इस देश में ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनके लिये मरने का दिल करता है….। दिल को छू कर गुजरने के बजाय दिल में उतर गईं ये लाइनें मिली ‘फुगली’ से..। जी हां फुगली मूवी से यूं तो बहुतों ने फुगली देखी होगी लेकिन उस के पीछे का संदेश शायद ही कोई समझा होगा..। फिल्म में एक जगह पृष्ठभूमि से आवाज आती है कि ‘क्या एक लड़की की इज्जत बचाने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी..।’ अफसोस ये आवाज एक न्यूज चैनल पर चल रही खबर की लाइन है..। और इस पर अफसोस इस बात का है कि मीडियाकर्मी पुलिस प्रशासन, नेताओं पर आरोप लगाते हैं कि वो अपना काम सही से नहीं कर रहे..। काश कि ये कहने से पहले वो जरा अपने गिरेबान में भी झांक लेते..।
क्या किसी को याद है कि कब कैमरे गरीब के भूखे पेट की जगह लड़कियों के क्लीवेज पर शिफ्ट हुये…। क्या कोई बता सकता है कि 80% गरीबों को छोड़ कर कब माइक 10 % सेलिब्रिटीज की तरफ मुड़ गया..। क्यों स्क्रिप्ट में किसानों मजदूरों की समस्याओं की जगह एंटीलिया और बीएमडब्ल्यू आ गये..। क्यों हर खबर टीआरपी को ध्यान में रखकर दिखाई जाती है..। क्यों संवेदनाओं और मानवीयता का प्रयोग अपने फायदे के लिये ही किया जाता है..।क्या यही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है कि अपने ही कर्मचारियों से बंधकों की तरह काम लें और आवाज उठाने पर नौकरी से निकाल दें..। नेता और पुलिस का गठजोड़ तो नाली और कीड़े की तरह है इस पर बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है… लेकिन सवाल वही है कि जब हर कोई अपने फायदे के लिये ही जी रहा है तो किस से उम्मीद लगायें.. और क्यों लगायें..।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने दशकों पहले कहा था कि हम भारतीय लोग रेल के डिब्बे की तरह हैं हमें आगे बढ़ने के लिये इंजन की जरूरत होती है..। इंजन चुनते भी हमीं हैं लेकिन जब वही इंजन गलत ट्रैक पर सरपट भागने लगता है तो हम चुपचाप पीछे पीछे चलते जाते हैं और चिल्लाते जाते हैं कि ये रास्ता गलत है गलत है..। सीधी भाषा में कहें तो क्या चूतियापा है ये..। रास्ता गलत है तो छोड़ दो बदल दो वो इंजन जो गलत ट्रैक पर जाये..। और इंजन बदलें क्यों.. क्यों हमें जरूरत है इंजन की क्या हममें इतनी भी काबिलियत नहीं है कि हम अपना रास्ता खुद बना सकें…। और अगर है काबिलियत तो इच्छाशक्ति क्या उधार लेनी पड़ेगी.।
नेताजी, आजाद, शहीद ए आजम ने हमें गोरों की गुलामी से इसीलिये आजाद कराया था कि लुटेरों का रंग बदल जाये बस और हम यूं ही लुटते रहें..। नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है हम लुटने के लिये नहीं बने बस जरूरत है हमें खड़े होने की और समाज की सारी बुराइयों से एकजुट होकर लड़ने की..। और इसकी शुरुआत भी हमें खुद से ही करनी पड़ेगी.। पहचानना पड़ेगा उन्हें जो महिला सशक्तिकरण पर लंबे लंबे भाषण देखते हैं और लड़की देखते ही कहते हैं वाह क्या माल है.। बेइमानों को जी भर भर के गालियां देते हैं और खुद मौका मिलते ही पैसा बनाने लगते हैं..। आदर्शों की दुहाई देंगे और अपने फायदे के लिये आदर्शों की तिलांजलि दे देते हैं..। जब तक हम ऐसा नहीं करते तब तक हमें किसी के काम में कमी निकालने का कोई हक नहीं है..।
पत्रकार चंदन सूरज पांडेय का विश्लेषण. संपर्क: [email protected]
राहुल सांकृत्यायन
November 4, 2014 at 6:36 am
एक उम्दा विश्लेशण। आज हमारी हालत ये हो गयी है कि अगर हमें मी़डिया के बारे में कुछ अच्छा लिखने का कहा जाये तो हमें गूगल करना पड़ता है। हमारा इतिहास अगर बहुत अच्छा नहीं था तो भी आज के वर्तमान से तो लाख गुना अच्छा था। कम से कम आदर्शों की बात तो कर सकते थे, आज समय इतना बलवान है कि आदर्शों की बात करना ही आपके चूतियापे की निशानी है।
atul pandey
November 4, 2014 at 7:43 am
bahut accha likha
रोहित परमार
November 4, 2014 at 10:28 am
समाज और सोच दोनों को बदलने की जरुरत है…
इसके लिए मीडिया को गलत ठहराना वाजिब नहीं होगा…मीडिया वही दिखाता है…जो समाज देखना चाहता है…!
लेखन शैली बहुत ही बेहतरीन है…
बढ़ते रहिए… 🙂