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मुद्दा था इलेक्टोरल बांड के जरिये वसूली और बन गया एसबीआई को फटकार

करोड़ों के असंवैधानिक लेन-देन में गोपनीयता मुद्दा है और 100 करोड़ के कथित ‘एक्साइज घोटाले’ में गिरफ्तारी

संजय कुमार सिंह

आज अमर उजाला को छोड़कर मेरे सभी अखबारों में एसबीआई को सुप्रीम कोर्ट की फटकार लीड है। अलग अखबारों में अलग शीर्षक है उसपर आने से पहले बता दूं कि द टेलीग्राफ का आज का कोट इसी से संबंधित है और वह न तो किसी अखबार में शीर्षक है और न हाईलाइट किया गया है। हिन्दी में वह कोट कुछ इस तरह होगा, हम इस तथ्य पर यकीन करते हैं कि बैंक स्पष्टवादी होंगे … हम यह मानते हैं कि आप किसी राजनीतिक दल के लिए किसी मामले में बहस नहीं कर रहे हैं।” कहने की जरूरत नहीं है कि इस तथ्य को अखबारों में प्रमुखता क्यों नहीं मिली है। वैसे तो कल सुप्रीम कोर्ट में जो हुआ वह सोशल मीडिया पर भी खूब घूम रहा था। आज शीर्षक और खबर से उसका अंदाजा नहीं लगता है। उसपर आने से पहले बता दूं कि भाजपा दान (असल में वसूली है उसे दान बना दिया गया है और वह अलग मुद्दा है) देने वालों का नाम नहीं बता रही है। कल इंडियन एक्सप्रेस में छपा था कि कानूनन रखना जरूरी नहीं है इसलिये उसने नहीं रखे। कहने की जरूरत नहीं है कि यह कानून भाजपा ने ही बनाया है और इलेक्टोरल बांड खरीदने वालों के नाम का खुलासा हुआ तो सबसे पहले जो नाम आये उससे वसूली का संकेत मिला, खबरें छपीं तो भाजपा की ओर से कहा गया कि सांसदों की संख्या के लिहाज से उसे ज्यादा पैसे नहीं मिले हैं।

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कल्पना कीजिये कि देश में हर सांसद वसूली करने लगे तो क्या होगा। और वसूली सांसद ही कयों करे जो चुनाव हारता है वह भी तो खर्च करता है। अगर ऐसा हो जाये तो कानून व्यवस्था की स्थिति का क्या होगा। पर देश के गृहमंत्री ने ऐसा कहा है, बाकायदा और लोगों ने तालियां बजाई हैं। भले वे वसूली को दान मानकर बोल रहे थे और समझने वाले यही समज रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि जो पैसे लिये गये हैं वह काला धन नहीं है। पहले काला धन लिया-दिया जाता था आदि। पर मुद्दा यह है कि जब देने वाले का पता ही नहीं है, किसलिये दिया (या लिया) यह बताना ही नहीं है तो कैसा काला, कैसा सफेद? किसे फर्क पड़ता है? काले धन को सफेद करने की इसी अंसवैधानिक व्यवस्था का भाग है, इलेक्टोरल बांड और इसे सफेद होने पर इतना जोर दिया जा रहा है जबकि सब गोपनीय है। यह काले धन को सफेद करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है और वसूली है तो अलग गड़बड़ है।

इन सब पर बात करने की बजाय अखबारों में एसबीआई को बलि का बकरा बना दिया गया है जबकि वह सरकारी आदेशों और नियमों से भी बंधा है। ग्राहकों की गोपनीयता की रक्षा भी करनी है। इन सबके चक्कर में उससे जो करवाया जा रहा है वही सुप्रीम कोर्ट ने कल कहा जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। पर वह भी उतना नहीं छपता जितना (वोट लेने के लिए) प्रधानमंत्री की यह घोषणा छपी है कि, …. मैं जान की बाजी लगा दूंगा : मोदी। अखबारों में यह सब तब प्रमुखता पा रहा है जबकि देश की पहलवान बेटियों की शिकायत और उसपर कार्रवाई की जानकारी सबको है। जान अगर लगाई भी गई तो लाभ क्या हुआ औऱ किसे हुआ यह भी छिपा हुआ नहीं है। रही बात सरकारी आश्वासन पर बैंकों द्वारा जानकारी गोपनीय रखने की तो मुद्दा यह है कि काले धन को खत्म करने के लिए इस सरकार ने क्या नहीं किया। उससे नुकसान की परवाह कौन कर रहा है और जब तमाम मामलों में परवाह नहीं है राजनीतिक चंदे के मामले में क्यों की जानी चाहिये।

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आपको याद होगा, नोटबंदी के समय दावा किया गया था कि डिजिटल भुगतान से वेश्यावृत्ति कम होगी। नियमों के अनुसार अगर वेश्यावृत्ति करने वाले के नाम का खुलासा हो सकता है तो राजनीतिक चंदा देने वालों के नाम का खुलासा क्यों नहीं होना चाहिये और बचने के लिए वेश्यावृत्ति करने वाले जो करते हैं वही चंदा देने वालों को क्यों नहीं करना चाहिये। जाहिर है, इसपर बातें और खबरें नहीं हो सकती हैं तो जो सबके फायदे का हो, हो जायेगा और आम आदमी को ना वेश्या की सेवा मिल सकेगी और ना वेश्यावृत्ति करने का मौका। बाकी सब तो दूर की कौड़ी है। चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में चुनाव आयोग ने छह राज्यों के गृहसचिव हटाये बंगाल के डीजीपी भी बदले गये हैं। यह सामान्य चुनावी प्रक्रिया है और होती ही है। निश्चित रूप से खबर भी बड़ी है लोगों को जानना भी चाहिये कि किसे हटाया गया और किसे लाया गया। इसमें कारण भी हो तो क्या कहने। लेकिन आज यह खबर सिर्फ अमर उजाला में लीड है।

कहने की जरूरत नहीं है कि इस खबर से लगता है कि चुनाव के लिए सब ठीक-ठाक किया जा रहा है और यह सरकार का प्रचार भी है। खासकर अमर उजाला का शीर्षक। भले यह इरादतन नहीं हो पर बताता है कि जो हुआ वह यूपी में भी हुआ है और बंगाल के तो डीजीपी भी बदल दिये गये हैं। निश्चित रूप से यह राजनीतिक शीर्षक है। हजारों करोड़ के असंवैधानिक लेन-देन के मामले में सुप्रीम कोर्ट को जब इतनी सख्ती करनी पड़ रही है और नियम बनाने वालों पर गाज नहीं गिरी है तो अमर उजाला ने बताया है कि दोहरी जिम्मेदारी के चलते गिरी गाज। उधर ‘सिर्फ’ 100 करोड़ के दिल्ली एक्साइज नीति मामले में इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार कविता ने केजरवाल से साजिश की; सीबीआई ने अदालत से कहा है, ‘हाई प्रोफाइल’ गिरफ्तारियों की संभावना है। आम आदमी पार्टी ने कहा है और इंडियन एक्सप्रेस ने छापा भी है। चुनाव के समय ऐसा करना और इलेक्टोरल बांड के लिये कोई कार्रवाई नहीं होना और उसपर चुप्पी जो बाद की कार्रवाई से डर के कारण भी हो सकती है, कविता और केजरीवाल की बदनामी नहीं है?

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अभी उनका अपराध साबित नहीं हुआ है और मामला सिर्फ 100 करोड़ का है। पीएमएलए और यूएपीए जैसी धाराएं लगाई जाती हैं ताकि जमानत न हो और चुनाव होने हैं। हजारों करोड़ की वसूली का आरोपी चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करके उसी की देख-रेख में चुनाव लड़ रहा है, आचार संहिता का उल्लंघन कर रहा है पर वह खबर नहीं है। जैसा मैंने कहा, मुद्दा ही बदल गया है और अगर पार्टी फिर जीत गई तो जाहिर है मामले का खुलासा नहीं होगा पर पक्षपात स्पष्ट है। राहुल गांधी ने कहा कि एक शक्ति के कारण ऐसा हो रहा है तो उसे नारी शक्ति बनाकर उनपर हमला कर दिया गया और उसकी रिपोर्टिंग में भी पक्षपात है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर से ही पता चलता है कि उद्योग संगठनों में से एक (एसोचैम) ने कहा है कि इलेक्टोरल बांड से किसने किसे पैसे दिये इसका पता चल जायेगा तो उसके गंभीर प्रभाव होंगे। दूसरे अखबार यह सब नही बताते हैं या पहले पन्ने पर नहीं होता है। लेकिन वेश्याओं और वेश्यावृत्ति करने वालों का संगठन नहीं है इसलिए यह मांग नहीं की गई कि वेश्यावृत्ति करने वालों को भी छूट दी जाये और उद्योग संघठनों के लिए यह मांग की जा रही है तो मामला शक्ति का है और इसी शक्ति से राहुल गांधी लड़ने की बात करते हैं तो राजनीति उसे नारी शक्ति बना देती है और मीडिया जो कर रहा है वह आप देख रहे हैं।

हालांकि आज नवोदय टाइम्स ने दोनों खबरों को साथ छापकर काफी हद तक संतुलित पत्रकारिता की और दिखाई है। देखना है यह यहीं तक सीमित रहता है या दूसरे अखबारों में भी जाता है या आज ही अंतिम दिन साबित होता है। ऐसे में रामनाथ गोयनका के नाम पर पत्रकारिता पुरस्कार के प्रायोजकों में अदाणी भी हैं और किसी को अटपटा लगता तो कम से कम सार्वजनिक नहीं किया जाता। पर उसकी जरूरत भी नहीं है। अमर उजाला में कल एक खबर छपी थी, “विदेशी छात्रों पर हमला करने वालों पर गुजरात सरकार सख्त : केंद्र”। इसका उपशीर्षक है, “दो आरोपी गिरप्तार, 20-25 हमलावरों पर रिपोर्ट दर्ज”। मैंने  लिखा था कि यह सामान्य खबर नहीं है। यह सरकारी बयान है और मूल खबर के साथ छपनी चाहिये थी। उसपर सरकारी पक्ष खबर के बाद छपता है। शीर्षक भी इसी के अनुसार होना चाहिये था। यह अटपटा है कि केंद्र सरकार कह रही है कि गुजरात सरकार सख्त है। कुल मिलाकर, अमर उजाला ने कल बताया था कि केंद्र सरकार कह रही है कि गुजरात में विदेशी छात्रों पर हमले के मामले में वह सख्त है।

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बेशक वह डबल इंजन की गुजरात सरकार का पक्ष था और वारदात के बाद दावा किया गया था। फिर भी अखबार ने छापा तो यह उसके संपादकीय विवेक का मामला है। आज द टेलीग्राफ में खबर है कि हॉस्टल में संबंधित विदेशी छात्र (सिर्फ गुजरात में नहीं, देश भर में) डर हुए हैं, खाने की चीजें खत्म हो गई हैं और बच्चे डर के मारे बाहर नहीं जा रहे हैं। वैसे तो गुजरात की खबर दिल्ली में छपे यह जरूरी नहीं है और यह तो फॉलो अप है। लेकिन सरकारी खबर छपे और किसी हॉस्टल में विदेशी छात्र खाने की चीजों के बिना फंसे हों तो खबर कैसे नहीं है? तथ्य यह है कि अमर उजाला में यह खबर आज पहले पन्ने पर नहीं है। मैं यही कहना चाहता हूं कि आजकल अखबार सरकार के पक्ष में खबरें छापते हैं और जनहित की खबरें रह जाती हैं। चुनाव के समय ऐसा होगा तो जो सरकार है वही जीत जायेगी। जनता को ही अच्छी लगेगी जबकि डबल इंजन की सरकार जनहित के काम नहीं कर पा रही है यह उन लोगों को पता ही नहीं चलेगा जहां डबल इंजन की सरकार नहीं है।   

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