अभिषेक प्रकाश-
राजनीति कैसे परिवर्तन के दरवाज़े खोलती हुई अंत मे क्रूर सत्ता की कुंडी लगा देती है, उस तरह की कहानी है मैडम चीफ़ मिनिस्टर!
स्त्री-दलित विमर्श को बुनती हुई जाति और पितृसत्ता की छाती पर मूंग दरती फ़िल्म आगे बढ़ती है और तभी बीच मे अम्बेडकर और मास्टरजी खड़े हो जाते हैं। जहां स्त्री के देह और जाति के अपमान की ताप से बदलाव की राजनीति की आहट परदे पर उतरने लगता है, लेकिन धीरे धीरे फ़िल्म अपने अंदर ऐतिहासिक दृष्टि को ठूसते हुए अपने दर्शकों की कान में हौले से फुसफुसा जाता है कि देखो तो यह किरदार कौन है!
और दर्शक फ़िल्म में गेस्ट हाउस कांड और बर्थडे पार्टी की रैलियों में उलझता चला जाता है लेकिन तभी निर्देशक/कहानीकार उसे अपने गाड़ी से सत्ता संघर्ष के बीच छोड़ आते हैं!
फ़िल्म राजनीतिक टेस्ट रखने वालों का भरपूर मनोरंजन करती है।और करनी भी चाहिए क्योंकि विधायको की खरीद-फरोख्त हो या गवर्नर के यहां टेस्ट परेड या फिर रैलियों में ज़िंदाबाद-मुर्दाबाद करने वाले भीड़ की बात हो हम हमेशा से ही इसमे अव्वल रहे हैं!
जो सत्ता छल न करे, जहां कोई कूटरचना ना हो ,कोई खरीदने-बेचने की बात न हो,कोई बाहुबली हमारे समाज का अगवा न हो तो हम खुद ही पिछड़ा होने के बोध से ग्रसित होते जाते हैं!यह हमारे प्रोग्रेसिव होने की निशानी है!
कही न कही हम एक तमाशापसन्द नागरिक हैं, और इसे हम अपने घर-समाज-राजनीति में इसको खोजते रहते हैं! लगातार अच्छा भी हो जाए तो लगता है कि कुछ कमी रह गई है जिंदगी में! इसी कमी को पूरा करती हुई यह फ़िल्म है मैडम चीफ मिनिस्टर!!
लेखक अभिषेक प्रकाश यूपी के बनारस में पदस्थ डिप्टी एसपी हैं।