3 जनवरी 1969 को पहली बार नागपुर में बालासाहेब ठाकरे की मुलाकात तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवरकर और सरकार्यवाहक देवरस से हुई थी। उस वक्त बालासाहेब ठाकरे बंबई से गये तो थे नागपुर विघापीठ में विघार्थी संघ के सम्मेलन में भाषण देने। लेकिन सीपीएम की धमकी की ठाकरे नागपुर से जिन्दा वापस लौट नहीं पायेगें के बाद ही संघ हरकत में आया और नागपुर के महाल के टाउन हाउन में एक हजार स्वयंसेवक ठाकरे की सुरक्षा के लिये दर्शक बनकर बैठ गये। उस वक्त ठाकरे के साथ प्रमोद नवलकर, सुधीर जोशी और मनमोहर जोशी समेत 12 शिवसैनिक ठाकरे के बाडीगार्ड बन कर गये थे। और 45 बरस पहले टाउन हाल में दिये भाषण में ठाकरे ने जिस अंदाज में मराठी मानुष से लेकर हिन्दुराष्ट्रवाद का जिक्र किया उसके बाद से आरएसएस को कभी लगा ही नहीं बालासाहेब ठाकरे संघ के स्वयंसेवक नहीं हैं।
वजह भी यही है कि महाराष्ट्र की सियासत का यह रंग बीते 45 बरस में इतना गाढ़ा हो चला कभी किसी ने सोचा ही नहीं कि दोस्ती के लिये लहराता भगवा परचम कभी दुश्मनी के दौर में भी लहरायेग। दरअसल महाराष्ट्र की राजनीति में दोस्ती-दुश्मनी के बीच लहराता भगवा परचम ही सत्ता के सारे समीकरण तय भी कर रहा है और बिगाड़ भी रहा है। बीजेपी अपने बूते महाराष्ट्र की सत्ता साध लें या फिर चुनाव के बाद शिवसेना और बीजेपी मिलकर सरकार बनाये यह सवाल आज भी संघ परिवार के भीतर लाख टके का सवाल है कि जबाब होगा क्या। क्योंकि महाराष्ट्र में स्वयंसेवक अगर बीजेपी के लिये सक्रिय होता है तो फिर संघ की शाखायें भी शिवसेना के निशाने पर आ सकती हैं, इसलिये स्वंयेसवक महाराष्ट्र में हिन्दू वोटरों को वोट देने के लिये निकालने को लेकर सक्रिय है। सीधे बीजेपी को वोट देने का जिक्र करने से बच रहे हैं। यानी महाराष्ट्र चुनाव मोदी-अमित शाह की जोड़ी के लिये ऐसा एसिड टेस्ट है जिसमें शिवसेना को लेकर संघ के हिन्दुत्व की साख दांव पर आ लगी है। और इस महीन राजनीति को उद्धव ठाकरे भी समझ रहे है और नरेन्द्र मोदी भी। इसीलिये उद्धव ठाकरे हिन्दुत्व का राग अलाप रहे हैं तो मोदी विकास का नारा लगा रहे हैं।
शिवसेना-बीजेपी किसी एक मुद्दे पर तलवार निकालने को तैयार हैं तो वह शिवाजी की विरासत है। और यह संघर्ष महाराष्ट्र की सियासत में कोई नया गुल खिला सकता है इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि नरेन्द्र मोदी का मिजाज़ उन्हे अफजल खान ठहराने वाले को चुनाव के बाद की मजबूरी में भी साथ लेने पर राजी होगा, इसका जबाब बेहद मुश्किल है। यह हालात संघ परिवार के भीतर एक लकीर खींच रहे हैं। आरएसएस के भीतर यह कश्मकश कहीं तेज है कि पार्टी, संगठन और विचार सबकुछ राजनीतिक जीत-हार के सही गलत नहीं देखे जाने चाहिये। लेकिन बीजेपी मोदी की अगुवाई में जिस रास्ते निकल पड़ी है उसमें संघ के सामने कोई विकल्प भी नहीं है और मोदी के सामने कोई चुनौती भी नहीं है। इसीलिय इस लकीर का सबसे ज्यादा मुनाफा किसी को है तो वह एनसीपी का है।
एनसीपी के जो सरदार बीते पन्द्रह बरस की सत्ता में खलनायक हो चले थे वह झटके में अपनी पूंजी के आसरे नायक हो चले हैं। असल में शरद पवार की पार्टी हर जिले के सबसे ताकतवर नेताओ के आसरे ही चलती रही है। यानी संगठन या कार्यकर्ता की थ्योरी पवार की बिसात पर चलती नहीं है। रईस नेताओं के आसरे कार्यकर्ता खड़ा हो सकता है लेकिन कार्यकर्ताओ के आसरे नेता खड़ा नहीं होता। तो घोटालों की वह लंबी फेरहिस्त जिसका जिक्र बीजेपी हर दिन मोदी की तस्वीर के साथ दैनिक अखबारो में पन्ने भर के विज्ञापन के जरीये छाप रही है वह बेअसर हो चली है क्योकि कांग्रेस एनसीपी की जाती हुई सत्ता पर किसी की नजर नहीं है, कोई बहस करने को तैयार नहीं है। वोटरों की नजर बीजेपी-शिवसेना के उस संघर्ष समीकरण पर आ टिकी है, जहां सत्ता दोनों में से किसके पास कैसे आयेगी यही मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण हो चला है।
यानी 70 हजार करोड़ का सिचाई घोटाला हो या आदर्श घोटाले की हवा में उड़ी कांग्रेसी सीएम अशोक चव्हाण की कुर्सी। कोई मायने नहीं रख रहे। महत्वपूर्ण बीजेपी शिवसेना के मुद्दे हो चले हैं। और चुनावी समीकरण का असल खेल यही से बन बिगड़ रहा है। मुंबई जैसी जगह पर भी गुजराती और मराठी मानुष टकरा जाये यह शिवसेना की जरुरत है और मराठी मानुष रोजगार और विकास को लेकर गुजरातियों के साथ चलने को तैयार हो जाये यह बीजेपी की जरुरत है। उद्धव ठाकरे इस सच को समझ रहे है कि बीजेपी दिल्ली की होकर नहीं रह सकती क्योंकि नरेन्द्र मोदी का पहला प्रेम गुजरात हो या ना हो लेकिन मुंबई और पश्चिमी महाराष्ट्र में बसे गुजराती अब शिवसेना की ठाकरेगिरी पर नहीं चलेंगे। क्योंकि उन्हे दिल्ली की सत्ता पर बैठे गुजराती मोदी दिखायी दे रहे हैं।
लेकिन मोदी का संकट दोहरा है एक तरफ वह महाराष्ट्र को बंटने ना देने की राजनीतिक कसम खा रहे हैं। लेकिन अलग विदर्भ के बीजेपी के नारे को छुपाना भी नहीं चाह रहे हैं। यानी वोटो का जो समीकरण बीजेपी के लिये विदर्भ को अलग राज्य बनाने के नारे लगाने से मिल सकता है वह खामोश रहने पर झटका भी दे सकता है। और नारा लगाने पर मुबंई से लेकर पश्चिमी महाराष्ट्र और मराठवाडा तक में मोदी हवा को पंचर भी कर सकता है। दरअसल लोकसभा चुनाव में मोदी हवा में विदर्भ के 62 सीटों में से बीजेपी-शिवसेना 59 सीटों पर आगे रही तो विदानसभा चुनाव में बीजेपी अपने बूते 45 सीट जीतने का ख्वाब संजोये हुये है और उसकी सबसे बड़ी बजह विदर्भ राज्य को बनवाने के वादा पूरा करने का है। लेकिन यह आवाज तेज होती है तो कोकंण और मराठवाडा की क्षेत्रीय ताकते यानी मराठा से लेकर कुनबी और ओबीसी की धारा बीजेपी से खिसक सकती है जो उसने बाला साहेब ठाकरे के साथ मिलकर प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के भरोसे बनाया।
मोदी और अमित शाह इसीलिये चैक एंड बैलेंस का खेल खेल रहे हैं। मोदी नागपुर से चुनाव लड़ रहे देवेन्द्र फडनवीस की खुली तारीफ कर रहे हैं और अमित शाह पंकजा मुंडे का नाम ले रहे हैं। फडनवींस विदर्भ का राग अलाप रहे है और पंकजा महाजन-मुंडे की जोड़ी को याद कर मराठवाडा में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग बरकरार रखने की जद्दोजहद कर रही हैं। वहीं शिवसेना भी सोशल इंजिनियरिंग के सच को समझ रही है तो भाषणों में महाजन-मुंडे के साथ रिस्तो की अनकही कहानी का प्रलाप उद्दव ठाकरे तक कर रहे हैं। क्योंकि निगाहों में मराठा, कुनबी और ओबीसी वोट बैंक हैं। इसके लिये मुंडे की तस्वीर तक को शिवसेना के नेता मंच पर लगाने से नहीं चूक रहे। और यह बताने से भी नहीं चुक रहे कि शिवसेना उस बीजेपी से नहीं लड़ रही जो बालासाहेब के दौर में साथ खड़ी थी बल्कि शिवसेना बीजेपी के उस ब्रांड एंबेसडर से लड़ रही है जिसने बीजेपी में रिश्ते निभाने वालों को भी सरेराह छोड़ दिया। यानी सत्ता की लड़ाई में साख पर सियासत कैसे हावी है यह भी कम दिलचस्प नहीं।
नरेन्द्र मोदी जिस एनसीपी कांग्रेस सरकार के 15 बरस के शासन को घोटालों और लूट के तराजू में रखकर पलटने का नारा लगातार रहे है, उस बीजेपी में 37 उम्मीदवार कांग्रेस-एनसीपी से ही निकल कर बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। इसके अलावे 14 उम्मीदवार दूसरे राजनीतिक दलो से बीजेपी में घुसे हैं। वहीं शिवसेना को जिस बीजेपी से दो दो हाथ करने है, उसके टिकट पर बीजेपी के साथ रहे 27 नेता चुनाव लड़ रहे हैं। यहां तक की देवेन्द्र फडनवीस के करीबी मित्र और बीजेपी के कार्यकर्ता तोतवानी शिवसेना की टिकट पर देवेन्द्र फडनवीस के खिलाफ ही चुनाव लड़ रहे हैं। मुकाबला चौकोणीय है तो फिर तोतवामी का सिंधी होना विधानसत्रा क्षेत्र में 12 हजार सिंधी वोट के जरीये क्या गुल खिला सकता है और संघर्ष का पैमाना इस दौर में कहां आ पहुंचा है उसकी एक तासीर भर है यह समीकरण।
सच तो यह है कि बीजेपी पर निर्भर शिवसेना ने 89 विधानसभा क्षेत्र में कभी अपने संगठन की तरफ ध्यान दिया ही नहीं और शिवसेना पर निर्भर बीजेपी ने 63 सीट पर कभी अपने कैडर को दाना-पानी तक नहीं पूछा। यानी इन सीटों पर कौन कैसे चुनावी संघर्ष करे यह पहली मुश्किल है तो दूसरी मुश्किल उम्मीदवारों के नाम के आगे से पार्टियों के नाम का मिटना है। महाराष्ट्र की 47 सीट ऐसी हैं, जहां बीजेपी और कांग्रेस का भेद मुश्किल है। इसके अलावा 41 सीट ऐसी हैं जहां शिवसेना और एनसीपी के बीच भेद करना मुश्किल है। यानी राज्य की 288 में से 88 सीट नो मेन्स लैंड की तर्ज पर हर दल के लिये खुली हैं। इतना ही नहीं बीजेपी जिन 59 सीटों का जिक्र बार बार शिवसेना से यह कहकर मांग रही थी कि वह कभी जीती नहीं तो उस पर तो उन पर शिवसेना ने किसी बाहरी को टिकट दिया नहीं और बीजेपी ने इन्ही 59 सीट पर 11 एनसीपी के तो 9 कांग्रेस छोड़कर आये नेताओं को टिकट दे दिया।
वहीं दूसरी तरफ गठबंधन के दौर में जिन 27 सीटो पर बीजेपी कभी जीती नहीं उसपर शिवसेना ने बीजेपी छोड़ शिवसेना के साथ आये 9 नेता को टिकट दे दिया। ध्यान दें तो बीते 15 बरस में कौन सा दल किससे अलग है यह सवाल ही गायब हो गया। उस्मानाबाद नगरपालिका में काग्रेस धुर विरोधी शिवसेना -बीजेपी के साथ मिल गयी। नासिक में राजठाकरे से शरद पवार ने हाथ मिला लिया। बेलगाम में कांग्रेस बीजेपी एकसाथ हो गये। पुणे महाराष्ट्र यवतमाल में शिवसेना-बीजेपी के साथ एनसीपी खड़ी हो गयी। नागपुर महानगरपालिका में बीजेपी के साथ मुस्लिम लीग के दो पार्षद आ गये। जाहिर है ऐसे में लूट की हर कहानी में राजनीतिक बंदरबाट भी हर किसी ने देखा। को-ओपरेटिव हो या भूमि अधिग्रहण। मिहान प्रोजेक्ट हो या सिंचाई परियोजना। लूट की हिस्सेदारी कहीं ना कहीं हर राजनीतिक दल के दामन पर दाग लगा ही गयी।
असर इसी का हो चला है कि पहली बार वोटरों के सामने से हर मुद्दा गायब है। शरद पवार के सांप्रदायिकता के कटघरे में बीजेपी है शिवसेना नहीं है। शिवसेना के घोटालो के कटघरे में कांग्रेस है एनसीपी पर खामोशी है। लेकिन खलनायक मोदी हैं। बीजेपी के कटघरे में शरद पवार यानी एनसीपी है, शिवसेना पर खामोशी है। गांधी नेहरु के प्रति प्रेम जताकर कांग्रेस के वोट बैंक को आकर्षित करने में मोदी लगातार लगे हैं। कांग्रेस के कटघरे में सिर्फ मोदी हैं, शिवसेना और बीजेपी भी पाक साफ हो चली है। तो बहुमत के जादुई आंकड़े को पाने के सस्पेंस पर टिके चुनाव का असल सच यह है कि कांग्रेस न जीत पाने की उम्मीद में लड़ रही है। एनसीपी सियासी सौदेबाजी में प्यादा से वजीर बनने के लिये लड़ रही है। शिवसेना किंग बनने के लिये लड़ रही है। और बीजेपी जीतती हुई लग रही है क्योंकि उसे विश्वास है कि उसके सिकंदर यानी मोदी का जादू सर चढ़ कर अब भी बोल रहा है तो वह जीत का नया इतिहास बनाने के लिये लड़ रही है।
जाने माने पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार।