उम्र बिती गयी छ पर कु गौ नि छुटि अजौं तलें… थाउल, दयूल तन्नी पै्टदीन खूटी अजौं तलें…. अपने पूर्व अनुचर के हाथों अपमानित होते इस लालची बुड्ढे की दशा देख मुझे यहीं गढ़वाली कहावत सूझती हैं. अर्थात उम्र बीत गई है लेकिन बुरी आदतें अभी भी साथ नहीं छोड़ती. मेले ठेलों में पैर अभी भी दौड़ पड़ते हैं. सत्ता की पिपासा जो दिन न दिखाए.
इस विषय में मैं तीन उदाहरण देना चाहूंगा. पहला उदाहरण महान सम्राट दिग्विजयी सिकंदर और अनूठे दार्शनिक डेओगिनीज़ का है. विश्व के सारे विद्वान सिकंदर की सेवा में अभ्यर्थना करने आए. केवल डेओगिनीज़ को छोड़कर. आश्चर्यचकित सिकंदर एक दिन स्वयं डेओगिनीज़ की कुटिया पर गया. उस समय डेओगिनीज़ नंगे बदन धूप सेंक रहे थे. सिकंदर ने उनसे अपना परिचय देते हुए कहा, मैं विश्व सम्राट सिकंदर हूं. क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूं. डेओगिनीज़ ने कहा, अगर तुम सचमुच मेरी मदद करना चाहते हो तो परे हट जाओ और धूप आने दो.
दूसरा उदाहरण हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का है. जब 15 अगस्त 1947 को नेहरू, पटेल इत्यादि सारे बड़े नेता आजादी का जश्न मनाते हुए लाल किले पर ध्वजारोहण कर रहे थे, उस समय गांधी इन सब से दूर बंगाल के किसी गांव में पैदल विचरण कर रहे थे.
तीसरा उदाहरण गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा भावे का है. अपने जीवन के अंतिम दिनों में नेहरू ने विनोबा को संदेश भेजा, कि चीन आक्रमण के विषय में उनसे जरूरी सलाह मशविरा करना है और साथ ही तीसरी पंचवर्षीय योजना पर भी सलाह लेनी है. उस समय मध्य प्रदेश के किसी गांव में भूदान पद यात्रा पर थे. उन्होंने नेहरू के विशेष संदेश वाहक को कहा, पंडित जी से कहना कि बाबा उनसे मिलने निकल पड़ा है. सीधे दिल्ली आकर ही रुकेगा. यह कहकर विनोबा ने अपनी लकुटी कमरिया उठाई और चप्पल पहन कर निकल पड़े. अगले दिन से मध्य प्रदेश से आने वाली हर ट्रेन पर विनोबा की बात देखी जाती रही लेकिन विनोबा डेढ़ साल बाद ज़मीन बांटते बांटते पैदल दिल्ली तब पहुंचे जब नेहरू को मरे कई महीने बीत चुके थे.
जो राजपुरुष यथा समय अपने को संपादित कर समेट नहीं लेते वह आडवाणी की ही तरह अपमानित होकर दारुण दुख पाते हैं. ईश्वर बुढ़ापे में भी भटक रही इस अतृप्त आत्मा को शीघ्र अपने चरणों में स्थान देकर शेष अपमान से बचाए.
उत्तराखंड निवासी वरिष्ठ पत्रकार और चर्चित घुमक्कड़ राजीव नयन बहुगुणा की एफबी वॉल से.
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