मरकर आदमी कहां चला जाता है…पवन बाबू। यह कहते-कहते सुनील साह की आंखें जैसे शून्य से ही किसी जवाब के आने का इंतजार करती लग रही थीं। मैं बहुत दिनों बाद उनसे मिल पाया था। हल्द्वानी जज फार्म उनके घर पर। उनके बिस्तर पर तिब्बत, लामा और बौद्ध दर्शन की कुछ किताबें बिखरी पड़ीं थीं और समाने ढेरों अखबार। अखबार में एक खबर चमक रही थी- खुशवंत सिंह नहीं रहे।
खुशवंत सिंह उनके प्रिय लेखक थे। यार! कमाल की बात लिखी है इस आदमी ने- मृत्यु मतलब पूर्ण विराम- फुल स्टॉप। इसके आगे कुछ नहीं। कमाल है न, जिसे हम आंखों के सामने चलता-फिरता डोलता देखते हैं वह अचानक लुप्त हो जाता है। कमल भी निकल गया। ‘कमलजीत -हमारे पुराने साथी-जनमोर्चा बरेली के मालिक सम्पादक। पुराने साथियों को याद कर वह कुछ भावुक हो रहे थे। उनकी तबीयत कुछ नासाज थी।
मैंने विषय बदलने की कोशिश की। आपने खुशवंत सिंह की ‘‘दिल्ली‘‘ पढ़ी। हां, हां, क्यों नहीं। तुमको एक किताब देता हूं, जरूर पढ़ना। यह कहते हुए उन्होंने ‘खुशवंतनामा‘ मेरे हाथ में थमा दी। कुछ ठहर कर बोले-तुम चाहो तो इसे मत लौटाना। यह ऑफर उनके स्वभाव के विपरीत था। वह किताबें देते थे फिर ले जाने वाले से उसे वापस लेने की जद्दोजहद करते थे। साथ में वे सवाल भी होते थे कि आपको किताब पढ़नी पड़े। हमारे कई ऐसे साथी जो साह से सिर्फ नम्बर लेने के लिए किताबें मांगते थे, उनको उसे पढ़ना जरूर पड़ता था।
गजब के इंसान, पत्रकार और अद्भुत सम्पादक थे। आज कैसा काला दिन आया है कि उन्हीं पर कुछ लिखना पड़ रहा है, जिनकी उंगली पकड़कर कुछ लिखना-पढ़ना सीख पाये। अमर उजाला-बरेली – मेरी ढेरों यादें उनके साथ जुड़ी हैं। वह खबरों के लिए उत्सुक और बेताब सम्पादक थे। जो खबर लाये वही उनका प्रिय। वह जानते थे कि कौन बातों का मीर है और कौन काम का घोड़ा। वह पत्रकारों को तराशते थे, निखारते थे।
मैं जब अमर उजाला, बरेली में भर्ती हुआ, मेरी दशा किसी नये -नवेले रंगरूट की तरह थी। वह खबर की लाइन डिस्कस करते थे- दिमाग खोल देते थे। क्या लिखना है? क्या संदेश देना है? खबर के किस पात्र के साथ क्या करना है? उनका नजरिया एकदम साफ था। सुबह की मीटिंग से लेकर देर रात तक की एडिटिंग तक वह साथ होते थे। मुझे याद है कि बरेली में हर सप्ताह की मीटिंग तब राजुल माहेश्वरी लेते थे। अपनी खबर पर अपने रिपोर्टर पर साहजी स्टैण्ड लेते थे। क्या अखबार निकलता था। बाद में रास्ते बदल गये, लेकिन कभी उन जैसा सम्पादक और उनके जैसा वार्म न्यूज रूम नहीं मिला।
उनको इतिहास से प्यार था। उनको पुराने सिक्के, ऐतिहासिक चीजें अच्छी लगती थीं। मुझे याद है कि मुझसे उन्होंने इंण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस को यह कहकर कवर कराया था कि सामान्य रिपोर्टर नहीं एक हिस्ट्री स्कालर की तरह कवर करना। सीबी गंज आईटीआर में उनका बचपन बीता। आई टी आर का मरना उन्हें उन्हें अखरा था। उन्होंने इस पर खूब कलम चलायी। पुरानी बातें वह अक्सर शेयर करते थे। वर्तमान का सटीक विश्लेषण करते थे। उन्होंने हमें सिखाया कि जैसा बोलो, वैसा लिखो। अखबार को क्लिष्ट मत बनाओ।
पत्रकारिता में मेरा सफर यही कोई 20-22 साल का रहा। इसमें से आधा वक्त उनके साथ बीता। बहुत जबर्दस्त टीम थी- सुरेन्द्र द्विवेदी, बृजेश सिंह, त्रिलोकी नाथ उपाध्याय, पंकज जोशी, जे.के. सिंह, बृजेन्द्र निर्मल, पंकज शुक्ला, विनीत सक्सेना, कमलजीत, प्रकाश नौटियाल, ओमकार सिंह और इन सभी के बीच मैं भी। डेस्क पर नौटियाल और चंद्र प्रकाश शुक्ला (चप्रशु) मोर्चा संभालते थे। और हम सभी शहर में खबरों का शिकार करते थे। साह जी खबर के बीच में से मुद्दा उछालते थे, सामाजिक सरोकार को समझते थे, समझाते थे। उन्होंने बड़ी और बवाली खबरों पर स्टैण्ड लिया। खबर को अंत तक पहुंचाया।
कई सम्पादक या तो सिर्फ सम्पादक होते हैं या फिर कोरे प्रबंधक। वह प्रबंधन के गुणों से भरपूर थे। किसको कितना बढ़ाना है, किस दिशा में चलाना है, कब एक्सपोजर देना है, कब नहीं? वह मानव व्यवहार की बारीकियों को बिना कुछ कहे समझ लेते थे। उनसे जुड़ी यादें और किस्से मैं कभी नहीं भूल सकता।
आधी रात को नवीन भाई की एक कॉल ने मन के अंदर कहीं कुछ तोड़ दिया। विश्वास नहीं होता, साहजी नहीं रहे। अभी उन्हें रहना चाहिए था। कई साल और। राजी भाभी के लिए, भइयू और नानू के लिए। अमर उजाला के लिए, हमारे लिए और पूरी पत्रकार बिरादरी के लिए।
लेखक एवं पत्रकार पवन सक्सेना संपर्क : 9837089090, ई-मेल [email protected]