वीरेंद्र यादव-
इस बार लखनऊ के कथाक्रम आयोजन का विषय था ‘प्रतिरोध के स्वर और हिंदी कथा साहित्य.’ हमेशा की तरह इस बार का विषय भी ज्वलंत और सामयिक था। कंवल भारती Kanwal Bharti जब इस विषय पर बोल रहे थे एक श्रोता ने खड़े होकर अपनी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि ‘विषय पर बोलिये’. एक सज्जन और साथ देने के लिए उठ खड़े हुए । लेकिन सभागार के व्यापक प्रबुद्ध समुदाय को यह व्यवधान अवांछित और अनुचित लगा। इस व्यवधान के बावजूद उन्होंने अपना लिखित वक्तव्य पूरा किया. कँवल भारती के बोलने में कुछ भी विषयांतर नही था. वे हिंदुत्व्, सनातन, बहुसंख्यकवाद , राष्ट्रीयता सरीखे उन्हीं मुद्दों पर बोल रहे थे , जिन्हें कथाक्रम के आधार पत्रक में संदर्भित किया गया था।
दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और हाशिये का समाज इस दौर में जिस प्रताड़ना और यातना से गुजर रहा है, कँवल भारती उसी की निशानदेही कर रहे थे। यानि जहाँ दमन के हालात थे, प्रतिरोध की जरुरत को वे वहीं से दर्ज कर रहे थे, जो उचित ही था। उनके लिखित वक्तव्य में आंबेडकर, फुले, स्वामी अछूतानंद, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार ललई सिंह सहित अन्य आंबेडकरवादी चिन्तकों का उल्लेख स्वभाविक ही था। लेकिन हिंदी समाज का एक वर्ग जिनमें प्रबुद्धों की पर्याप्त संख्या है, यह सब विषय बाहर समझता है क्योंकि हिन्दी की कथित मुख्यधारा में यह सब चर्चा से बहिष्कृत रहे हैं। दरअसल हिंदी सार्वजनिक वृत्त के अवचेतन में ‘ हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ कुछ इस तरह शामिल है कि वह इसके विखंडन को विषय बाहर मानता है। वह प्रतिरोध दर्ज करेगा लेकिन बिना सत्ता संरचना को समस्याग्रस्त किये हुए।
कहने की आवश्यकता नहीं कि सत्ता संरचना के विखंडन में भारतीय समाज की जातिगत वर्णाश्रमी संरचना के उजागर होने का जोखिम शामिल है इसलिए यह उसका इलाका नहीं है। उल्लेखनीय है कि डा. रामविलास शर्मा सहित हिन्दी बौद्धिकों के एक संवर्ग के लिए विभेदकारी जाति संरचना ‘औपनिवेशिक ज्ञानकांड’ की देन है, वह समाज की जीवंत वास्तविकता नहीं रही है। इस समझ के साथ हिंदी बौद्धिक समाज सत्ता संरचना में अनुस्यूत जातिश्रेष्ठता के साथ अपना प्रभावी आलोचनात्मक रिश्ता बनाने में कारगर नहीं होता। जाति शोषण उसके लिए अदृश्य है, इसलिए न वह आरक्षण के साथ सहज महसूस करता है न जाति जनगणना के साथ।
शिक्षा संस्थाओं में ‘नॉट फाउंड सुटेबल ‘ इसी मानस का परिणाम है। इन्हीं कारणों से दलित विमर्श भी उसके लिए गैर साहित्यिक और ‘विषय बाहर’ लगता है। विचारणीय यह है कि जो सत्ता हिंदूश्रेष्ठता की पूंजी पर टिकी है, जिसके लिए मुस्लिम व ईसाई पराया और दलित व आदिवासी महज एक वोट बैंक हो, उसके लिए इन चर्चाओं से उसका चौका छूत ही होता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, तुलसीदास, रामचरित मानस उसके लिए आज पवित्र गाय तुल्य है, इसलिए वह उनकी आलोचना बर्दास्त नहीं कर पाता।
वह रामचरित मानस पर लिखित बाबा नागार्जुन के लेख की अनदेखी करता है . लेकिन आधुनिक हिंदी साहित्य के शुरुआती दौर में प्रेमचंद इन मुद्दों से रुबरु ही नहीं हुए थे बल्कि यह उद्घोष भी किया था कि ‘राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण व्यवस्था को जड़ मूल से उखाड़ फेंकना है’ . उनके लिए वर्णगत जाति श्रेष्ठता औपन्यासिक ज्ञान कांड न होकर भारतीय समाज का जीवंत यथार्थ था, इसीलिए वे ठाकुर का कुँवा, सद्गति, मन्दिर ,बाबा जी का भोग सरीखी कहानियाँ और गोदान सरीखा उपन्यास लिख सके थे।
यह करते हुए उन्होंने वर्ण और वर्ग से मुक्त साहित्य की जो परंपरा निर्मित की थी, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, नागार्जुन, रेणु आदि उस परंपरा के सशक्त स्तंभ थे। लेकिन आजादी के बाद यह परम्परा क्षीण हुईं, सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता को लेकर तो एक सर्वसहमति थी, लेकिन वर्ण और जाति का इलाका उसके लिए जोखिमभरा और वर्ज्य था। मन्दिर और मंडल की परिघटना और दलित विमर्श की आमद के साथ तो हिंदी बौद्धिकों का बड़ा वर्ग अपनी जाति और वर्ण में वापस लौट गया या उसने इन मुद्दों के प्रति चुप्पी साध ली।
‘आखिरी कलाम’ सरीखा उपन्यास भी उसे नहीं सुहाया क्योंकि उसमें ब्राह्मणवाद, तुलसीदास, रामचरित मानस को लेकर बेबाक विवेचना और तीखी आलोचना थी। लेकिन इसके विपरीत गैरहिन्दी क्षेत्र के बौद्धिकों ने भारतीय समाज की सवर्ण सत्ता संरचना के साथ जो आलोचनात्मक रिश्ता बनाया उसी का परिणाम था नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पांसरे, एम एम कलबुर्गी, और गौरी लंकेश की हत्या और पेरुमल मुरुगन, काँचा इल्लैया सरीखों की घेराबंदी और उनके लेखन को प्रतिबंधित किये जाने की मांग। हिंदी क्षेत्र का बौद्धिक यह समझ पाने में भी असमर्थ है कि दक्षिण भारत के बुद्धिजीवी क्यों सनातन उन्मूलन की चर्चा कर रहे हैं और क्या है उनका सनातन का परिप्रेक्ष्य!
दरअसल हिन्दी क्षेत्र का बौद्धिक अपने अवचेतन हिंदू मानस की उपस्थिति से इंकार करता है, इसीलिए वह उन मुद्दों को विषय बाहर मानता है, जो उसकी बनी बनाई सोच को प्रश्नांकित करते हैं। वह साहित्य को राजनीति से अलगाते हुए आज के ज्वलंत प्रश्नों से किनाराकशी करना चाहता है। वह प्रतिरोध के लिए ‘नरो वा कुंजरो’ की भूमिका अपनाना चाहता है .यही कारण है कि वह प्रेमचंद द्वारा निर्दिष्ट राजनीति के आगे मशाल दिखाती सच्चाई की भूमिका निभाने में असमर्थ है।
‘कथाक्रम’ के आयोजन ने इन मुद्दों पर विचारोत्तेजक बहस का जो अवसर प्रदान किया, वह इस आयोजन की सफलता और सार्थकता दर्ज करने के लिए पर्याप्त है।