Sunder Chand Thakur-
कवि मंगलेश डबराल और मैं… मैं मंगलेश डबराल से मिला था 27 बरस की उम्र में जब मैं कवि बनने के मंतव्य से सेना छोड़कर दिल्ली आ गया था और संयोग से मयूर विहार में ही रहता था जहां निर्माण अपार्टमेंट में मकान नंबर 805 में मंगलेश जी भी किराए पर रह रहे थे। उन्हें मैं उनकी ‘पहाड़ पर लालटेन’ से जानता था जिसकी कुछ कविताएं मैंने साप्ताहिक हिंदुस्तान या धर्मयुग या सारिका में पढ़ी थीं और यह जानकर कि कवि के अलावा वे एक पत्रकार भी थे और उत्तराखंडी भी और चूंकि मैं खुद स्कूल के दिनों से ही कवि और पत्रकार बनकर अपने जीवन को सार्थक बनाने की जबर्दस्त ख्वाहिश लिए बड़ा हुआ था, मेरे मन में उनके लिए बिना मिले ही एक खास जगह बन गई थी।
मैंने दिल्ली आकर उन्हें एक लंबा पत्र लिखकर अपने बारे में बताया कि मैं सेना से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आया एक पूर्व सैनिक अधिकारी हूं और रोज दो पैग ओल्ड मोंक के पीता हूं, ओशो का भक्त हूं क्योंकि उसके तर्कों का कायल हूं और कविताएं लिखता हूं। मेरे पत्र के जवाब में उन्होंने मुझे पत्र लिखा और कभी घर आकर मिलने का न्योता देने के साथ-साथ खुशी जाहिर की कि मैं कविताओं से जुड़ा हुआ हूं।
कमलेश्वर, हिमांशु जोशी और केदारनाथ सिंह के पत्रों के बाद मेरी साहित्यिक धरोहरों में मंगलेश जी के पत्र का भी शुमार हुआ पर पत्र से बड़ा हमारी दोस्ती का सिलसिला निकला क्योंकि हम उसके बाद से यूं एकदूसरे से मिलते रहे और फोन पर बात करते रहे कि कभी पत्र नहीं लिखना पड़ा। अमूमन मैं आठ बजे ही मंगलेश जी के घर पहुंच जाता और हम ज्यादातर रॉयल स्टैग या कभी-कभार ब्लैंडर्स प्राइड के पैग के साथ कविताओं से लेकर विश्व सिनेमा, संगीत, राजनीति, संस्कृति, पहाड़, पुराने-नए कवि, विश्वकविता आदि पर बातें करते और लगभग हर बार ही मैं उनकी अलमारी से अकीरा कुरोसावा, फेडरिको फेलिनी या किसी ईरानी डायरेक्टर की कोई फिल्म लेकर आता और हर बार मेरे साथ में कोई न कोई किताब जरूर होती जिसे पढ़ना मेरे लिए अनिवार्य बताते हुए मंगलेश जी घर से निकलते-निकलते मेरे हाथ में थमा देते थे।
यह मेरी कविता की गंभीर तालीम की शुरुआत थी। मैंने मंगलेश जी के कविता संग्रहों को भी बहुत बारीकी से पढ़ लिया था और अब होने यह लगा था कि कलम मेरी चल रही होती थी और शब्द उनके निकल रहे होते थे इसलिए कोई हैरानी की बात नहीं कि कुछ दूसरे कवियों ने कई मर्तबा एकदम सीधे और कई बार थोड़ा घुमाकर मुझे मंगलेश जी का क्लोन जैसा कुछ कहने की कोशिश की हालांकि मुझे इसकी जरा भी परवाह न थी क्योंकि मैं उनके सान्निध्य में संवेदनाओं के एक विरल सफर पर निकला हुआ था और उसका भरपूर आनंद ले रहा था।
मैं मंगलेश जी के साथ लगभग साये की तरह चिपका रहता इसलिए जल्दी ही उनके करीबी विष्णु खरे, ज्ञानरंजन जी, लीलाधर जगूड़ी, केदारनाथ सिंह, पंकज बिष्ट, वीरेन डंगवाल, आलोक धन्वा, पंकज सिंह, सविता सिंह, विश्वमोहन बडोला, नरेश सक्सेना, योगेंद्र आहूजा आदि से भी मेरी घनिष्ठता बढ़ गई और जिंदगी साहित्य से सराबोर होने लगी। हम दोनों कभी अकेले और कभी दूसरों के साथ हजारों बार बैठे क्योंकि हमें एकदूसरे के साथ बैठने से ज्यादा सुखद कुछ नहीं लगता था। हमारी आदतें जो एक जैसी थी- हम घरवालों को बुरा न लगने देने का खयाल रखते हुए पूरे नियंत्रण में शराब पीते थे और सिगरेटें फूंकते थे और पहाड़ के एक संघर्ष भरे जीवन की यादें लिए मैदान में थोड़ी इज्जत और बुनियादी सुविधाओं के साथ जी पाने की अपनी जद्दोजहद के बीच अपने संवेदनशील मनुष्य होने का एक शालीन उत्सव मनाने की कोशिश करते थे।
यह सिलसिला टूटा जबकि मुझे दस बरस पहले नौकरी की वजह से दिल्ली छोड़कर मुंबई आना पड़ा और इसी दौरान हमने वीरेन डंगवाल, पंकज सिंह, केदारनाथ सिंह और अभी दो बरस पहले विष्णु खरे को खो दिया जबकि लगभग पूरे ही जीवन एक कवि मन के साथ आजीविका सहित दूसरे संसारी मोर्चों पर निरंतर जूझते ही रहने के चलते कुछ साल पहले खुद मंगलेश जी को दिल में स्टेंट लगवाना पड़ा। मेरा कविताएं जिखना कम हुआ हालांकि इसी दौरान मेरा उपन्यास आया खासा मोटे आकार का जिसे मंगलेश जी ने ही एडिट किया यहां तक कि उसका शीर्षक भी उन्होंने ही सुझाया।
मेरा पीना कम हुआ सिगरेटें फूंकना लगभग बंद ही हुआ जबकि मैंने कविताएं लिखना कम और दौड़ना ज्यादा शुरू कर दिया था पर मेरे जहन में मंगलेश जी हमेशा बने रहे और इस दौरान भी हम कई बार दिल्ली, मुंबई में मिले और जब भी मिले हमने पुरानी यादों के आगोश में जाकर साथ में हमेशा बहुत नियंत्रण में शराब पी और सिगरेटें फूंकी। आखिरी बार मैं 4 नवंबर को दिल्ली में उनके घर पर मिला जहां मैंने 235 दिनों तक सिगरेट न पीने का अपना व्रत तोड़ा और ब्लेंडर्स प्राइड के दो पैग भी पिए हालांकि उस दौरान वे मुझसे बातें करने से ज्यादा कंप्यूटर की स्क्रीन पर ज्यादा चिपके रहे क्योंकि वहां उनकी खुशी का सबब बनने की संभावना लिए अमेरिकी चुनाव में ट्रंप की हार का निर्णायक फैसला फंसा हुआ था।
हमने हमेशा की तरह सबसे आखीर में खाना खाया और खाते हुए मंगलेश जी ने अफसोस जाहिर किया – सुंदर रोटियां थोड़ी ठंडी हो गई भाई! और वे मुझे बाहर सीढ़ियों तक छोड़ने आए और (तब मैं जानता न था कि यह उनका मुझे कहा गया अंतिम वाक्य होगा) जैसे उन्हें कोई भूली बात याद आ गई हो, उन्होंने मेरे थोड़ा नीचे पहुंच जाने के बाद ऊपर से जोर से आवाज लगाई – सुंदर कविताएं लिखते रहो भाई!