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टेलीविजन से मुक्ति का मेरा एक दशक : पत्रकार के लिए भी नियमित टीवी देखना जरूरी नहीं!

वक्त के गुजरने की गति हैरान करती है! टीवी को घर से निकाले एक दशक पूरा हो गया! लेकिन लगता है कल की ही बात है। उस वक्त मैं अमर उजाला नोएडा में था, रात की ड्यूटी करके ढाई बजे रूम पर पहुँचता और बस फिर क्या, बिना कपड़े बदले कुर्सी पर पसर जाता और पौ फटने तक न्यूज़ चैनलों को अदालत बदलता रहता। वही एक जैसी बासी ख़बरें सब चैनलों पर देखता रहता। मेरी इस आदत के चलते पढ़ना लिखना एकदम रुक ही गया था। पूरा रूटीन डिस्टर्ब रहता। सुबह छह सात बजे सोता। 11-12 बजे उठता। नींद आधी अधूरी। शरीर की लय ताल बिगड़ी रहती। फिर सोने की कोशिश। लेकिन कोई फायदा नहीं। तब तक फिर ऑफिस जाने की तैयारी। सब कुछ गड़बड़। ऑफिस के अलावा मेरा अच्छा खासा वक्त टीवी देखने में जा रहा था। मेडिटेशन सिट्टिंग्स बंद हो चुकी थी। अब टीवी ध्यान दर्शन चल रहा था। एनएसडी की विजिट्स अब कम हो गई थी। वीकेंड मूवीज और आउटिंग भी बंद क्योंकि टीवी है ना! एलजी का यह नया गोल्डन आई अब मेरी आँखों में खटकने लगा था।

वक्त के गुजरने की गति हैरान करती है! टीवी को घर से निकाले एक दशक पूरा हो गया! लेकिन लगता है कल की ही बात है। उस वक्त मैं अमर उजाला नोएडा में था, रात की ड्यूटी करके ढाई बजे रूम पर पहुँचता और बस फिर क्या, बिना कपड़े बदले कुर्सी पर पसर जाता और पौ फटने तक न्यूज़ चैनलों को अदालत बदलता रहता। वही एक जैसी बासी ख़बरें सब चैनलों पर देखता रहता। मेरी इस आदत के चलते पढ़ना लिखना एकदम रुक ही गया था। पूरा रूटीन डिस्टर्ब रहता। सुबह छह सात बजे सोता। 11-12 बजे उठता। नींद आधी अधूरी। शरीर की लय ताल बिगड़ी रहती। फिर सोने की कोशिश। लेकिन कोई फायदा नहीं। तब तक फिर ऑफिस जाने की तैयारी। सब कुछ गड़बड़। ऑफिस के अलावा मेरा अच्छा खासा वक्त टीवी देखने में जा रहा था। मेडिटेशन सिट्टिंग्स बंद हो चुकी थी। अब टीवी ध्यान दर्शन चल रहा था। एनएसडी की विजिट्स अब कम हो गई थी। वीकेंड मूवीज और आउटिंग भी बंद क्योंकि टीवी है ना! एलजी का यह नया गोल्डन आई अब मेरी आँखों में खटकने लगा था।

अंततः इस टीवी से मुक्ति पाने की ठानी। लेकिन ये इतना आसान नहीं था। एक दिन टीवी दर्शन ऊब की चरमावस्था में पहुँचने के बाद, इस बुद्धू बक्से को इसके डब्बे में पैक कर, सहारनपुर पैरेंट्स के पते पर पार्सल कर दिया! उस दिन यह कारनामा करने के बाद मैंने एक विजेता के भाव अपने भीतर मासूस किए थे। क्योंकि टीवी एक आदत बन चुका था और किसी भी आदत को काटना और अपना नियंत्रण हासिल करना एक युद्ध जीतने से कम नहीं है! तब से आजतक फिर मैंने कभी अपने रूम में टीवी की जरुरत महसूस नहीं की। हाँ कभी गांव जाता हूं तो यदा कदा फॉक्स ट्रैवलर देख लेता हूँ। सच मानिए टीवी से मुक्ति पाकर बतौर पत्रकार मुझे नुकसान नहीं फायदा ही हुआ।

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टाइम मैनेजमेंट बढ़िया हुआ। पढ़ने लिखने सोचने विचारने के लिए अब मेरे पास ज्यादा वक्त था। मजेदार ये कि टीवी पर दौड़ने वाले घटनाक्रम को भी मैंने कभी मिस नहीं किया। इसका सीधा फंडा था। अगर कोई चैनल कुछ हटकर, उल्लेखनीय दिखाता है तो उसकी स्वतः ही इतनी चर्चा हो जाती है कि उस आइटम को देखने की जरूरत ही नहीं रहती। बाकि के लिए मैं जनसत्ता के साप्ताहिक स्तम्भ ‘अजदक’ और सन्डे एक्सप्रेस का ‘टेलिस्कोप’ नियमित देखता रहा हूं। इससे आपको पता चल जाता है कि इस सप्ताह किसकी बकबक बढ़िया या घटिया रही।

आज के दौर मैं सोशल मीडिया ने तो अब आपको और भी विकल्प दे दिए है। यूट्यूब, ट्विट्टर की लाइव स्ट्रीमिंग और फेसबुक पर टीवी दर्शक लिखते ही रहते हैं कि किसने क्या दिखाया। मुझे लगता है अगर टीवी न्यूज़ ने कुछ इनोवेटिव नहीं किया तो सोशल मीडिया और मोबाइल की जुगलबंदी पारंपरिक टीवी न्यूज़ को निगल लेगी! यह सब यहां लिखने का मकसद यही बताना है कि नियमित टीवी देखना और पत्रकारिता करना दोनों का आपस में बहुत ज्यादा सम्बन्ध नहीं है। इंटरनेट ऐज में टीवी न्यूज़ एक बासी खबर है! आप अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।

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लेखक मुकेश यादव स्प्रिचुवल जर्नलिस्ट हैं. कई अखबारों में काम करने के बाद अब आजाद पत्रकारिता, घुमक्कड़ी और आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय हैं. उन्होंने उपरोक्त विश्लेषण अपने ब्लाग पर लिखा है, वहीं से साभर लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है.

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0 Comments

  1. DR K K Rattu

    April 27, 2015 at 2:50 pm

    Dear A very good decision After spending 35 years in tv from b/w till now i agree with you thanx ab yeh budhu bxa nahi bhoknku bxa Dr K K Rattu FOrmer Director doordarshan

  2. विनोद सावंत

    April 27, 2015 at 8:33 pm

    सही कहा आपने इस बॉक्स ने दिमाग को भी बॉक्स जैसा बना दिया है ..जिस में कोई कुछ भी रख कर चला जाता है ..अपनी सोचने हे ताकत हई खत्म हो गई ..

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