सतना (मप्र) : जनसंदेश जब बाजार में आया तो उन दिनों सतना में ये कहा जाता था कि ये दिल्ली का अखबार हैं. उसके पीछे का कारण बताया जाता था कि पेपर के संपादक और पूरी टीम बाहर की है. 16 नंबर पेज को लेकर बवाल होता था. जिसे लोकल करने की मांग होती थी. जैसा वहां के पेपरों का 16 नंबर पेज लोकल था. जनसंदेश में काम करने वाले रिपोर्टर दिमाग कहीं और से लेते थे. पेपर को डुबाने की पूरी तैयारी थी . या मालिकों तक यह संदेश जाये कि बाहर की टीम बेकार है, काम नहीं कर पा रही है.
कई बार ऐसा माहौल बनाया गया. लेकिन लोगों को सफलता नहीं मिली. कई तरह के प्रयास किये गये. फिर स्थानीय संपादक, जो डाक्टर नाम से जाने जाते हैं, उनकी सहमति से कुछ दारुबाज रिपोर्टर लाये गये. रात में कभी-कभी तो डेस्क से लड़ाई होने की नौबत आ जाये. किसी तरह से मामला शान्त हो जाता था. डेस्क इंचार्ज बाहर के थे, जो अब संस्थान में नहीं हैं. सीटी संपादक की अच्छी टीम भावना थी। पेपर आगे की ओर बढ़ रहा था. बस एक सांसद की न्यूज को लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया था.
स्थानीय संपादक उन्ही सांसद कोटे से हैं. उन्हें ये बात पसंद नहीं थी. इन सबके पीछे हाथ था एक तिवारी का, जो जनसंदेश के मालिकों को सारी बातें बताता था. जब आर्थिक स्थिति खराब हुई तो मालिकों ने तिवारी की बात सुनी. अब वही बन्दा सीटी संपादक है. कोई भी बन्दा काम करने को तैयार नहीं है. उसके आते ही पेपर के एक रिपोर्टर ने काम छोड़ दिया. यही तिवारी एक लोकल पेपर में जनसंदेश की समीक्षा करते थे. रोज खिलाफ़ लिखते थे. पेपर के रिपोर्टर को भड़काते थे. कुछ उनके पुराने चेले थे. अब क्या समिक्षा करेंगे. अब तो उनकी ही समीक्षा हो रही है. धन्य हो जीएम और एमडी.
जो लोग बाहर की टीम को देखकर ये बातें करते थे कि ये लोग पेपर को डूबा रहे हैं, आज सभी बाहर से आए लोग अच्छे पेपरो में जॉब कर रहे हैं। बाकी विरोधी वहीं पर हैं। मप्र जनसंदेश के सिटी एडिटर जो पेपर को खबरों से जीवित रखते थे, अब वो जनसंदेश नहीं आ रहे हैं। अब पेपर का क्या होगा मालिक जाने।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित