पंकज चतुर्वेदी-
‘उनके देखे से मुँह पे आ जाती है जो रौनक़
वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है’
~ मिर्ज़ा ग़ालिब
आज सहसा ध्यान गया कि ‘हाल’ शब्द का इस्तेमाल उन्नीसवीं सदी में ग़ालिब ने ही नहीं किया, उनसे काफ़ी पहले तुलसीदास ने भी किया है। युद्ध में रावण के मारे जाने पर मंदोदरी विलाप करते हुए कहती हैं : संसार भर में तुम्हारी प्रभुता प्रसिद्ध थी। तुम्हारे पुत्रों और कुटुंबियों के बल का बखान नहीं किया जा सकता था, लेकिन राम से विमुख होने पर यह हाल हुआ कि आज तुम्हारी मृत्यु पर कुल में कोई रोनेवाला भी न रहा :
‘जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥’
मैंने इस प्रसंग का ज़िक्र रामजी राय से किया, तो बोले : ‘तुलसी ने राम को ही नहीं, रावण को भी बहुत लगाव से रचा है।’
इससे एक अनूठा एहसास हुआ कि प्रतिनायक से नफ़रत करके समाज का काम शायद चल जाए, मगर कवि का नहीं चल सकता। उसे तो अपनी समूची सृष्टि से प्यार करना होगा।