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इंडियन एक्सप्रेस की इस खबर से लगता है सरकार प्रिंट और टीवी के बाद सोशल मीडिया को नियंत्रण में लेने के लिए बेचैन!

ट्रोल सेना वाली पार्टी ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ पर सोशल मीडिया के प्रभाव से चिन्तित है

संजय कुमार सिंह

इंडियन एक्सप्रेस में आज पहले पन्ने पर प्रकाशित एक खबर के अनुसार, केंद्रीय सूचना तकनालाजी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने लोकसभा चुनाव से पहले ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ पर सोशल मीडिया के प्रभाव को रेखांकित किया है। उपशीर्षक है, उन्होंने इस प्लैटफॉर्म और इसके उपयोगकर्ता की ज्यादा जिम्मेदारी तथा इसकी  मजबूत कानूनी संरचना की जरूरत बताई है। वैसे तो यह एक खबर है लेकिन संचार साधनों पर सरकार के नियंत्रण और उसके दुरुपयोग के कई मामलों के मद्देनजर यह देखना-समझना जरूरी है कि सरकार आखिर कितना नियंत्रण चाहती है। वैसे भी अगर कोई सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ लिखे तो उसका मुकाबला हमेशा लिखकर किया जा सकता है। अच्छी बहस हो सकती है और जरूरी नहीं है कि वह मंच निष्पक्ष ही हो क्योंकि अगर कोई पक्षपात करेगा जो पहचाना जायेगा और सोशल मीडिया के पक्षपात का मतलब हुआ कि वह सरकार विरोधी सामग्री को लोगों तक नहीं पहुंचने दे और सरकार समर्थक सामग्री को ज्यादा प्रचारित करे।

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बेशक, सोशल मीडिया को इतना मजबूत होना चाहिये कि सरकारी दबाव में नहीं आये पर बीबीसी को जब छापे से डराने की कोशिश हो चुकी है और एनडीटीवी को नियंत्रण में करने के लिए उसे खरीदने वाले को सरकारी संरक्षण मिल रहा है तो यह मुद्दा होना ही नहीं चाहिये। केंद्रीय मंत्री के इस विचार से लगता है कि सरकार प्रिंट और टेलीवजन मीडिया को नियंत्रण में लेने के बाद येन-केन प्रकारेण सोशल मीडिया को भी नियंत्रण में लेना चाहती है। इसके लिए जो कानून बनाये गये हैं और जो दलीलें दी गई हैं, वह सब उदाहरण है और अभी मुद्दा नहीं है। अभी मुद्दा यह है कि चुनाव जीतने और सत्ता में मजबूती से बने रहने के लिए ईडी और सीबीआई के दुरुपयोग से लेकर चुनाव आयुक्त की नियुक्ति तक का अधिकार लेने वाली सरकार के बारे में कल ही खबर छपी थी कि जो अधिकार उसके पास नहीं हैं उसे हथिया कर बिल्किस बानो के अपराधियों को छोड़ दिया था। 150 सांसदों के निलंबन के तानाशाहीपूर्ण रवैये के बाद  सोशल मीडिया से ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ प्रभावित होने की चिन्ता पहले पन्ने पर क्यों है, समझना मुश्किल नहीं है।

यही नहीं, सोशल मीडिया से निपटने के लिए उसके पास ट्रोल सेना है और यह काफी समय से है। यह कोई हवा हवाई बात नहीं है और इसपर पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी की किताब है, आई एम अ ट्रोल। वैसे भी, सोशल मीडिया का उपयोग करने वाला कोई भी आदमी जानता है कि सरकार के खिलाफ लिखना कितना मुश्किल है और कई तरह से मुश्किल है। जो लिखा जाता है वह पाठकों तक पहुंचता ही नहीं है, सो अलग। मैं इसमें उन तर्कों और तथ्यों की बात कर रहा हूं जो कानूनन गलत नहीं हैं, जिनपर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है। एफआईआर कराने का मौका हो, भले जमानत मिल जाये तो सरकार ने कोई मौका नहीं छोड़ा है। चाहे 20 साल की बच्चियों की गिरफ्तारी हो। ऐसी सरकार चुनाव से पहले ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया’ की बात कर रही है तो अपनी तानाशाही को मजबूत करने के लिए और यहां यह उल्लेखनीय है कि सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री ऐसे लोगों फॉलो करते हैं जो महिलाओं को परेशान करते हैं, ट्रोल हैं। हाल के समय में बनारस में पकड़े गये तीन लोगों के मामले में आपने पढ़ा ही होगा। सभी नेताओं के साथ तस्वीर देखी भी होगी।

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ऐसे में अगर मंत्री जी यह कहना चाहते हैं कि सोशल मीडिया को ऐसे लोगों से मुक्त होना चाहिये तो शुरुआत उनके प्रधानमंत्री को करना है। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री के पास अपने कारण हैं और पार्टी ने उसका बचाव किया है। जहां तक मीडिया में सरकारी ताकतों के उपयोग, दुरुपयोग या प्रभाव की बात है, आपने पढ़ा होगा कि जनरल नरवणे की किताब रुकी हुई है। और आज ही खबर है (नवोदय टाइम्स) भारत ने पाक पर तान दी थी 9 मिसाइलें। यह खबर, पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त अजय बिसारिया की किताब के हवाले से है और टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले छप चुकी है। इसी तरह, इंडियन एक्सप्रेस में जनरल नरवणे की किताब के बारे में छपा था। पर उसमें जो कहा गया है या किताब समीक्षा के लिए रोक दी गई है वह पहले पन्ने की खबर नहीं बनी। बेशक यह संपादकीय विवेक, प्राथमिकता और आजादी का मामला है। अखबार और संपादक ऐसा कर सकते हैं, उन्हें अधिकार है और वे कर रहे हैं। मेरा सवाल या मेरी चिन्ता यह है कि ऐसे में केंद्रीय सूचना तकनालाजी मंत्री की चिन्ता क्या सिर्फ सरकार के समर्थन की नहीं है? या वे जनहित अथवा देश के भले की बात कर रहे हैं।

जहां तक सरकार के काम, इकबाल, कानून व्यवस्था और आम जनता की सुरक्षा की बात है, आज ही खबर है, डबल इंजन वाले उत्तर प्रदेश के कानपुर में पुलिसकर्मी और अन्य ने एमसीए के छात्र के चेहरे पर पेशाब किया, थूक चाटने पर मजबूर किया। इससे पहले ऐसी ही एक घटना डबल इंजन वाले मध्य प्रदेश में घट चुकी है। दूसरी ओर, ईडी की चार्ज शीट में लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी और उनकी बेटियों का भी नाम आ गया है। 10 साल में यह मामला नहीं निपटा और चुनाव के समय ईडी की सक्रियता तथा खबरें छपने का मामला बढ़ जाना भी मीडिया और एजेंसियों के दुरुपयोग का उदाहरण है। लेकिन देश का मौहाल ऐसा बना दिया गया है कि राजधानी दिल्ली की खाप ने दिल्ली में गांवों के नाम बदलने की है। अयोध्या में मंदिर का इतना हंगामा है कि ममता बनर्जी से इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उनके पास इसपर टिप्पणी करने से बेहतर काम हैं और यह अमूमन पहले पन्ने पर नहीं छपा है (द टेलीग्राफ)। दरअसल ममता बनर्जी ने इसे भाजपा की चाल और नौटंकी जैसा कुछ कहा है और यह भी कि मैं एकजुट करने वाले त्यौहारों को सपोर्ट नहीं करती।

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मीडिया में जब ऐसी बातें प्रमुखता नहीं पा रही हैं तो सोशल मीडिया में व्यक्ति के विचार अगर सरकार विरोधी हैं तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कैसे प्रभावित करेंगे और अगर करेंगे तो मीडिया की यह भूमिका नहीं कर रही है जिसमें जनता के पैसे से सरकारी प्रचार छप रहा है। उदाहरण के लिए, आज इंडियन ए्क्सप्रेस में विज्ञापन है विश्वकर्मा भाइयों को तीन लाख तक का कर्ज बिना गारंटी। अंग्रेजी में यह विज्ञापन कितने विश्वकर्मा भाइयों तक पहुंचेगा? इससे बेहतर नहीं होता कि यह सूचना बैंक में ही लगाई जाती। वैसे भी क्या कम पढ़ा-लिखा विश्वकर्मा भाई इन विज्ञापनों से सूचना पाकर बैंक से तीन लाख का कर्ज लेने के लिए प्रेरित होगा जब वह जानता है कि किसानों के ट्रैक्टर छीन लिये जाते हैं और किस्त चुकाने के लिए वे आत्महत्या के लिए मजबूर होते हैं। सब के बावजूद अगर वह कर्ज ले तो क्या काम करेगा? सरकारी नियम ऐसे हैं कि फुटपाथ पर काम करने वालों को कर्ज मिलना भारी मुश्किल है। और दुकान खोलकर कौन सा काम तीन लाख रुपए में हो पायेगा जिसकी किस्त चुका पाने का भरोसा उसे हो। मुझे लगता है कि यह सरकारी योजना का प्रचार भर है और जनता के धन के दुरुपयोग के अलावा कुछ नहीं।

दूसरी ओर, सरकार के काम का हाल यह है कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद चुनाव ही नहीं हुए हैं। स्थानीय निकायों का कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद भी और आज इंडियन एक्सप्रेस में खबर है कि लोकसभा चुनाव पहले होंगे। पंचायत और विधानसभा के जो चुनाव पहले होने चाहिये वे बाद में होंगे। कुल मिलाकर सरकार चुनाव नहीं करवा पा रही है, कारण चाहे जो हो। द हिन्दू में खबर है, देश के ज्यादातर शहर स्वच्छ वायु के लक्ष्य से काफी दूर हैं। इस खबर के अनुसार देश के पांच सबसे प्रदूषित शहरों में दिल्ली, पटना, फरीदाबाद, मुजफ्फरपुर और नोएडा है। पर चुनाव से पहले सरकार की चिन्ता लोकतांत्रिक प्रक्रिया के पालन की है। ईवीएम पर सरकार तो छोड़िये, भाजपा का कोई नेता भी नहीं बोलता है। और इसलिए अखबारों में उसकी चर्चा नहीं के बराबर होती है। शौचालय बनाकर स्वच्छता का प्रचार कौन भूला होगा पर स्वच्छ हवा की चर्चा भी नहीं है।

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बात सिर्फ मुद्दों और चर्चा की नहीं है। मीडिया में इनकी प्रस्तुति भी देखने लायक है। अमर उजाला में टॉप पर आठ कॉलम में छपी खबर का शीर्षक है, “एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा वापस लेना संविधान सम्मत: केंद्र सरकार।” शीर्षक पढ़कर ख्याल आया कि होगा भी तो जरूरत क्या है और संविधान सम्मत होगा तभी तो यह दर्जा दिया गया है। इसलिए, खबर तब होती जब केंद्र सरकार कहती कि यह संविधान सम्मत नहीं है। मैं नहीं जानता वास्तविकता क्या है पर अगर एएमयू का विशेष दर्जा वापस लिया जाना है तो सरकार वापस ले सकती है। मुझे नहीं लगता इसपर किसी को शक होगा। फिर भी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है और खबर के अनुसार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है, सार्वजनिक हित के खिलाफ था पूर्ववर्ती यूपीए सरकार का रुख …. संविधान पीठ ने शुरू की सुनवाई। मुझे लगता है कि यह मामला इतना सीधा नहीं है तो जैसा है वैसे ही चलने देने में क्या बुराई है। सुप्रीम कोर्ट का संविधान पीठ दूसरे जरूरी मामलों का निर्णय समय पर करे यह ज्यादा जरूरी है।

आप जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद महाराष्ट्र में विधायकों की स्थिति पर फैसला नहीं हुआ है और दलबदल से सरकार बनाने या गिराने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला तब आया था जब मुख्यमंत्री ने इस्तीफा दे दिया था और उसके बाद से विधानसभा अध्यक्ष के फैसले का इंतजार है, जो आज होने वाला है। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर लीड है और अंग्रेजी में उसके शीर्षक का अनुवाद कुछ इस तरह होगा, अमुवि राष्ट्रीय है, किसी खास आस्था वालों का नहीं : केंद्र। यहां उपशीर्षक है, विश्वविद्यालय ने सुप्रीम कोर्ट में कहा, मुसलमानों ने पैसे दिये। अल्पसंख्यक टैग अंतर्निहित है। इस दलील से समझ में आता है कि मामला क्यों संविधान पीठ के पास है। हालांकि, दोनों शीर्षक से आप समझ सकते हैं कि एक ही बात पाठकों को बताने का दोनों अखबार का तरीका कितना अलग है। जबकि फैसले के बाद जो होगा वह ज्यादा महत्वपूर्ण है और अंतिम सच वही होगा।

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कायदे से इतनी बड़ी खबर बनाने के बजाय फैसले का इंतजार करना चाहिये था। सच यह भी है कि आज अमर उजाला की लीड मालदीव में मुइज्जू की मुश्किलें बढ़ने की खबर है जो किसी और अखबार में नहीं है। ऐसे माहौल में यह चिन्ता कौन करे कि अखबारों ने अपने पाठकों को यह नहीं बताया कि बिल्किस बानो के मामले में गुजरात सरकार ने किन एतराजों को नजरअंदाज किया था। द टेलीग्राफ ने आज पहले पन्ने पर छपी खबर से यह बात अपने पाठकों को बताई है। 

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