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सुख-दुख

क्या लॉकडाउन के बाद मीडिया ‘को रोना’ होगा?

पिछले दिनों एक बड़े और नामचीन मीडिया समूह के दिल्ली-एनसीआर चैनल बंद होने की खबरों के बीच जो कारण समझ में आए और महसूस किए गए उसका वास्ता सीधा-सीधा रेवेन्यू से है। अब सवाल ये है कि दर्जनों वेंचर वाले फिल्मसिटी के उस बड़े समूह के लिए एक ऐसा चैनल बोझ क्यों लगने लगा, जो करोड़ों रुपए सालाना के रेवेन्यू वाले इस मीडिया समूह के लिए कम से कम बो़झ तो नजर नहीं आ रहा था। हालांकि इस खबर की चर्चा के बाद आनन-फानन में इसका खंडन भी जारी हुआ है और बाकायदा ये कहा गया कि उस चैनल के स्टाफ को बाकी चैलनों में काम पर लगाया गया है।

होने और दिखने के बीच कई कई पहलू होते हैं जो सबको नजर नहीं आते या तो उनको जो सच जानता है या उनको जो सच पर बारीक निगाह रखते हैं, लेकिन जो कोराना संकट के बाद मीडिया के लिए जो आने वाला समय है वो असहज और चुनौतीपूर्ण ही कहा जा सकता है। कोरोना संकट और इसके दौरान देश पर संकट के बादल छाए रहेंगे और इन बादलों की जो बारिश होगी उससे मीडिया भी अछूता नहीं रह पाएगा। बड़े से लेकर छोटे चैनलों तक मीडिया के साथी पहले ही सामूहिक तौर पर छंटनी के शिकार होते रहे हैं। ऐसे में नया सूरते हाल उनके लिए काफी डराने वाला साबित हो सकता है। मार्च में एक बड़ी बिस्कुट कंपनी ने अपना चैनल समेट कर सैकड़ों लोगों को बेरोजगार किया है इसी कड़ी में कुछ और चैनलों के नाम आ सकते हैं।

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पिछले दिनों कांग्रेस के अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की तरफ से सरकार से मीडिया को सरकारी विज्ञापन बंद किए जाने की मांग की गई, हो सकता है मौजूं हो लेकिन यह मांग पूरी होने के बाद जो मीडिया की हालत होगी वह काफी डरा देने वाली होंगी। मीडिया में छंटनियों के सिलसिले चलने लगेंगे और बेरोजगारों की एक ऐसी लंबी फौज खड़ी हो जाएगी, जिसके लिए वैकल्पिक रोजगार का बंदोबस्त करना मुश्किल ही नहीं नामुमिन होगा। हां कुछ समर्थ और संघर्षशील पत्रकार अपनी खबरों की अपनी खुड़क मिटाने के लिए अपना यू ट्यूब चैनल जरूर शुरू कर लेंगे, जो पहले से ही हजारों की तादाद में हैं। पेचीदा रेवेन्यू मॉडल की कमी और बहुतायत होने की वजह से मुश्किल से कुछ चैनल ही कमाई कर पानी की हालत में होते हैं। फिर जो नए यू ट्यूब चैनल आएंगे उससे किसका घर चलेगा और किसका जीवन चल पाएगा? ये सुलगता हुआ सवाल सबके सामने होगा।

वैसे भी नोटबंदी के बाद चैनलों की अर्थव्यस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा था। कई चैनल तो उसकी वजह से डूब गए तो कई आर्थिक चुनौतियों से अब तक नहीं उबर पाए हैं। सरकारी इश्तहारों का पैमाना भी ऐसा नहीं रहा जिससे चैनलों को इतना रेवेन्यू मिल पाए उसका खर्च निकाला जा सके। मंझोले और छोटे चैनलों की हालत और भी बदतर है न तो उन्हें सरकार विज्ञापन के लायक समझती हैं और न ही निजी कंपनियां। नोटबंदी के बाद आय में कमी की वजह से निजी कंपनियों ने भी अपने यहां विज्ञापनों के लिए कड़ा पैमाना बना लिया है।

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टीवी चैनलों और अखबारों की कारोबारी दुनिया में जगह पाना, उसे बनाए रखना और उसके जरिए अपने घर-परिवार की जरूरतों को पूरा करना कितना कष्टप्रद है यह उन लोगों से पूछिए जो मीडिया में अपने कई साल गुजारने के बाद या तो खाली अपने घर बैठे हैं या फिर कुछ ऐसा काम कर रहे हैं जिनमें नतीजे निकालना और घर चलाना उनके लिए पुराने पेशे से भी कठिन हैं। हां इस बीच कुछ ऐसे लोग भी है जो कामकाज की ऩई जगह पर खुद को ज्यादा सहज महसूस कर रहे हैं और उनका घर परिवार भी ठीक से चल रहा है।

तेज चलने की आदत में गलतियों की भरमार, विज्ञापनों के दबाव में खबरों को मनमाने तरीके से पेश करने की मजबूरी और विश्वसनीयता को लेकर लगातार उठते सवालों के बीच मीडिया का सकारत्मक पहलू ये रहा कि इसमें काम करने वाले अलग-अलग विधा और हुनर के लोगों के घर परिवार चल रहे हैं। मीडिया अपने आप में लाखों लोगों को समाहित किए हुए हैं लेकिन इन हजारों लोगों की नौकरियों का कोरोना संकट के बाद क्या होगा, इस सवाल की आहट अभी से सुनाई पड़ने लगी है।

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