प्रज्ञा ठाकुर को टिकट देने का सत्याग्रह, संजीव भट्ट को सजा और हरेन पंड्या की मौत पर चुप्पी
गुजरात की एक अदालत ने पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को 1990 में हिरासत में हुई मौत के एक मामले में गुरुवार को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। हिरासत में मौत के मामले में किसी आईपीएस को सजा होने का यह दुर्लभ मामला है और इस कारण तथा कई अन्य कारणों से आज इस खबर को अखबारों में प्रमुखता से होनी चाहिए थी। खबर की प्रमुखता का मतलब पहले पन्ने पर दिख जाने वाली खबर ही होता है और इस लिहाज से यह खबर आज नवभारत टाइम्स में पहले पन्ने पर दो लाइन के शीर्षक के साथ आठ लाइनों में है (अंदर भी है)।
अमर उजाला में यह खबर विज्ञापन के ऊपर दो लाइन, दो कॉलम में है और यही बताया गया है कि उन्हें 2015 में बर्खास्त कर दिया गया था। और उनपर क्या आरोप हैं। उनसे संबंधित बहुत सी बातें आज आमतौर पर अखबारों में नहीं हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि संजीव भट्ट की जगह किसी और बर्खास्त आईपीएस अधिकारी को यही सजा हुई होती (जो देश की वर्तमान व्यवस्था में असंभव लगती है और बचाने के लिए आईपीएस एसोसिएशन तो है ही) तो अखबार उनके इतिहास भूगोल से भरे होते। किसी आईपीएस अफसर को नौकरी से बर्खास्त कर दिए जाने के बाद भी हिरासत में मौत की सजा मिले यह अनूठा न भी हो तो बिरला जरूर है। पर अमर उजाला ने आज इस खबर को ज्यादा महत्व दिया है कि राष्ट्रपति के संबोधन के समय राहुल गांधी मोबाइल पर व्यस्त थे। उसपर अलग से थोड़ी देर में।
द टेलीग्राफ ने इसे तीन कॉलम में छापा है और टेलीग्राफ ने संजीव भट्ट का परिचय ऐसे दिया है, जिन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी पर 2002 की तबाही के दौरान सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया था और इस समय दो दशक पुराने एक मामले में जेल में हैं जिसमें एक व्यक्ति को नशा रखने के कथित आरोप में फंसाया गया था। इस परिचय की शुरुआत खबर के पहले ही वाक्य से हो जाती है। अखबार ने आगे लिखा है, 2011 में 1988 बैच के गुजरात कैडर के अधिकारी को राज्य सरकार ने मुअत्तल कर दिया था और यह कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दाखिल करने के कुछ महीने बाद हुई जिसमें उन्होंने मोदी पर 2002 के दंगों में शामिल होने का आरोप लगाया था। अगस्त 2015 में जब मोदी प्रधानमंत्री बन गए थे तो गृहमंत्रालय ने भट्ट को “अनधिकृत गैरहाजिरी” के लिए नौकरी से बर्खास्त कर दिया था।
दैनिक हिन्दुस्तान ने इसे पहले पन्ने पर दो कॉलम में छापा है लगभग वैसी जैसे अमर उजाला में है। अंतर सिर्फ यह है कि यहां खबर दो कॉलम में कंपोज हुई है वहां दो कॉलम की खबर एक ही कॉलम में कंपोज की हुई है। वहां शीर्षक छोटी और एक लाइन की है, यहां दो लाइन की है। खबरें दोनों एजेंसी की हैं। हिन्दुस्तान में एक और अंतर है। अखबार ने संजीव भट्ट की खबर के साथ एक और खबर छापी है, साध्वी प्रज्ञा को एनआईए कोर्ट में पेशी से छूट नहीं। यानी आईपीएस अफसर को सजा और भगवा आतंकवाद की आरोपी पेश से छूट मांग रही हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि हिरासत में मरने वाला लाल कृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के विरोध में पकड़ा गया था। यह अलग बात है कि अदालत ने साध्वी की याचिका खारिज कर दी और आज यह भी एक खबर है।
संजीव भट्ट के मामले में दोषी ठहराए गए छह अन्य पुलिसकर्मियों की सजा का एलान नहीं हुआ है। और यह भी इस खबर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर खबर इतनी छोटी छपी है कि संजीव भट्ट के बारे में तो छोड़िए पूरी खबर भी ठीक से नहीं छपी है। हिन्दी अखबारों में दैनिक जागरण ने इसे पहले पन्ने पर सात में से तीन कॉलम में फोटो के साथ छापा है। नवोदय टाइम्स ने इसे छह कॉलम में टॉप पर छापा है। इससे इस खबर की महत्ता मालूम होती है। दैनिक जागरण ने राज्य ब्यूरो की खबर छापी है। इसके मुताबिक, 1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ्तारी के विरोध में भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद ने बंद का आह्वान किया था। इस दौरान जामजोधपुर में दंगा करने के आरोप में तत्कालीन एएसपी संजीव भट्ट के निर्देश पर 133 लोगों को हिरासत में लिया था। इनमें से एक प्रभुदास वैश्नानी की हिरासत में मौत हो गई थी।
मृतक के परिजनों की शिकायत पर भट्ट, झाला समेत सात पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया था। इसके बाद 2011 में उन्हें ड्यूटी से गैरहाजिर रहने के कारण निलंबित कर दिया गया था जबकि अगस्त 2015 में बर्खास्त कर दिया गया। ऐसे अधिकारी के खिलाफ खबरें छपने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए थी और उनपर आरोप ही आरोप हैं। खबरें छपती रहनी चाहिए थी। कम से कम आरोपों से संबंधित। जागरण की खबर के मुताबिक, भट्ट ने इस मामले में 12 जून को सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दायर कर 10 अतिरिक्त गवाहों के बयान लेने का आग्रह किया था,जो खारिज हो गई थी। इस समय जेल में बंद हैं भट्ट : भट्ट को एक व्यक्ति को मादक पदार्थो की तस्करी के मामले में झूठा फंसाने के आरोप में सितंबर 2018 में गिरफ्तार किया गया था। इस समय वह गुजरात की पालनपुर जेल में बंद हैं।
दैनिक जागरण ने संजीव भट्ट से संबंधित कुछ जानकारी ऐसे छापी है। विवादों में रहे भट्ट : संजीव भट्ट हमेशा विवादों में रहे। 2002 के गुजरात दंगों को लेकर उन्होंने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाए थे। हालांकि, एसआईटी ने मोदी को क्लीनचिट दे दी थी। गत वर्ष गिरफ्तारी से पहले अहमदाबाद नगर निगम ने उनके घर में बने अवैध निर्माण को ध्वस्त कर दिया था। उनकी पत्नी श्वेता भट्ट ने 2012 में कांग्रेस के टिकट पर मोदी के खिलाफ मणिनगर से विधानसभा चुनाव भी लड़ा, लेकिन वह चुनाव हार गई थीं। एक खबर यह है कि प्रभुदास वैशनानी की मौत हिरासत से रिहा किए जाने के बाद अस्पताल में हुई थी। मैं तथ्यों की पुष्टि नहीं कर सकता। मेरा मुद्दा वह है भी नहीं। मैं खबर को कम महत्व मिलने और उसके समझ में आने वाले कारणों को रेखांकित करना चाहता हूं।
यह तथ्य है कि भगवा आतंक फैलाने की आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को टिकट देने के बाद उस समय के भाजपा अध्यक्ष और मौजूदा गृहमंत्री ने कहा था, साध्वी प्रज्ञा को टिकट देना फर्जी भगवा आतंकवाद के खिलाफ बीजेपी का सत्याग्रह है। उन्होंने कहा कि इस बात का कोई मलाल नहीं है कि हमने साध्वी प्रज्ञा को टिकट दिया। उनकी उम्मीदवारी हिन्दू टेरर पर कांग्रेस के वोट बैंक पॉलिटिक्स का जवाब है। बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि उन्होंने (कांग्रेस ने) एक फर्जी केस बनाया और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया। संजीव भट्ट के मामले में भी यह तथ्य है कि वैशनानी के भाई ने बाद में भट्ट और छह अन्य पुलिसवालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराकर आरोप लगाया था कि उन्होंने हिरासत के दौरान उसके भाई को प्रताड़ित किया जिसकी वजह से उसकी जान गई।
मेरा मानना है कि हिरासत में मौत के सैकड़ों मामले हैं। किसी में सजा तो दूर, ढंग की कार्रवाई की भी सूचना याद नहीं आती है। ऐसे में जब मालेगांव ब्लास्ट को फर्जी केस कहा जा सकता है और बीजेपी अध्यक्ष ने कहा है कि उन्होंने एक फर्जी केस बनाया और सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया। उन्होंने समझौता ब्लास्ट मामले में भी अभियुक्तों के बरी होने का उल्लेख किया है पर फैसले में अदालत की टिप्पणियों को नजरअंदाज करके पूर्व गृहमंत्री राजनाथ सिंह पहले ही कह चुके हैं कि सरकार ऊपर की अदालत में अपील नहीं करेगी। ऐसे में भगवा प्रदर्शन में गिरफ्तार व्यक्ति की मौत (रिहा होने के बाद) के मामले में इतने वर्षों बाद सजा का मामला इतना सीधा नहीं है जितना आज के अखबारों में छपी खबर से लग रहा है।
दैनिक भास्कर में भी यह खबर पहले पन्ने पर दो कॉलम में प्रज्ञा ठाकुर की खबर के साथ है। सिर्फ नवोदय टाइम्स ने इसे वाजिब प्रमुखता दी है। अंग्रेजी अखबारों में भी यह खबर पहले पन्ने पर सिंगल या डबल कॉलम में है। सोशल मीडिया पर चर्चा है कि प्रभुदास वैश्नानी की मौत किडनी खराब होने से हुई थी। मैं इन तथ्यों के बारे में नहीं जानता पर उम्मीद करता था कि अखबार इनकी पुष्टि या खंडन करेंगे। पर ज्यादातर अखबारों ने ऐसा कुछ नहीं किया है। 2003 में जब संजीव भट्ट का तबादला साबरमती जेल से हुआ था तब 2000 कैदियों ने छह दिन तक भूख हड़ताल कर इनके ट्रांसफर का विरोध किया था। इनके समय मे जेल का प्रशाशन, खान-पान, साफ सफाई की व्यवस्था इतनी बेहतर थी कि कैदी इन्हें वहां से जाने नहीं देना चाहते थे।
विरोध में छह कैदियों ने अपनी कलाई काट ली थी। 2011 में संजीव भट्ट ने मौलाना अली जौहर अकादमी से सम्मान लेने से मना कर दिया था क्योंकि 1984 सिख दंगे का आरोपी जगदीश टाइटलर अतिथि के रूप में उपस्थित थे। संजीव भट्ट 2002 के गुजरात दंगे के एक दिन पहले नरेन्द्र मोदी की उस मीटिंग में उपस्थित थे जिसमें नरेंद्र मोदी द्वारा हिंदुओ को अपना आक्रोश व्यक्त करने की छूट की हिदायत पुलिस को दी गयी थी। उसी मीटिंग में गोधरा में मरे हिंदुओं को खुले ट्रक में लाने का फैसला लिया गया था। इसी आरोप को लेकर संजीव भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में शपथपत्र दायर की हुई है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा 2002 के गुजरात दंगे के बाद बनाए गए कंसर्न्ड सिटिजन्स ट्रिब्यूनल में बीजेपी के उस समय के नेता और गुजरात के गृह राज्य मंत्री हरेन पंड्या ने भी नरेंद्र मोदी द्वारा मीटिंग में हिंदुओं को छूट देने की बात कही थी। कुछ दिनों के बाद हरेन पंड्या की भी हत्या हो जाती है। और प्रदेश में भाजपा की सरकार होने के बावजूद हत्या का खुलासा नहीं हुई। इससे संबंधित आरोपों की जांच नहीं हुई। हरेन पंड्या की हत्या में तुलसी प्रजापति का नाम आता है। और उसी तुलसी प्रजापति की मौत गुजरात पुलिस कस्टडी में होती है जिसमे अमित शाह , डी जी बंजारा आरोपी होतें हैं। और उसी फेक एनकाउंटर की सुनवाई के दौरान जज लोया की संदिग्ध मौत होती है। कहने की जरूरत नहीं है कि संजीव भट्ट को सजा होने और प्रज्ञा ठाकुर के सांसद बनने से आप एक खास दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित होंगे। और सत्तारूढ़ दल का सत्याग्रह चल ही रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट
Ashutosh singh
June 22, 2019 at 8:28 am
Very good
Sir you are right
Madan tiwary
June 22, 2019 at 10:47 am
एकबात समझ मे नही आती है, पुलिस अधिकारी कानून के अनुसार कार्य क्यों नही करते हैं ? थर्ड डिग्री तो आम बात है, जनता को अपमानित करना ये अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं, शायद ही इस मुल्क का एक भी आईपीएस होगा जो कानून के अनुसार कार्य करता हो, यूपीएससी सर्विस कोड का तो कोई मायने ही इनके लिए नही है, अगर सच कहा जाय तो देश के सभी पुलिस वालों को बर्खास्त करके जेल में डाल देना चाहिए, I don’t have any sympathy with these law breakers, whatever the high profile post they hold.