Om Thanvi : लगता है टाइम पत्रिका वालों ने अपने ही घर में जमा “हाउडी मोदी” की भीड़ का कोई असर नहीं लिया। पत्रिका की साल भर के सबसे असरदार 100 शख़्सियतों की फ़ेहरिस्त में चीन के रहनुमा सी जिंपींग और पाकिस्तान के इमरान ख़ान मौजूद हैं, पर हमारे प्रधानमंत्री नहीं। माजरा क्या है?
Sheetal P Singh : टाइम आउट… 2019 की टाइम पत्रिका की दुनिया के सबसे प्रमुख / प्रभावशाली १०० लोगों की लिस्ट में ‘साहेब’ नहीं हैं! ये गोरे भी बिलकुल छिछोरे लोग हैं, कुछ महीनों पहले ही साहेब हाउडी मोदी करके कितना डालर इनके मुंह में भरे थे पर फिर भी मौक़े पर काट दिये! अब आई टी सेल को साहेब को विश्वगुरु साबित रखने के लिये डबल ट्रिपल मेहनत लगेगा। कुछ झूठ फुर नया गढ़ना पड़ेगा। सबसे दर्दनाक हादसा यह हुआ है कि इस लिस्ट में हमारे चैनलों के संध्या पंचिंग बैग इमरान मियाँ फिर भी पता नहीं कैसे मौजूद हैं!
Hemant Kumar Jha : टाइम मैगजीन ने वर्त्तमान में उभर रहे और भविष्य में अपनी छाप छोड़ने की संभावनाएं दर्शाने वाले राजनीतिज्ञों की एक सूची प्रकाशित की है। एक छोटे से देश कोस्टारिका के 39 वर्षीय राष्ट्रपति कार्लोस अलवारेडो क्युसाडा इस सूची में शीर्ष पर हैं। अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी की 33 वर्षीया लारेन अंडरवुड, हांगकांग में हो रहे लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के नेता 28 वर्षीय एडवर्ड लुइंग जैसे अन्य कई राजनीतिज्ञ इस सूची में शामिल हैं। लेकिन, गौर करने की बात है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत का कोई युवा राजनीतिज्ञ इस सूची में शामिल नहीं हैं।
यहां इस तथ्य को खास तौर पर रेखांकित करने की जरूरत है कि भारतीय राजनीति में पीढ़ीगत परिवर्त्तनों का दौर चल रहा है। अभी कल परसों लोजपा के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान ने अपने सुपुत्र चिरंजीवी चिराग पासवान को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना कर शान से घोषणा की…”कमान अब युवाओं को सौंपी जा रही है।”
उद्धव ठाकरे ने अपने सुपुत्र आदित्य ठाकरे को शिवसेना का भविष्य घोषित करते हुए उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनवाने के फेर में गठबंधन के सामने परोसी सत्ता की थाली ही उलट दी और अब राजनीतिक रकीबों से जुड़ कर जैसे-तैसे सत्ता का समीकरण बिठाने की जोड़-तोड़ में लगे हैं। जाहिर है, आने वाले समय में ठाकरे जूनियर ही अपने दादा बाल ठाकरे की विरासत संभालेंगे।
बिहार में लालू जी के लालों ने बाकायदा राजद की कमान संभाल ली है और दबी-ढकी खबरें आती रहती हैं कि परिवार में विरासत का संघर्ष जोरों पर है। हालांकि, कहा जाता है कि राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में तेजस्वी यादव पिता की पहली पसंद हैं। फिलहाल, लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में राजद के शीर्ष पर वे विराजमान हैं भी।
यूपी में मुलायम सिंह यादव अब उम्र के हाथों विवश हो रहे हैं और उनके सुपुत्र अखिलेश यादव सपा के शीर्ष पर स्थापित हो चुके हैं। इधर, मायावती के भी अपनी रैलियों में किसी भतीजे या भगिना को लेकर जाते रहने की बातें होती रही हैं। संभवतः बहन जी बहुजन संघर्षों की कमान उसी भतीजे को सौंप कर बहुजन युवाओं का भविष्य संवारने की सोच से प्रेरित हैं।
सुना है, ममता बनर्जी का भी कोई युवा रिश्तेदार उनकी विरासत संभालने को तैयार किया जा रहा है।
करुणानिधि के निधन के बाद उनके पुत्र डीएमके के सुप्रीमो के रूप स्थापित हो ही चुके हैं। आंध्र में दिवंगत वाईएसआर के पुत्र जी तो हैरत अंगेज चुनावी जीत हासिल कर सत्ता में आ भी चुके हैं। झारखण्ड में अब शिबू सोरेन नहीं, उनके पुत्र हेमंत सोरेन के पास पार्टी की कमान है और वे एक बार मुख्यमंत्री पद पर सुशोभित होकर जनता पर अहसान कर चुके हैं।
इधर, भाजपा, एनसीपी और कांग्रेस के बुढ़ाते बड़े नेताओं के अनेक सुपुत्र और सुपुत्रियाँ भी जनता के कल्याण के लिये खुद का जीवन समर्पित करते हुए राजनीति के मैदान में उतर चुके हैं। राजनाथ सिंह, कमलनाथ, पी चिदंबरम, अशोक गहलोत, वसुंधरा राजे सिंधिया, शरद पवार आदि के पुत्र/पुत्रियों सहित लंबी लिस्ट है। प्रादेशिक स्तर के नेताओं की संतानों की लिस्ट तो बेहद लंबी है।
इधर…देश के ‘प्रथम राजनीतिक परिवार’ के युवा कर्णधार द्वय तो हैं ही जिनके बारे में दावा किया जाता है कि उनकी अपील पूरे भारत मे है। यद्यपि, मैडम ने युवराज के अस्थायी पलायन की स्थिति में मजबूरी वश पार्टी की कमान फिर संभाल ली है लेकिन उनकी उम्र और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए तय है कि जल्दी ही युवराज या युवराज्ञी के हाथों में देश के उद्धार का दायित्व आने वाला है।
तो…पीढ़ीगत परिवर्त्तनों के इस दौर में भारतीय राजनीति में कोई युवा नाम क्यों नहीं टाइम मैगजीन की सूची में अपनी जगह बना सका?
जाहिर है, टाइम की कसौटी में सत्ता तक पहुंचने की सफलता का कोई स्थान नहीं है वरना आंध्र के जगन रेड्डी तो जरूर ही लिस्ट में शामिल होते जिन्होंने शानदार चुनावी सफलता हासिल कर राज्य में अपनी सरकार बनाई है।
दरअसल, हमारे देश के अधिकतर युवा राजनीतिक चेहरे वंशानुगत राजनीति की पैदाइश हैं और इस तथ्य के प्रमाण हैं कि भारतीय राजनीति में जमीन से उभर रहे नेताओं के लिये आगे बढ़ने के रास्ते प्रायः बन्द हैं।
आप कितने भी जुझारू, विचारवान और प्रतिभाशाली हों, अंततः आपको अपनी पार्टी के सुप्रीमो के बाल-बच्चों के लिये तालियां ही बजानी हैं और उनके लिये “ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद” ही करना है।
अब जब राजनीति की जमीन नैसर्गिक रूप से उभरते युवा नेताओं के लिये इस कदर बंजर होती जा रही हो तो राजनीतिक विमर्शों में आम युवाओं की आकांक्षाओं को स्वर कैसे मिले?
तभी तो…बेरोजगारी, शिक्षा और चिकित्सा हमारे राजनीतिक विमर्शों से बाहर है जबकि ये तीनों हमारे देश के लोगों की सबसे प्रमुख समस्याएं हैं।
कोई युवा राजनीतिज्ञ इस देश के आम युवाओं के दिल की धड़कनों में और आकांक्षाओं में कैसे शामिल हो, जब तक कि वह शिक्षा में अवसरों की समानता के लिये संघर्ष न करे, जब तक वह अंध निजीकरण की प्रवृत्तियों के खिलाफ वैचारिक संघर्ष की अगुवाई न करे।
वैचारिक संघर्ष बिना विचार के कैसे संभव है?
हमारे देश की राजनीति में नेता हैं, नेता पुत्र/पुत्रियां हैं, भतीजे/भगिने हैं, जातिवाद है, धर्मवाद है, इलाकावाद है, भाषावाद है, घोटाले हैं, आरोपों/प्रत्यारोपों के कर्णभेदी कोलाहल हैं…।
बहुत कुछ हैं हमारी राजनीति में। जो नहीं भी हैं तो वो नकारात्मकताएँ इसमें शामिल होती जा रही हैं।
लेकिन…हमारी राजनीतिक संस्कृति से जो लुप्त होता जा रहा है तो वह है विचार। ऐसे विचार, जो जनता के वास्तविक कल्याण से जुड़े हों, जो उन्हें संवैधानिक प्रावधानों के तहत अवसरों की समानता दें, जो उन्हें वे अधिकार दें जिसके वे हकदार हैं।
विचारों की जगह ले चुके हैं कर्कश कोलाहल। ऐसे कोलाहल, ऐसे विवाद, जिनका वास्तविक जनसमस्याओं से कोई लेना-देना नहीं। लेकिन, इन्हीं कोलाहलों, इन्हीं विवादों की खाद से वोटों की फसल तैयार होती है और असली चीज तो वोट ही हैं जिनसे सत्ता का जन्म होता है। इस तथ्य को नेताओं की गोद मे पले-बढ़े नौनिहालों से अधिक और कौन समझ सकता है?
तो, विचारों की ऐसी की तैसी…कोलाहल ज़िंदाबाद, आरोप-प्रत्यारोप ज़िंदाबाद, तरह-तरह की नकारात्मकताएँ ज़िंदाबाद।
भले ही सत्ता हासिल हो जाए, लेकिन…
इस देश के युवाओं का हृदयहार वही नेता हो सकता है जो उनके रोजगार की समस्याओं को एड्रेस करे, जो महंगी होती शिक्षा और चिकित्सा के खिलाफ आंदोलनों की शुरुआत करे और उन्हें प्रभावी नेतृत्व दे, जो विकास की धारा में हाशिये पर पड़ी बड़ी आबादी की समस्याओं को स्वर दे, जो अंध निजीकरण को वैचारिक चुनौती दे और इसके खतरों से जनमानस को आगाह करे।
जननेता सिर्फ फौरी समस्याओं पर ही बातें नहीं करते, वे युग की समस्याओं की पहचान करते हैं, वे मूक लोगों को स्वर देते हैं, वे अपनी पीढ़ी को नेतृत्व देते हैं और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देते हैं। कोई भी सम्पूर्ण नहीं होता लेकिन अपने अधूरेपन से सम्पूर्णता की ओर की यात्रा ही किसी नेता को युग का निर्माता बनाती है। जवाहर लाल नेहरू, श्री कृष्ण सिंह, प्रताप सिंह कैरो, विधान चन्द्र राय, ज्योति बसु, कांशीराम से लेकर मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव तक की राजनीतिक सफलताएं और उनका जनता के दिलों में बसना इस तथ्य के उदाहरण हैं।
वैचारिक अंधकार के दौर से गुजरते भारत में पार्टियों के नेतृत्व पर काबिज होते युवा नेताओं का वैचारिक खोखलापन हमारे युग की बड़ी समस्या बन कर उभरा है। निर्धनों और बेरोजगारों के लिये बंजर बनती जा रही हमारी राजनीतिक ज़मीन तब तक उर्वर नहीं हो सकती जब तक उसमें जन हितकारी विचारों की खाद न पड़े।
इन हालात में, हमारे देश का कोई युवा नेता कैसे दुनिया के पटल पर अपनी छाप छोड़े, कैसे उम्मीदों की लौ जलाए? भले ही हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में माने जाते हों।
वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी, शीतल पी सिंह और हेमंत कुमार झा की एफबी वॉल से.