटों की तृणमूल की पेशकश को ठुकरा दिया। इसके साथ ही कहा गया है कि राष्ट्रीय गठजोड़ का भविष्य लोकसभा चुनावों के बाद तय होगा। लेकिन मुद्दा यह है तृणमूल दो सीटें दे ही रही थी, दो और दे देती तो क्या फर्क पड़ता और क्या कांग्रेस चार से ज्यादा जीत सकती थी। खासकर तब जब यह सर्वविदित है कि कांग्रेस 250 से 300 सीटों पर ही अकेले चुनाव लड़ने की स्थिति में है।
भाजपा और उसके समर्थकों की चाल समझौते से इससे ज्यादा सीटों पर हो सकने वाले नुकसान से बचने की है। विधानसभा चुनावों में भाजपा जब दक्षिण से साफ हो चुकी है, राहुल गांधी की न्याय यात्रा और उसके विरोध से पूर्वोत्तर में लाभ की स्थिति है तथा हिन्दी पट्टी की कमजोर सीटें भाजपा से छिटकने की आशा है तो 400 पार का दावा भले किया जाये गणित बैठाना मुश्किल है और वही किया जा रहा है। एक-एक सीट का महत्व है (ताकि चुनाव परिणाम के बाद खरीद-बेच कर भी सरकार बन सके) वरना मैतेई समूह के ‘समन’ पर केंद्रीय मंत्री के बैठक में शामिल होने के प्रचार का क्या मतलब हो सकता है। हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार यह बैठक मैतेई नेताओं की है और शामिल होने वाले मंत्री या सासंद केंद्र के प्रतिनिधि नहीं, मैतेई नेता के रूप में समन किये गये थे और प्रस्तुति का यह अंतर ही पत्रकारिता का खेल हैं।
वैसे तो ममता बनर्जी के फैसले या घोषणा पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया भी अखबारों में छपी है पर मूल बात यह है कि खबर को जितनी प्रमुखता दी गई है वह इस लायक नहीं है और इससे गठबंधन खत्म होने के कोई संकेत नहीं हैं। असली काम तो टिकट वितरण और उम्मीदवार बनाने के बाद होगा। और ऊपर से झटका खाया गठबंधन भी झटका दे सकता है। पर वह अलग मुद्दा है। कांग्रेस रक्षात्मक है सो तो है ही। जैसा अमर उजाला ने छापा है। कांग्रेस ने कहा है कि ममता के बिना गठबंधन की कल्पना नहीं। इसी के साथ नीचे खबर है, अधीर फिर बोले ममता अवसरवादी। कहने की जरूरत नहीं है कि पेश दो सीटों में उनकी सीट नहीं होगी तो उनका ऐसा बोलना स्वाभाविक है पर खबर में उस बारे में कोई जानकारी नहीं है और कांग्रेस रक्षात्मक है – यह सूचना जरूर है।
इस लिहाज से द टेलीग्राफ की खबर कांग्रेस की स्थिति बताती है। आप कह सकते हैं कि यह कांग्रेस का पक्ष है। जो भी हो, शीर्षक है, इंडिया (समूह) झटके में पह हिला हुआ नहीं है। स्पष्ट रूप से इस बात की आवश्यकता है कि प्रतिकूल अटकलों कि इंडिया गठबंधन में सब ठीक नहीं है का मुकाबला किया जाये। कांग्रेस नेताओं ने तर्क दिया है कि राज्यों में शक्तिशाली या चिन्हित (आरोपित) पार्टनर लोकसभा की सीटों के मामले में स्वाभाविक तौर पर अपनी शर्तें रखें। पर कई बार रणनीतिक मजबूरियां गठजोड़ के तर्क से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसी कारण आम आदमी पार्टी का रुख पंजाब में कुछ और है पर दिल्ली में वो नहीं है। पर यही पत्रकारिता और प्रचार का अंतर है।
तर्क तो दोनों तरफ से दिये जा सकते हैं। बहस इसीलिए मनोरंजन है और यह योग्यता सबमें नहीं होती। इसी का विकास करने के लिए स्कूल-कालेजों में बाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। राजनीतिक माहौल ठीक होता तो बहस इसपर हो सकती है कि मनीष सिसोदिया को जेल में रखना गलत है या सही – पर किसी की हिम्मत है जो इसपर चर्चा करा ले। बच्चे मनीष के समर्थन में बोलने आगे नहीं आयेंगे वह भी एक समस्या होगी। पर टेलीविजन? यू ट्यूबर्स!!
हलाल प्रमाणन पर विवाद और प्रतिबंध पर कटाक्ष है। जो जानते हैं, समझ जायेंगे। नहीं समझे तो मामले को जानिये।
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