CHARAN SINGH RAJPUT-
सोशल मीडिया पर एक दलित युवक की पिटाई का वीडियो वायरल हो रहा है। वीडियो उत्तर प्रदेश कानपुर के अकबरपुर का बताया जा रहा है। बताया जा रहा है कि प्रेम प्रसंग के शक में दलित युवक को पेड़ से बांधकर घंटों तक पीटा गया है। यहां तक कि उसके प्राइवेट पार्ट में डंडा डालने की भी कोशिश की गई। यह भी आरोप है कि युवक के पिता जब शिकायत लेकर पुलिस के पास पहुंचे तो उन्हें भगा दिया गया। छेड़खानी का मामला दर्ज कर जेल भेजने की धमकी देकर युवक को ले जान की बात कही गई। पीड़ित पुताई का काम करता है।
ऐसा भी नहीं है कि किसी दलित की पिटाई का यह कोई पहला वीडियो है। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा राज में अचानक दलितों का उत्पीडऩ हा रहा हो। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा और आरएसएस का एजेंडा अचानक तैयार हुआ हो। भाजपा राज में दलित और मुस्लिम उत्पीडऩ की घटनाएं आम बात है। हाथरस कांड तो देश और विदेश तक छाया रहा। ऐसे मे प्रश्न उठता है कि उत्तर प्रदेश के दलित नेता क्या कर रहे हैं ? विशेष कर अपने को दलितों का मसीहा दर्शाने वाली मायावती। क्या मायावती के लिए दलित वोटबैंक बस सत्ता का मजा लूटने के लिए ही है ? क्या दलित वोटबैंक मायावी के लिए विधानसभा और लोकसभा में सीटें बेचने के लिए ही है। या फिर मायावती की राजनीति दलित वोटैबंक के सहारे अरबों-खरबों की संपत्ति अर्जित कर एशोआराम की जिंदगी बिताने तक ही सीमित रह गई है। ऐसे मामले में हम सरकारों को तो दोष देने लगते हैं पर इनके वोटबैंक को भुनाने वाले नेताओं को भूल जाते हैं।
यदि मायावती भाजपा के सामने आत्मसमर्पण न करती तो क्या प्रदेश में दलित उत्पीडऩ के मामले होते ? मायावती अपनी गर्दन बचा रही हैं और दलित हैं कि आज की तारीख में भी बहन जी बहन जी कहते नहीं थक रहे हैं। मायावती की उदासीनता के चलते राजनीतिक पंडित भले ही बसपा के हाशिये पर जाने की बात करने लगे हों पर आज भी दलित वर्ग लामबंद होकर मायावती से सटा है। दलित वर्ग लामबंद होकर मायावती की चुप्पी के खिलाफ आंदोलन क्यों नहीं करता ? बिल्ली के भाग से छींका टूटने का इंतजार कर रहे अखिलेश यादव से उदासीनता का कारण क्यों नहीं पूछता ? आज की तारीख में किसी जाति विशेष या धर्म विशेष के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकना ही राजनीतिक दलों का काम रह गया है। उत्तर प्रदेश में दलितों के नाम पर मायावती ने तो अरबों-खरबों की संपत्ति अर्जित कर ली पर क्या दलितों का जीवन स्तर भी सुधारा ? मायावती तो चुनाव में टिकट भी सवर्णों और पिछड़ों को बेच देती हैं।
राजनीति में सीधा-सीधा मतलब अपना स्वार्थ सिद्ध करना रह गया है। जिसकी चल रही है वह खूब चला रहा है। विपक्ष तो बस अपनी गर्दन बचा रहा है। उत्तर प्रदेेश ही क्या पूरे देश का वंचित समाज विपक्ष के नाकारेपन का फायदा उठा रहा है। आम आदमी किसी भी वर्ग का हो वह तो बस इस्तेमाल ही होता है। योगी सरकार पर दलितों से ज्यादा तो मुस्लिमों के उत्पीडऩ का आरोप लगा रहा है। मुस्लिम वर्ग में आजम खां के जेल जाने के बाद असदुद्दीन ओवैसी अपने को मुसलमानों का हितैषी साबित करने में लगे हैं। कौन नहीं जानता कि देश की राजनीति में वह भाजपा के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं।
अब उत्तर प्रदेश में विपक्ष की मुख्य पार्टी समाजवादी पार्टी पर आ जाइये। सपा मुखिया अखिलेश यादव ट्वीट वीर बनकर रह गये हैं। अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं पर एक भी आंदोलन अखिलेश यादव ने जनहित के किसी मुद्दे को लेकर नहीं किया। पेट्रो पदार्थों में वृद्धि को लेकर किसान तो सड़कों पर उतर रहे हैं पर सपा ने इस मुद्दे पर आंदोलन करना भी उचित नहीं समझा। हां अखिलेश अपनी सरकार की उपलब्धियों को लेकर अपने कार्यकर्ताओं से अभियान जरूर चलवा रहे हैं। इसे राजनीतिक नौसिखाया कहें या फिर ज्यादा चालाक कि अखिलेश यादव अभी तक सत्ता की बू से बाहर नहीं निकल पाये हैं। वह अपनी योगी सरकार में भी अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनवा रहे हैं। मतलब योगी सरकार का विरोध करना का माद्दा अखिलेश यादव में नहीं है। हां कांग्रेस की उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी और उनके प्रदेश अध्यक्ष लल्लू सिंह समय-समय पर योगी सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतरते हैं पर उत्तर प्रदेश के लोग अभी उन पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलितों का बड़ा योगदान रहा है। यही वजह थी कि दलित चिंतक कांशीराम ने दलितों की राजनीति के लिए उपजाऊ जमीन मानते हुए उत्तर प्रदेश में मायावती से संघर्ष कराया था। वह कांशीराम की ही रणनीति थी कि किसी समय कांग्रेस केसाथ रहने वाले दलित बसपा से सटे और दलित वोटबैंक की बदौलत मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में दलित वोटों को प्रभावित किया है। गत चुनाव में दलितों के भाजपा की ओर झुकने और योगी सरकार में दलितों के उत्पीडऩ के बावजूद बसपा सुप्रीमो मायावती की चुप्पी आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को मजबूती प्रदान कर रही है। वैसे भी चंद्रशेखर लगातार दलित हित में संघर्ष करते नजर आ रहे हैं। मायावती ने पंचायत अध्यक्ष चुनाव में भाजपा पर कम और सपा पर ज्यादा निशाना साधा।
यदि उत्तर प्रदेश में दलित जनाधार की बात करें तो उत्तर प्रदेश में करीब 22 फीसदी आबादी दलितों की है और प्रदेश की राजनीति में दलित जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। राज्य की सियासत में दलित राजनीति कई दौर से गुजरी है। उत्तर प्रदेश के दलितों के वजह से मायावती कई बार प्रदेश की मख्यमंत्री बनी। 2007 में तो उन्हें प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ था। वह बात दूसरी है कि जहां 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा की दुगर्ति हुई वहीं लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन करने के बावजूद वह ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर पाईं। नोएडा में अपने भाई आनंद पर शिकंजा कसने के बाद मायावती ने एक तरह से मोदी और योगी सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव के साथ ही ब्लाक प्रमुख चुनाव में भाजपा और बसपा अंदरखाने एक रही हैं।