मजीठिया वेज अवॉर्ड : सुप्रीम कोर्ट ने जवाबदेही चीफ सेक्रेटरीज की ही तय की है
चंडीगढ़ : मजीठिया को लेकर सवाल पूछने-उछालने, जांच-पड़ताल करने का सिलसिला समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा। जिसको देखो वही शंकाओं-आशंकाओं, असमंजसों में उलझा-घिरा हुआ है। और ऐसी-ऐसी अटकलों में संलग्र है जिसका असलियत, यथार्थ से दूर-दूर का वास्ता नहीं है। उनका रुख-रवैया, व्यवहार-बर्ताव, मजीठिया के बारे में उनकी जानकारी और उसके मिलने-हासिल करने को लेकर तर्क कम, कुतर्क ज्यादा करते देख-सुनकर यह कहने में शर्म आती कि ये वही प्राणी हैं जो देश-दुनिया के दुख-दर्द-मसलों-समस्याओं पर अनेकानेक भाव-भंगिमाओं को अपना-ओढक़र लिखते-व्यक्त करते हैं।
यहां तक बोल-बक जाते हैं कि पीडि़त को इंसाफ दिलाने के लिए वे आरोपी-दोषी-गुनहगार को हर हाल में सजा दिलाकर रहेंगे। आरोपी अगर प्रभावशाली-दबंग-पहुंच वाला रहा तो भी उसकी ईंट से ईंट बजा देंगे। ऐसे जज्बे कम, बड़बोलेपन से भरे मीडिया कर्मियों से गुजारिश है कि वे भ्रम-विभ्रम से बाहर निकलें और हकीकत के धरातल पर उतर कर अपने हक को ठीक से समझें और उसे हासिल करने के लिए एकजुट होकर, मिलकर जूझें, संघर्ष करें। क्योंकि आवाज उठाए, चीखे-चिल्लाए, शोर-शराबा, हंगामा किए बगैर कुछ मिलता नहीं, हासिल होता नहीं। इसलिए पत्रकार एवं गैर पत्रकार साथियों को हमारा विनम्र सुझाव-परामर्श-सलाह है कि भटकाव छोड़ें-त्यागें और मजीठिया वेज अवॉर्ड को लपक लेने का सुनहरा अवसर किसी सूरत में हाथ से जाने न दें। अन्यथा मिलेगा क्या, यह बताने की जरूरत नहीं है।
बहरहाल, इस भूमिका को संदर्भ से जोड़ते हुए मैं उस खतरे की ओर इशारा करना चाहता हूं जिसका जाल (जहां तक मैं समझता हूं) मालिकों-मैनेजमेंट की मिलीभगत से सरकार एवं श्रम विभाग ने बुना-बिछाया हुआ है। मीडिया कामगारों की ओर एक लुभावना चारा यह फेंका गया है कि मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार अपनी रिकवरी, बनती सेलरी, फिटमेंट, बकाया, अपेक्षित-अनिवार्य प्रमोशन, अन्य लाभ एवं सुविधाओं आदि का एक अनुमानित प्रारूप-खाका तैयार करके श्रम अधिकारियों को सौंपे। श्रम अधिकारी इसे अमली जामा पहनवाने के लिए अखबारी प्रबंधनों पर दबाव डालेंगे। मालिकान-मैनेजमेंट यदि आनकानी, हीला-हवाली करते हैं या देने से मना कर देते हैं तो लेबर कमिश्रर एवं उनके मातहत अधिकारी मालिकान-मैनेजमेंट को प्रॉसीक्यूट करेंगे, दंडित करेंगे। इस बारे में कई राज्यों की सरकारों ने प्रोफॉर्मा भी बनवाकर जारी कर दिए हैं। मीडिया कर्मियों से इन फार्मों को भरकर श्रम आयुक्त के कार्यालय में जमा कराने के सुझाव भी दिए गए हैं। मजीठिया के चाहतमंद और मजीठिया के लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे मीडिया कर्मियों का एक बड़ा तबका श्रम विभाग के प्रलोभन में आकर इन कवायदों में मशगूल है।
निश्चित ही, अपना हक पाने के लिए यह सब करना पूरी तरह मुनासिब है। लेकिन क्या श्रम महकमा ऐसा कर पाएगा? अभी तक की उसकी कथित कसरत से कुछ हासिल होता दिखता तो नहीं है। इसका प्रमाण इन पंक्तियों का लेखक खुद है। अपने अनेकानेक उत्पीडऩ, अपना हक, अपनी बनती सेलरी, अपना बनता बकाया, श्रम कानूनों के तहत बनने वाले एक कामगार के समस्त अधिकारों-फायदों को प्राप्त करने के लिए असिस्टेंट लेबर कमिश्रर से लेकर लेबर इंस्पेक्टरों तक के कितने चक्कर काट लिए, पर उनसे आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला है। मिलने पर इन अफसरों का एक ही सुर सुनने को मिलता है कि मैनेजमेंट को नोटिस भेज दिए हैं, उनके जवाब का इंतजार है। अपना रुख थोड़ा कड़ा करने पर इन अफसरों का अगला जवाब होता है कि नोटिस का जवाब नहीं देते तो हम उन्हें प्रॉसीक्यूट करेंगे, दंडित करेंगे।
हमारे सरीखे मीडिया कामगारों के समक्ष श्रम अफसरों का यह भीगी बिल्लीपना केवल और केवल सर्वोच्च न्यायालय के सख्त आदेश की वजह से है। अन्यथा श्रम विभाग और श्रम न्यायालयों का रवैया कितना श्रमिक पक्षीय है यह किसी से छिपा नहीं है। चंडीगढ़ के अलावा यही या इससे मिलता-जुलता हाल कर्नाटक, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश आदि का है। छत्तीसगढ़ की राजधानी में श्रम अफसर एवं उनका मातहत स्टाफ बड़ी मासूमियत से कहता है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश की प्रति नहीं मिली है जिसमें मीडिया कर्मियों की परेशानियों, दिक्कतों, मैनेजमेंट की प्रताडऩा, मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के हिसाब से बनती सेलरी, बकाया एवं अन्य लाभ दिलाने की बाबत उन्हें (लेबर कमिश्रर, डिप्टी लेबर कमिश्रर, असिस्टेंट लेबर कमिश्रर) और संबंधित प्रदेश के मुख्य सचिव को अधिकृत एवं जवाबदेह बनाया गया है। लेकिन आलम ये है कि लेबर डिपार्टमेंट के अफसर एवं कर्मचारी सुप्रीम कोर्ट के फंदे से बचने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाने का दिखावा मात्र कर रहे हैं। यों कहें कि वे जो भी कर रहे हैं वह ड्रामेबाजी-प्रहसन-छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है।
उत्तर प्रदेश के माननीय-आदरणीय श्रम अधिकारियों का आचरण-व्यवहार मजीठिया चाहने वाले मीडिया कर्मियों के प्रति इतना उपेक्षापूर्ण, अपमानजनक है कि पूछिए मत। उनका रवैया किसी भी स्वाभिमानी को गुस्से-आक्रोश से भर देगा। लेकिन खून के घूंट पीने के अलावा अन्य कोई रास्ता, उपाय सूझता नहीं। हां, कभी-कभी उनका गला घोंट देने का खयाल जरूर आता है। पर यह कोई विकल्प नहीं है। बहरहाल, यूपी के कानपुर स्थित लेबर कमिश्रर और लखनऊ स्थित डिप्टी लेबर कमिश्रर एवं उनके मातहत अन्य अधिकारियों-कर्मचारियों के उपेक्षापूर्ण, बदमाशी भरे बर्ताव से आजिज होकर इंडियन एक्सप्रेस समेत कई अखबारों के कर्मचारियों ने अपनी विपदा एवं श्रम महकमे की बदमाशी सीधे प्रदेश के चीफ सेके्रटरी को लिख भेजी है।
कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में भी कुछ मीडिया कर्मचारियों ने श्रम अधिकारियों-कर्मचारियों के टालू-चलताऊ रवैए से परेशान होकर, लेबर कमिश्रर आफिस के चक्करों से बेहाल होकर कर्नाटक के चीफ सेक्रेटरी के दर पर दस्तक दे दी है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में साफ एवं कड़े शब्दों में लिखा है कि जिन राज्यों से मीडिया प्रतिष्ठानों में कार्यरत कर्मचारियों की दशा, प्रताडऩा, सेलरी-वेज की स्थिति, कार्य दशा-दिशा, मिलने-प्राप्त होने वाले लाभों आदि के बारे में पूरी पड़तालिया स्टेटस रिपोर्ट निर्धारित तिथि या उससे पहले सुप्रीम कोर्ट को नहीं मिल जाती तो संबंधित प्रदेशों के मुख्य सचिव मजीठिया कंटेम्प्ट केसों की फाइनल हियरिंग तिथि पर व्यक्तिगत रूप से हाजिर हों और बताएं कि स्टेटस रिपोर्ट उन्होंने क्यों नहीं भेजी?
साफ है कि सर्वोच्च अदालत ने प्रदेश में नौकरशाही के सबसे बड़े ओहदेदार को जवाबदेह बनाया है। ऐसे में वे मीडिया कर्मी जो लेबर कमिश्रर कार्यालय का चक्कर काट-काटकर तंग आ चुके हैं, चीफ सेक्रेटरी तक अपनी विपदा सीधे पहुंचा सकते हैं। हालांकि इसकी कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं की गई है। फिर भी मेरे सरीखे चक्करकाटुओं का यह विनम्र सुझाव है कि ई-मेल, स्पीड पोस्ट, कोरियर आदि के जरिए अपनी समस्याओं को सर्वोच्च ओहदेदार को प्रेषित करें और उनसे इंसाफ दिलाने में मदद की गुहार करें। साथ ही लेबर कमिश्रर एवं उनके सहयोगी अधिकारियों की करतूतों-कारनामों, ढिठाई-उदासीनता, बहानेबाजी के पुलिंदों को भी उनके समक्ष प्रेषित-प्रस्तुत करने की कोशिश करें। मुख्य सचिव से मिलने का अवसर मिल जाए तो और अच्छा।
सार-संक्षेप ये कि फाइनल हियरिंग में एक माह शेष रह गया है, पर श्रम अधिकारियों का मीडिया श्रमिकों से छलावा करने, चकमा देने का सिलसिला खत्म नहीं हो रहा है। ऐसे में जवाबदेही के लिए नियत किए गए चीफ सेक्रेटरी तक अपना विपदा पहुंचाने में हर्ज ही क्या है? उन्हें भी आजमा लेने में बुराई ही क्या है? चीफ सेक्रेटरीज भी जवाब देने, अपनी सूरत दिखाने में लुकाछिपी खेलते हैं तो उनकी खबर लेने की मियाद सर्वोच्च न्यायालय ने तय कर रखी ही है! क्यों ठीक कह रहा हूं न?
भूपेंद्र प्रतिबद्ध
चंडीगढ़
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