नरेंद्र मोहन को यूं याद किया वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला ने…

Shambhunath Shukla मोहन बाबू को भुलाया नहीं जा सकता! दैनिक जागरण के प्रसार की सीमाओं को कानपुर शहर से लेकर पूरे उत्तर, पूर्व और मध्य भारत में फैलाने वाले स्वर्गीय श्री नरेंद्र मोहन की कल 20 सितंबर को 16 वीं पुण्यतिथि है. उन्हें सब लोग प्यार से मोहन बाबू कहते थे. एक कामयाब मालिक और …

जब भैरोंसिंह शेखावत ने पत्रकार जयशंकर गुप्ता से पूछा था- ‘मैं स्वयं भी तो संघ का ही स्वयंसेवक हूं, आप लोग हममें भेद कैसे कर सकते हैं’

Jaishankar Gupta : बात पुरानी है, तब की जब हम इंडिया टुडे के साथ थे और पूर्व उप राष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत राजस्थान के मुख्यमंत्री। हमारा राजस्थान में आना जाना और ठाकर साहब (भैरोंसिंह शेखावत) से मिलना जुलना लगा रहता था। उस समय भाजपा में एक लाबी खासतौर से संघ से जुडे कुछ नेताओं की मंडली लगातार उनके विरुद्ध सक्रिय रहती थी। एक दिन भोजन पर हम ठाकर साहब के साथ थे। बात बात में उन्होंने पूछ लिया ”आप लोग अक्सर लिखते रहते हैं मेरे विरुद्ध संघ की लॉबी सक्रिय है। मैं स्वयं भी तो संघ का ही स्वयंसेवक हूं। आप लोग हममें भेद कैसे कर सकते हैं।”

जन्मदिन 8 अगस्त पर : राजेन्द्र माथुर की गैरहाजिरी के 25 साल

किसी व्यक्ति के नहीं रहने पर आमतौर पर महसूस किया जाता है कि वो होते तो यह होता, वो होते तो यह नहीं होता और यही खालीपन राजेन्द्र माथुर के जाने के बाद लग रहा है। यूं तो 8 अगस्त को राजेन्द्र माथुर का जन्मदिवस है किन्तु उनके नहीं रहने के पच्चीस बरस की रिक्तता आज भी हिन्दी पत्रकारिता में शिद्दत से महसूस की जाती है। राजेन्द्र माथुर ने हिन्दी पत्रकारिता को जिस ऊंचाई पर पहुंचाया, वह हौसला फिर देखने में नहीं आता है। ऐसा भी नहीं है कि उनके बाद हिन्दी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में किसी ने कमी रखी लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में एक सम्पादक की जो भूमिका उन्होंने गढ़ी, उसका सानी दूसरा कोई नहीं मिलता है। राजेन्द्र माथुर के हिस्से में यह कामयाबी इसलिए भी आती है कि वे अंग्रेजी के विद्वान थे और जिस काल-परिस्थिति में थे, आसानी से अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे लेकिन हिन्दी के प्रति उनकी समर्पण भावना ने हिन्दी पत्रकारिता को इस सदी का श्रेष्ठ सम्पादक दिया। इस दुनिया से फना हो जाने के 25 बरस बाद भी राजेन्द्र माथुर दीपक की तरह हिन्दी पत्रकारिता की हर पीढ़ी को रोशनी देने का काम कर रहे हैं।

आलोक भट्टाचार्य और उमेश द्विवेदी श्रद्धांजलि सभा : पत्रकार-साहित्यकार मर कर भी अपनी लेखनी की वजह से जिंद रहते हैं

मुंबई : सांताक्रुज पूर्व के नजमा हेपतुल्ला सभागार में मुंबई हिंदी पत्रकार संघ द्वारा दिवंगत पत्रकार साहित्यकार अलोक भट्टाचार्य और पत्रकार उमेश द्विवेदी की याद में श्रद्धांजलि सभा का कार्यक्रम रखा गया। श्रद्धांजलि सभा में शहर के जाने माने पत्रकारों और साहित्यकारों ने अपने दिनों दिवंगत साथियों को भावपूर्ण आदरांजलि अर्पित की। वक्ताओं ने कहा कि पत्रकार-साहित्यकार मर कर भी अपनी लेखनी की वजह से जिन्दा रहते हैं।

Tearful homage to Com. K.L.Monga

The death of Com. K.L. Monga, many times General Secretary of the Bennett Coleman and Company Employees Union, is not only sad and shocking but has shaken me to the core. I really got so benumbed with this tragic news that I went into silence for a few minutes.  The saddest part of it is that youngsters working even for the Times of India do not know who he was.  For the last, nearly two decades he had virtually gone into oblivion.

विनोद मेहता पत्रकारों को पगार देने के नाम पर बेहद कंजूस थे लेकिन ‘एडिटर’ कुत्तों पर खूब खर्च करते थे

(स्व. विनोद मेहता जी)


Sumant Bhattacharya : विनोद मेहता की रुखसती का मतलब… मैं शायद उन चंद किस्मत वाले पत्रकारों में हूं, जिनका साक्षात्कार विनोद मेहता साहब ने लिया और पत्रकारिता के अपने स्कूल में दाखिला लिया। मैं हिंदी आउटलुक में था और हिंदी आउटलुक को नीलाभ मिश्र साहब देख रहे हैं। वो भी मेरे बेहद पसंदीदा और मेरी नजर में पत्रकारिता के बेहद सम्मानित, काबिल नाम हैं।

‘एडिटर’ नाम के कुत्‍ते के कारण विनोद मेहता से कई संपादक चिढ़ते थे

Ashish Maharishi : विनोद मेहता नहीं रहे। उनसे पहली और अंतिम मुलाकात कुछ साल पहले साउथ दिल्‍ली के Nirula’s में हुई थी। दोपहर का वक्‍त था। पेट की भूख शांत करने के लिए रेस्‍टोरेंट में जैसे घुसा तो सामने विनोद जी बड़ी शांति से बैठकर कुछ खा रहे थे। मैं उन्‍हें देखता रहा। उनका लिखा अक्‍सर मुझे अंदर तक झंकझोर देता था। खासतौर से आउटलुक में उनका कॉलम। जिसमें में वे साधारण शब्‍दों में बड़ी बातें कह दिया करते थे।

विनोद मेहता कहीं आलोक मेहता के भाई तो नहीं हैं?

Sushant Jha : विनोद मेहता से सिर्फ एक बार मिला, वो भी संयोग से। सन् 2004 में IIMC में एडमिशन लेना था, प्रवेश परीक्षा का फार्म खरीद लिया था। एक सज्जन थे जो 1000 रुपये प्रति घंटा विद चाय एंड समोदा कोचिंग करवाते थे। किसी भी कीमत पर IIMC में घुस जाने की जिद ने मुझे नोएडा सेक्टर 30(शायद) के एक सोसाइटी में पहुंचा दिया। सुबह के सात-साढे सात बजे होंगे। हमारी कोचिंग चल ही रही थी, कि कॉलबेल बजा।

सुधेंदु पटेल का सुझाव- कमल मोरारका को नोटिस भेज दो, भुगतान हो जाएगा

: ( मीडिया की मंडी में हम-4 ) : यह 1989-90 की राजनीतिक उठापटक का दौर था. दिल्ली में वीपी सिंह प्रधानमंत्री बन गए थे. चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय चुनाव जीतकर सांसद बन गए थे. उन्होंने संपादक पद छोड़ दिया था. चंचल, रामकृपाल और नकवी भी चौथी दुनिया से विदा ले चुके थे. तेजी से बदलते इस घटनाक्रम में सुधेन्दु पटेल चौथी दुनिया के संपादक बन गए. वे जयपुर से दिल्ली साप्ताहिक अपडाउन करते. उनके स्नेह और आग्रह पर चौथी दुनिया से जुड़ गया. बतौर फ्रीलांसर सुधेन्दु ने मुझे खूब छापा और सम्मानजनक तरीके से छापा. बनारसी मिजाज के सुधेन्दु पटेल ने उसी मिजाज का होली अंक प्लान किया. मैंने और कृष्ण कल्कि ने पर्याप्त योगदान दिया. काफी हंगामेदार था चौथी दुनिया का वो होली अंक.

फ्रीलांसिंग का वो जमाना : दिन कॉफी हाउस में कटता, शाम रवीन्द्र मंच पर

: : ( मीडिया की मंडी में हम-3 ) : : पिता ने जब कहा कि मुझे पत्र भी नहीं लिखते हो तो अचानक बोल पड़ा- अब फ्रीलांसिंग करता हूं, इसलिए फ्री में कुछ नहीं लिखता, पत्र भी नहीं :

उन दिनों पत्रिका को टक्कर देने के लिए नवभारत टाइम्स का जयपुर एडीशन शुरू हो चुका था। प्रसार में चुनौती तो नहीं दे पाया पर गुणवत्ता की चुनौती जरूर दे रहा था। दीनानाथ मिश्र उसके पहले संपादक थे। उन्होंने प्रतिभाशाली युवा पत्रकारों की अच्छी टीम चुनी थी। थोड़े दिन बाद जनसत्ता से श्याम आचार्य को बुलाकर संपादक बना दिया था। नवभारत के ताजा कलेवर और तेवर का जबाव देने के लिए पत्रिका ने फीचर पेज शुरू करने की तैयारी की और यह जिम्मेदारी फीचर संपादक दुर्गाशंकर त्रिवेदी को सौंप दी। इस पर त्रिवेदीजी ने अतिरिक्त स्टाफ की मांग की तो कैलाश मिश्रा ने कह दिया कि किसी को भी ले लो। त्रिवेदीजी ने मेरी ओर इशारा किया तो कैलाशजी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं रविवारीय में जाना पसंद करूंगा।

प्रताप सोमवंशी ने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा- जिन्हें विचार की राजनीति करनी है वे मीडिया छोड़ दें (किस्से अखबारों के : पार्ट-चार)

(सुशील उपाध्याय)


 

मीडिया में विचार की कद्र रही है, ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है। इस धंधे में विचार कोई बुरी चीज नहीं रही। एक दौर रहा है जब पूंजीवादी मालिक अपनी दुनिया में रहते थे और अखबारों में वामपंथी रुझान के पत्रकार, संपादक अपना काम करते रहते थे। नई आर्थिक नीतियों के अमल में आने के बाद संभवतः पहली बार मालिकों का ध्यान विचार की तरफ गया। ये दक्षिणपंथ के उभार का दौर था। मालिकों और दक्षिणपंथ के बीच के गठजोड़ ने प्रारंभिक स्तर पर विचार के खिलाफ माहौल बनाना शुरु किया। इसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को दूर किया जाने लगा जो किसी विचार, खासतौर से प्रगतिशील विचार के साथ जुड़े थे। उन्हें सिस्टम के लिए खतरे के तौर पर चिह्नित किया जाने लगा। ढके-छिपे तौर पर पत्रकारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल होने लगी। जो कभी जवानी के दिनों में किसी वामपंथी या प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़े रहे थे, उनकी पहचान होने लगी।

मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)

(सुशील उपाध्याय)


भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।

भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह का एक पुराना इंटरव्यू

मीडियासाथी डॉट कॉम नामक एक पोर्टल के कर्ताधर्ता महेन्द्र प्रताप सिंह ने 10 मार्च 2011 को भड़ास के संपादक यशवंत सिंह का एक इंटरव्यू अपने पोर्टल पर प्रकाशित किया था. अब यह पोर्टल पाकिस्तानी हैकरों द्वारा हैक किया जा चुका है. पोर्टल पर प्रकाशित इंटरव्यू को हू-ब-हू नीचे दिया जा रहा है ताकि यह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और यशवंत के भले-बुरे विचारों से सभी अवगत-परिचित हो सकें.

यशवंत सिंह

 

LAST CHAT WITH AJAY JHA SIR

Dear Yashwant ji,  Still my hands are trembling , am shaken and eyes full of tears. Do not know how am I even writing all this. It feels as he was just there with me. A while ago. On whatsapp, on facebook, on gmail chat, on phone – blessing me from India. Our chat only used to  start with me saying CHARANSPARSH DADA with a reply coming from him many times as KALYANAM ASTU.

Ajay Nath Jha, a man of his words, a walking talking encyclopedia….

Below treasure belongs to Late Shri Ajay Nath Jha, a man of his words, a walking talking encyclopedia , a person who spoke 6-7 languages fluently , a man who cannot be described in a few words or in five minutes but it will take a few weeks or months for us to collect everything about him to describe what he was as a person , truly one in a million golden heart for whom the passion was to take pain of others over himself. Before I again have teary eyes , I want you to go through his personal views in form of SHAIYARI

अजय सर हमेशा जनलिस्ट ही रहे, लाइजनर नहीं बने, तभी तो लोगों के दिलों पर राज करते थे

Nimish Kumar : आप जैसे गए Ajay N Jha sir, वैसे भी जाता है क्या कोई? रात सोते जाते वक्त जब मोबाइल पर नजर पड़ी तो फेसबुक देखकर बंद करना चाहा। सबसे ऊपर बैंगलोर से टीवी9 ग्रुप के अंग्रेजी चैनल न्यूज9 के एडिटर संदीप धर का स्टेटस था। अजय झा सर नहीं रहें। भरोसा नहीं हुआ, ये जानते हुए भी संदीप धर यदि एक वाक्य भी लिखते है, तो पूरी ईमानदारी से, जांच परख कर। ट्विट्रर पर न्यूज नेशन के बैंगलोर संवाददाता का ट्विट्ट था। फिर ट्विटटर पर मैसेज भेजा। वॉट्सअप पर मैसेज किए।