-आलोक कुमार-
कादम्बिनी पिताजी की प्रिय पत्रिका थी. नियमित पाठक रहे. राजेंद्र अवस्थी का ‘काल चिंतन’ खूब भाता. उनकी दिलचस्पी के कारण ‘काल चिंतन’ मेरा पहला प्रिय कॉलम बना. बाद में प्रभाष जोशी जी के ‘कागद कारे’ पढ़ते वक़्त अवस्थी जी के गूढ़ भाव को तलाशता. मगर भुभिक्षा नहीं मिटती.
मृणाल पांडे जी के संपादक होने से पहले तक की कादम्बिनी के ज्यादातर अंक हमारे घर टिन के बक्से में सहेजकर रखे थे. वर्ष में एकाध बार पिताजी स्वयं कीड़े व जंग से बचाने के लिए उसकी झाड़ फूँक किया करते. कई बार उनको कादम्बिनी के पुराने अंकों को दोबारा -तिबारा रस लेकर पढ़ते देखा करता.
कादम्बिनी के कारण घर में टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह की पत्र पत्रिकाओं को कम प्राथनिकता मिलती. आने को धर्मयुग, दिनमान और चंपक अख़बार वाला डाल जाता. हम बच्चों की जिद पर लोटपोट घर आने लगा था. छोटू-पतलू को हम चाचा चौधरी और साबू के संवाद से अधिक ऊपर रखते. घर में कादम्बिनी के कारण प्राथमिकता ‘नंदन’ और ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ को मिलताी रही.
बिहार से हिंदुस्तान का प्रकाशन शुरु हुआ तो दैनिक हिंदुस्तान ने चुपके से आर्यावर्त्त व प्रदीप की जगह ले ली. अंग्रेजी अख़बार लेने की बारी आई तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया की जगह हिंदुस्तान टाइम्स को महत्व मिला.
धर्मयुग का सिर्फ एक आकर्षण था. “कार्टून कोना -डब्बू जी “पहले पढ़ने की हम भाइयों में होड़ लगती.उसे पढ़ मुस्कुराने के बाद बड़ों के लिए छोड़ देते. हम ‘धर्मयुग’ को ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ की तुलना में ज्यादा ग्लॉसी पेपर वाली पत्रिका के तौर पर याद रखते थे. हां, ‘चंपक’ में चीकू खरगोश की कहानियाँ थोड़ी बहुत याद है. ‘नंदन’ खूब याद है उसकी कहानियों को सफाचट करने के साथ संपादक जयप्रकाश नंदन जी के कॉलम को बड़े चाव से चट किया करते.
पिताजी के जाने के पांचवें वर्ष में कादम्बिनी के अवसान की खबर है. नश्वर जगत में होते तो निस्संदेह निराश होते. रीडर डाइजेस्ट की तुलना में वह हमेशा कादम्बिनी को आला दर्जे का मानते रहे. हिंदुस्तान टाइम्स समूह के प्रकाशनों को भारतीयता के पुट को तलाशते.बाल सुलभ मन को दिल्ली प्रेस के प्रकाशन को दूर से ही प्रणाम करने की सिख थी.
बिरला जी के समूह ने जब ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ बंद करने का निर्णय लिया, तो आहत हुए थे. मृणाल पांडे को अच्छा नहीं मानते थे.उनके रहते ही कादम्बिनी का आकार बदला था. उनकी निराशा आज कादम्बिनी के साथ में नंदन बंद किए जाने की खबर से ज्यादा सघन होती. वैसे उनको पता था कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया की तरह ही हिंदुस्तान टाइम्स समूह हिंदी से जुड़ी पत्रिकाओं से पिंड छुड़ा लेगा.