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सुख-दुख

महामारी, मध्यवर्ग और मौज-मस्ती

महामारी, मध्यवर्ग और मौज-मस्ती… दूसरे महायुद्ध के बाद जो तकनीकी आविष्कार हुए, और जिसके बाद पूरी दुनिया में जिस विशाल मध्यवर्ग का उदय हुआ है, उसका बड़ा हिस्सा इन दिनों कोरोना की चपेट में है। चीन को छोड़कर ( क्योंकि, वहां उस तरह का मध्य वर्ग नहीं है, जैसे भारत या यूरोप या अमेरिका में है) सब जगह शहरी मध्यवर्ग इस महामारी की चपेट में बनिस्बतन ज्यादा है। ग्रामीणांचल में इसकी लपट कम है।

इजराइल के आधुनिक विचारक और इतिहासकार हेरारी का कहना है कि मध्यवर्ग का आकार इतना बड़ा हो गया है कि वह अब अपने ही समाज में मुसीबतें पैदा कर रहा है। उसका भोगवाद अपने चरम पर है। उनका मानना है कि कोरोना के चपेट में आकर मध्यवर्ग के जो लोग काल के गाल में जा रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग अभी बेरोजगारी के शिकार होंगे। वह एक नई मुसीबत बनेगा। गरीब तबका तो फिर भी चूनी-रोटी खा कर बच जाएगा।

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भारतीय मध्यवर्ग को लेकर के. पवन वर्मा ( जो पहले नौकरशाह थे, फिर जेडीयू से राज्यसभा में पहुंचे) की किताब great indian middle class बहुत कुछ कहती है। मौजूदा संकट के दौर में देखिए तो मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज भी जाने-अनजाने अपनी हृदयहीनता ही दिखा रहा है। उसके लिए लाक डाउन जैसे संकट की कोई घड़ी नहीं, पिकनिकबाजी का सुअवसर हो। सोशल मीडिया पर आज भी फैशन और व्यंजन का खेल चल रहा है। यहां घरों में नई डिश ट्राई करने और साड़ी कहां बांधे का मनोरंजक और चटपटा खेल चल रहा है। इसकी गिरफ्त में विश्वविद्यालए के प्रोफेसर, वकील, पत्रकार वगैरह सभी हैं।

उनका तर्क है कि मुरदों के साथ कोई मर नहीं जाया करता। संकट आया है तो चला जाएगा। ऐसे तो हर रोज लोग मरते हैं तो क्या कोई खाना-पीना और फैशन करना छोड़ देगा। बिल्कुल नहीं, हुजूर। लेकिन, सारी दुनिया जान रही है कि यह महासंकट है, यह कोई दैनिक जीवन की मरणलीला नहीं है। कोई नहीं कहता कि आप गाल फुलाकर बैठे रहिए या शोक में अपना सिर धुनिए। यह सब आप तब कीजिएगा, जब आपके घर में कोई मर जाएगा। नहीं तो चाहें तो तब भी डिश ट्राई करते रहिएगा।

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फिलहाल, हम यह इसलिए लिख रहे हैं कि मेरे एक इंजीनियर साथी ने आज कहा कि संकट आता है तो कुछ लोग तो मरते ही हैं। मैंने पूछा कि तुम कब मरोगे, तो फोन काट दिया। मुझे भी ऐसे दोस्तों की जरूरत नहीं है।
लेकिन, सवाल, फिर उसी साइकी, उसी मनोरचना का है। जिनके घरों में साल भर का अनाज ठूंसा है, बैंकों में दस-बीस लाख रुपए पड़े हैं। गाड़ी-घोड़ा रख लिए हैं, वे सोचते हैं कि आनंद विहार में इकट्ठा हुए प्रवासी मजदूर अगर मर-मरा भी जाते हैं तो उनके बाप का क्या जाता है। इस मध्यवर्ग की कुल चिंता फिलहाल इतनी है कि उन्हें बर्तन धोना क्यों पड़ रहा है , बाई कहां मर गई ! और कोरोना कौन फैला रहा है, यह तो मीडिया उन्हें हरवक्त बता ही रहा है। कई लोगों का कहना है कि बिना ”शूट एट साइट” के काम नहीं बनेगा।

लेकिन, हताश होने की बात यों नहीं है कि इसी मध्यवर्ग के तमाम लोग पूरी संवेदनशीलता के साथ डटे हुए भी हैं। अपनी कलम से, अपनी किताब से, अपनी जेब से वे मुसीबत के मारों का साथ दे रहे हैं। सरकार की गलत नीतियों की खुली आलोचना कर रहे हैं।

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इन्हीं के सहारे दुनिया बची रहेगी।

ये दिन भी आखिर गुजर जाएंगे।
हुजूर, आप किधर जाएंगे,
जिंदा रहेंगे कि मर जाएंगे !

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