सुभाष राय-
इतिहास बदला नहीं जा सकता। वह बीत चुका है। बीते हुए को जाना जा सकता है, उससे सीखा जा सकता है लेकिन उसमें कोई परिवर्तन संभव नहीं। वर्तमान के चेहरे पर उसके निशान मिटाकर भी नहीं। समय आगे बढ़ता है, पीछे नहीं लौटता। आज हम आजाद हैं। आजादी ने हमें तमाम विकल्प दिए हैं। हम खुश हो सकते हैं कि हम आजाद हैं। हम दुखी भी हो सकते हैं कि हम गुलाम थे। यह चुनना हमारे वश में हैं कि हम अपनी आजादी का उत्सव मनाएं, उसे समृद्ध और सुरक्षित रखने की कोशिश करें, भविष्य की उड़ान के बारे में सोचें या बीत गयी गुलामी पर रोयें। हम उन कारणों का परीक्षण कर सकते हैं, जिनके चलते हम गुलाम हुए लेकिन हम चाहकर भी इस सच को न झुठला सकते हैं, न ही बदल सकते हैं कि हम सैकड़ों वर्ष गुलाम रहे।
एक देश को इतिहास से उन कमजोरियों, उन गलतियों के बारे में जानने का अवसर मिलता है, जिसके कारण वह मुट्ठी भर बाहरी आक्रांताओं, लुटेरों और हत्यारों के पैरों तले रौंदा गया। इतिहास से सबक लेकर देश अपने को इतना मजबूत बना सकता है कि दुबारा कोई आँख तरेरने का भी साहस न करे। उसी इतिहास से कोई प्रतिशोध का सबक भी ले सकता है, लुटेरों और हत्यारों की भूमिका अख्तियार करने की बात भी सोच सकता है। अगर भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में कोई ऐसा रास्ता चुनता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे पुरखों ने एक उदार संविधान स्वीकार किया है, जो सबको अवसर भी देता है और सब पर अंकुश भी रखता है, सबको अधिकार भी देता है और दायित्व की याद भी दिलाता है। वह वाद, विवाद और संवाद की स्वस्थ प्रक्रिया के पक्ष में खड़ा रहता है। वह असहमति की संजीदगी और मर्यादा का आदर करता है और उसके अतिक्रमण पर सजा भी देता है। निरंकुश, अतिचारी और अराजक राजतंत्रों के इतिहास से ही सबक लेकर भारत ने अपने लिए संवैधानिक और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र का रास्ता चुना।
हमें बोलने की आजादी है। हम कुछ भी ऐसा कह सकते हैं, जिसके तार्किक आधार हों, जिसके साक्ष्य हों। तीखी से तीखी बात भी, धर्मों की जड़ता के विरुद्ध भी। समूह की अंधभक्ति और ताकतवर सत्ता तंत्र की उदासीनता या अति सक्रियता के खिलाफ भी। तर्कसम्मत आलोचना ठुकराई नहीं जा सकती, जूतों से रौंदी नहीं जा सकती। असहमत होने की भी आजादी है। कोई भी असहमत हो सकता है लेकिन असहमति चाहे जितनी कठोर हो, उसे भाषा में ही रहना चाहिए, सड़क पर नहीं आना चाहिए। असहमति को शक्ति की, भुजबल की भाषा में व्यक्त नहीं होना चाहिए। आजकल ज्ञानवापी को लेकर बहुत सारी गतिविधियां चल रहीं हैं। अदालती कार्यवाहियों के साथ-साथ इतिहास भी चर्चा में है। इतिहास में यह उल्लेख है कि औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर का एक हिस्सा तोड़ने का आदेश किया था। कारण को लेकर मतभेद हैं।
पट्टाभि सीतारमैया ने अपनी किताब फेदर्स एंड स्टोन्स में कच्छ की रानी के अपहरण और उनके साथ अभद्रता की कहानी का उल्लेख किया है। उनकी कहानी पर कई इतिहासकार सहमत नहीं। एक अन्य इतिहासकार के एन पणिक्कर मंदिर परिसर में विद्रोहियों के छिपने की बात लिखते हैं लेकिन इसका भी कोई आधार नहीं है। एक मशहूर कथाकार और सिद्ध संपादक के उपन्यास में सीतारमैया द्वारा वर्णित रानी की कहानी को और विस्तार से कहा गया हैं। अगर प्रोफ़ेसर रविकांत ने किसी खास सन्दर्भ में पट्टाभि सीतारमैया को कोट करते हुए उनके दावे का उल्लेख कर दिया तो ऐसी कौन सी बड़ी गलती कर दी, जिसके लिए आप उनको गालियां देंगे, मारने की धमकियां देंगे, उन्हें थप्पड़ रसीद कर देंगे। यह अधिकार आप को किसने दिया? वह भी विश्वविद्यालय में? ज्ञान और संवाद के केंद्र में। जहाँ आप को भाषा की कला सिखाई जाती है, जहाँ आप को तर्क करना बताया जाता है, जहाँ आप की पहुँच में सारी दुनिया का ज्ञान-विज्ञान है, साहित्य-दर्शन है, इतिहास है, पुरातत्व है।
उम्मीद की जाती है कि विश्वविद्यालय से आप योग्य बनकर, सहिष्णु बनकर, उदार बनकर लौटेंगे, मनुष्य बनकर लौटेंगे। अगर वहां जाकर भी आप हिंसा और प्रतिशोध के सबक ले रहे हैं तो आप की प्रेरणा के मूल में ज्ञान नहीं, राजनीति है। आप किसी के खरीदे हुए हथियार हैं या आप को कोई लालच दिया गया है। हमलावर तो हमलावर है, इससे कोई मतलब नहीं कि वह किस पार्टी का है, समाजवादी है या भाजपाई या कोई और। जो सत्ता में हैं, उन्हें जनता से कुछ लेना-देना नहीं, वे हमेशा इसी चिंतन में रहते हैं कि सत्ता में कैसे बने रहना है। बांटो, लड़ाओ, कमजोर करो और राज करो। इससे भी बात नहीं बनती है तो यातना और दमन के और भी रास्ते हैं। कोई आरोप लगाओ, हड्डियां तोड़ दो, घर गिरा दो, जेल में डाल दो। ज्यादा गंभीर मामला हो तो भीड़ के हवाले कर दो, वह मिनटों में निबटा देगी।
यह कितना दुखद है कि एक भारतीय विद्वान सीतारमैया की पुस्तक के एक अंश को सिर्फ कोट करने के कारण एक दलित प्रोफ़ेसर को जान का खतरा पैदा हो गया है। प्रो रविकांत ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में अपना यह डर जाहिर किया है। लिंच कर दिए जाने का डर। उनका यह डर वास्तविक इसलिए लगता है कि समूचा घटनाक्रम इसकी खुली गवाही देता है। 7 मई की रात सत्य हिंदी यूट्यूब चैनल पर ज्ञानवापी प्रसंग पर एक चर्चा के दौरान उन्होंने यह कहानी पट्टाभि सीतारमैया के हवाले से सुनायी। एक बात समझनी होगी कि उन्होंने अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं की लेकिन बहुत चालाकी से उनके वीडियो को इस तरह सम्पादित करके वाइरल कर दिया गया, जिससे लगे कि यह उनकी अपनी टिप्पणी है। उसमें से सीतारमैया का नाम निकाल दिया गया। 10 मई को उन्हें घेरा गया, गालियां दी गयीं, उनसे मारपीट की कोशिश की गयी।
आरोप लगाया गया कि उन्होंने साधु-संतों को बलात्कारी बताया है। रविकांत का कहना है कि स्थिति स्पष्ट करने के लिए उन्होंने अपने वक्तव्य का पूरा वीडियो ट्विटर पर डाल दिया। एक दिन बाद लखनऊ विवि टीचर्स एसोसिएशन के वाट्सएप ग्रुप पर किसी शिक्षक ने वही सम्पादित वीडियो पोस्ट किया और लिखा कि इसे जूतों से पीटा जाना चाहिए। इस पर उग्र लोगों की एक भीड़ ने उन्हें घेर लिया और परिसर में धारा 144 लगे होने के बावजूद उनके ऊपर हमले की कोशिश की। माफी मांगने की शर्त रखी गयी लेकिन रविकांत द्वारा इंकार कर दिए जाने पर गुस्सा और बढ़ गया। रविकांत ने माफी तो नहीं मांगी लेकिन खेद प्रकट किया। इसके बावजूद हसनगंज थाने में उनके खिलाफ एफ आई आर दर्ज कर ली गयी और जब उन्होंने अपनी बात कहनी चाही तो शिकायत तो ले ली गयी लेकिन उसे एफ आई आर में नहीं बदला गया। प्रॉक्टर ऑफिस को भी सूचना दे दी गयी थी, इसलिए पुलिस की ओर से रविकांत को दो गार्ड मुहैया करा दिए गए।
आश्चर्य की बात यह है कि इन गार्डों की मौजूदगी के बावजूद एक उग्र युवक ने उन्हें थप्पड़ जड़ दिया। न्यूज़क्लिक के लिए एजाज अशरफ से बातचीत में प्रो रविकांत ने विस्तार से अपनी बात कही है और अपनी जान का खतरा जताया है। धीरे-धीरे उनके पक्ष में शिक्षकों, दलित कर्मचारियों और शहर के तमाम लोकतान्त्रिक संगठनों की लामबंदी बनने लगी है लेकिन यह एकजुटता उस प्रवृत्ति के विरुद्ध कोई आश्वस्ति का भाव पैदा नहीं कर सकती, जो अपने विरोधियों को निपटाने के लिए अनेक छल-प्रपंच उपयोग में लाती है।
प्रो रविकांत पर हमले को किसी आइसोलेशन में नहीं देखा जाना चाहिए। यह सत्तारूढ़ दल और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में फैले उनके सहायक संगठनों के एक व्यापक डिजाइन का हिस्सा है। देश के अनेक हिस्सों में एक साथ पुराने धार्मिक ढांचों पर दावे का अभियान अनायास नहीं है। वाराणसी में ज्ञानवापी, मथुरा में ईदगाह, आगरा में ताजमहल, दिल्ली में कुतुबमीनार और मध्यप्रदेश में भोजशाला पर दावे को लेकर अदालतों में और अदालतों के बाहर जो हंगामा बरपा है, उसने सामाजिक शांति के लिए खतरा पैदा कर दिया है। हिन्दू वर्चस्व का भाजपाई रास्ता इसी दिशा से होकर जाता है। उनके नेता संविधान की भी बात करते हैं और हिंदुत्व की अपराजेयता की भी। वे हिन्दू राष्ट्र के सपने देख ही नहीं रहे हैं, उस ओर बढ़ भी रहे हैं।
आजादी के बाद के समय में विपक्ष कभी भी इतना अशक्त, निरुपाय और दुविधाग्रस्त नहीं रहा। वह इतना मजबूर है कि अपने चरित्र और व्यवहार को सत्तारूढ़ दल की तरह बदल देना चाहता है। वह वैसा ही हो जाना चाहता है क्योंकि उसे लगता है कि जनता को यही पसंद है। वामपंथी दलों की शक्ति चाहे जितनी क्षीण हो गयी हो, उन्हें छोड़कर अधिकांश विरोधी पार्टियों के पास आज के समय की कोई वैकल्पिक चिंतन-दिशा नहीं है। वामपंथी दल भी जनता से पूरी तरह कटे हुए हैं। भाजपा का रथ सबको रौंदता हुआ बढ़ रहा है। किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे बंगाल में हार गए या वे दक्षिण की भूमि पर अभी बहुत कमजोर हैं या हैं ही नहीं। केंद्र में प्रचंड बहुमत के बाद पार्टी और उसके बड़े नेता बार-बार संकेत देते आये हैं कि उनको किधर जाना है। इसके लिए जिस सामाजिक विभाजन की जरूरत है, उसे भी एक वास्तविकता बनाने में उन्हें बड़ी सफलता मिल चुकी है। वे इसे और गहरा करने में जुटे हैं। धार्मिक स्थलों के सारे विवाद उसी प्रक्रिया के हिस्से हैं। कानून की चिंता नहीं। कानून वे चाहें जब बदल सकते हैं लेकिन कांग्रेस के ज़माने में बनाये गए प्लेसेस आव वर्शिप ऐक्ट-1991 को बनाये रखकर वे कांग्रेस को और कमजोर करने और भीतर के हिन्दू-मुसलमान संघर्ष की आशंकाओं को और यथार्थ रूप देने में ज्यादा सफल हो पाएंगे।
आगे और कठिन समय है। अभी कुछ लोग बोल रहे हैं। देखना होगा कि वे कब तक बोलते हैं। उन्हें यह भी सोचना पड़ेगा कि उनके बोलने की सार्थकता क्या है। उनके बोलने से किसी के कान पर जूं रेंग रही, कोई परेशान हो रहा, सरकार बेचैन हो रही, समाज कुछ नया सोच रहा ? जिनका बोलना सत्ता संरचनाओं को नुक़सान पहुँचा सकता है, उन पर ध्यान दिया जाएगा। ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि वे बोल न पाएं, बोलें भी तो कोई सुन न सके। बाकी लोगों को बोलने दिया जाएगा। भीड़ को फैसले करने की इजाजत दे दी जाएगी। ज्यादा बोलने वालों को वह निबटाती रहेगी। पुलिस को क्या करना है, उसे अच्छी तरह पता है। उसे कब बोलना है, कब चुप रहना है, कब डंडे चलाना है, प्रशिक्षण दे दिया गया है। बहुत ज्यादा समय नहीं है यह तय करने के लिए कि जो सच के पक्ष में होने का दावा करते हैं, वे किधर जाएँ, क्या करें। अब भी लोकतंत्र, सहिष्णुता, असहमति के विवेक और साम्प्रदायिक सद्भावना में यकीन करने वालों की तादाद बड़ी है लेकिन वे अगर राजनीतिक नेतृत्व के बहकावे से मुक्त होकर अपने लिए कोई अराजनीतिक नेतृत्व तलाश पाएं तो कोई बात बन सकती है।
लेखक सुभाष राय जनसंदेश टाइम्स अख़बार के प्रधान संपादक हैं। संपर्क-9455081894