आगरा के निवासी वरिष्ठ पत्रकार, रंगकर्मी और सोशल एक्टिविस्ट अनिल शुक्ल ने अपनी पूरी कहानी सिलसिलेवार ढंग से फेसबुक पर बयां की है. किडनी की गंभीर बीमारी से जूझ रहे अनिल शुक्ला ने डायलिसिस कराने के डाक्टर के निर्देश को कुबूल करने के साथ साथ नेचरोपैथी भी शुरू कर दी ताकि आने वाले दिनों में डायलिसिस से मुक्ति मिल सके. नतीजे चमत्कारी निकले. उनने नेचरोपैथी को जैसा समझा, उसे बहुत ही खूबसूरत तरीके से समझाया है. ज्यादातर बीमारियों का इलाज नेचरोपैथी के जरिए किया जा सकता है. नेचरोपैथी में दरअसल खानपान नियंत्रित करके ही बीमार को चंगा कर दिया जाता है. ये पोस्ट उन सबके पढ़ने के लिए है जो किसी न किसी समस्या से जूझ रहे हैं. –एडिटर, भड़ास
Anil Shukla-
नेचरोपैथी की शरण में एक बार फिर (1) : दिल्ली के ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ के न्यू ओपीडी बिल्डिंग की चौथी मंज़िल का कमरा नम्बर 408। अपने डॉक्टर के सामने बैठकर कोरोना सुरक्षा में लगे पारदर्शी प्लास्टिक के परदे के उस पार से उनका बयान सुना-”डायलिसिस!” ………… बस मेरे पॉंवों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी।
मेरा स्वास्थ्य फिर गड़बड़ा गया है ज़ोर शोर से। जब किसी किडनी मरीज का सीरम क्रिटनिन 13 अंक को पार कर जाय और ब्लड यूरिया 200 की सीमा लांघ जाय तो चिकित्सा विधा के किसी भी महकमें के लिए ख़तरे की ज़बरदस्त घंटी का बज जाना होता है। 11 नवम्बर 2021को जब मैंने अपने 3 साल पुराने फिज़ीशियन और ‘एम्स’ के नेफ्रोलॉजी (गुर्दा विज्ञान) विभाग के प्रमुख प्रो० एसके० अग्रवाल को अपनी रिपोर्ट दिखाई तो उनकी भौंहें सिकुड़ गयीं। उन्होंने मेरे पर्चे पर कुछ लिखा और फिर मेरी तरफ देख कर कहा- “आपको डायलिसिस करवानी होगी। हफ़्ते में 3 बार!” डायलिसिस उपकरण के कनेक्शन जोड़ने के लिए हाथ में ‘फेशुला’ कटवाने के लिए उन्होंने ‘एम्स’ के सर्जरी विभाग के डॉ० मंजुनाथ को मेरा केस ‘रेफर’ कर दिया। अगले दिन डॉ० मंजुनाथ के ओपीडी से मुझे 1 सप्ताह बाद की तारीख़ मिली। मैंने उनके जूनियर रेज़िडेंट से पूछा कि मुझे डायलिसिस आगरा में रह कर करवानी है तो क्या मैं ‘फेशला’ की सर्जरी भी वहीँ करवा लूं? उन्होंने जवाब में कहा कि ऐसा कर सकते हैं लेकिन यहाँ करवाएं तो बेहतर होगा।
मेरे परिजनों ने मेरे पुराने नैचरोपैथ भागलपुर के डॉ० जेता सिंह से संपर्क साधा। सन 2012 में पहली बार मुझे ‘एम्स’ में ही बताया गया था कि मेरे दोनों गुर्दे 75 फीसदी सिकुड़ गए हैं। मेडिकल भाषा में इसे ‘क्रॉनिक किडनी डिसीज़’ (सीकेडी) कहते हैं। वे सचमुच मेरे और मेर परिवार के लिए बड़े निराशा भरे दिन थे। किसी भी मुख्यधारा चिकित्सा पद्धति में ‘क्रॉनिक किडनी बीमारी’ का कोई निदान नहीं! मुख्यधारा की चिकित्सा विधा इसे एक सीमा तक नियंत्रित करने की कोशिश करती है। मैंने इंटरनेट पर किडनी की वैकल्पिक चिकित्सा के ‘ग्लोबल’ परिदृश्य को खंगाला। 2 पद्धतियों की जानकारी मिली। चीन में वे अपनी सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरागत चिकित्सा पद्धति में सब्ज़ियां खिलाकर न जाने कैसे किडनी का इलाज करते हैं और यह वहां सफलता की एक बड़ी कहानी है। जो दूसरी वैकल्पिक पद्धति यूरोप और अमेरिका में पिछली एक सदी में क़ामयाब हुई है वह है ‘नेचुरोपैथी’ याकि प्राकृतिक चिकित्सा।
‘नेचरोपैथी तो भारत में भी उपलब्ध है?’ मैंने सोचा। बहुत सी खोज बीन के बाद पता चला कि देश में कुछ ही प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र ऐसे हैं जो ‘क्रॉनिक’ बीमारियों का इलाज करते हैं। दिल्ली के पत्रकार मित्र कृष्ण मोहन सिंह के माध्यम से भागलपुर के डॉ० जेता सिंह और उनके ‘तपोवर्द्धन प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र’ का पता चला। इत्तफ़ाक़ से उन्हीं दिनों डॉ० जेता सिंह दिल्ली के भ्रमण पर थे। उनसे मुलाक़ात हुई। उन्होंने मेरी सारी रिपोर्ट जांची। रिपोर्ट देख कर वह बड़े उल्लास में भर गए। “आप ठीक हो जायेंगे !” उन्होंने ताल ठोंक कर मुझसे कहा और अपने भागलपुर स्थित केंद्र पर आने की दावत दी।
उनकी बातचीत से मुझे भरोसा हुआ, मनीषा को भी। मेरे दोनों बेटे लेकिन ‘एम्स’ जैसे लब्ध प्रतिष्ठित संस्थान को छोड़कर भागलपुर में “झक मरने” जाने की राय के बिलकुल ख़िलाफ़ थे। बेटों की राय के बरख़िलाफ़ 10 जुलाई 2012 को हम दोनों पति पत्नी भागलपुर रवाना हो गए। मैं लगभग 3 महीने भागलपुर के ‘तपोवर्द्धन चिकित्सा केंद्र’ में रुका। प्राकृतिक चिकित्सा के उनके 5 मेडिकल टूल हैं जिसके जरिये वे इलाज करते हैं। ये टूल पानी, हवा, मिटटी, तापमान और नियंत्रित आहार हैं। 3 महीने बाद मैं बिलकुल ठीक होकर आगरा लौटा। डॉ जेता सिंह ने मेरे भीतर यह बात कूट-कूट कर भर दी कि प्राकृतिक चिकित्सा सिर्फ एक नियंत्रित जीवन पद्धति है, और कुछ नहीं। “आप यदि इसका आचरण करते रहेंगे तो स्वस्थ बने रहेंगे, यदि आचरण टूटा तो रोगग्रस्त हो जायेंगे।” वह कहा करते थे।
कैसे कुछ सालों बाद मेरी मूर्खता से मेरा संपर्क मेरे चिकित्सक से टूट गया लेकिन 2012 से 2017 तक मैं प्राकृतिक चिकित्सा का सख्ती से आचरण करता रहा और नीरोग बना रहा, कैसे अगले साल मुझे न्यूमोनाइटिस हुई, कैसे आगरा के डॉक्टर जब मेरा इलाज नहीं कर पाए तो मुझे ‘एम्स’ में भर्ती होना पड़ा और कैसे इस दौरान एंटीबायोटिक्स की हेवी डोज़ और नियंत्रित आहार का क्रम टूटने के चलते मैं न्यूमोनाइटिस से तो बरी कर हो गया लेकिन किडनी फिर दुःख दायी हो गयी यह बड़ी भयावह, डरावनी लेकिन दिलचस्प कहानी है! इसका ज़िक्र विस्तार से मैं अगली कड़ियों में करूँगा।
फिलहाल डॉ जेता सिंह से अब फिर संपर्क जुड़ गया है। वह एक बार फिर से आशावान हैं। उनका एक ही वाक्य था- “सीरियस मैटर है लेकिन घबराने की कोई बात नहीं।” मेरी सारी घबराहट उनके इस एक वाक्य से दूर हो गयी। मेरी 4 डायलिसिस हो गयी हैं। डॉ० सिंह ने भी सामानांतर अपना इलाज शुरू कर दिया है। वह कुछ समय तक ऐसा ही समानांतर इलाज चलाते रहेंगे, ऐसा उन्होंने बताया। 4 डायलिसिस के बाद उन्होंने एक सप्ताह डायलिसिस रोककर ऑब्ज़र्व करने, ब्लड टेस्ट करने और फिर डायलिसिस करवाने को कहा है। मेरा क्रिटनीन13 से घटकर 6 और ब्लड यूरिया 205 से घटकर 40 हुआ। यह डायलिसिस का असर है। सप्ताह भर में यह कुछ बढ़ेगा । कितना? वह स्टडी करना चाहते हैं। ऐसा वह कई-कई हफ़्ते करवाएंगे और किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले इस अंतर का अध्ययन करेंगे। यह उनके डायलिसिस से सम्पूर्ण नेचरोपैथी में स्विचओवर कर जाने से पहले की प्रक्रिया है।
आखिर यह नेचुरोपैथी है क्या? 5 प्राकृतिक संसाधनों से दुनिया की तमाम बीमारियों , विशेषकर असाध्य रोगों का इलाज करने वाली यह जादुई पद्धति सचमुच कौन सा जादू करती है? मेरी पूरी कहानी जानने से पहले इसे भी जान लें। सन् 1903 के बसंत की एक सुबह जब अमेरिकी वैज्ञानिक डॉ० बेनेडिक्ट लस्ट का जहाज़ वाशिंग्टन डीसी के तट पर लौटा तो उन्हें क़तई उम्मीद नहीं थी कि वह अपने हाथों अमेरिकी समाज का नितांत नया इतिहास लिख पाने में सक्षम होंगे। जर्मनी में अपने गुरू से ‘हाइड्रोथेरेपी’ का लंबा प्रशिक्षण लेने के दौरान उनके दिमाग में चिकित्सा के संसार की नई रूपरेखा उभरने लगी थी। पानी पर आधारित इस प्राचीन चिकित्सा पद्धति में मिट्टी, हवा, उष्मा जैसे अन्य प्राकृतिक तत्वों के साथ-साथ एशियाई योग चिकित्सा पद्धति और यूरोपीय बायोकैमिक को जोड़कर वह एक नई चिकित्सा पद्धति ईजाद करना चाहते थे।
नई चिकित्सा के रोगी के लिए उन्होंने एक नए ‘डायट चार्ट’ को भी खोज निकाला जिसका आधार प्रकृति थी। अपना अध्ययन पूरा करते-करते उन्होंने भानुमती के इस नए पिटारे का समूचा प्रारूप तैयार कर लिया और स्वदेश पहुँचते ही उन्होंने इसे नया नाम दिया – नेचरोपैथी (प्राकृतिक चिकित्सा)! जल्द ही उन्होंने ‘यू.एस.नेचरोपैथी एसोसिएशन’ की स्थापना कर डाली और कुछ ही समय बाद वाशिंगटन डीसी में इस चिकित्सा विधा का पहला मेडिकल काॅलेज खोलने में भी वह क़ामयाब हुए। सन् 1903 से 1930 का युग सचमुच अमेरिकी जनमानस के सिर नेचरोपैथी चढ़कर बोलने का युग था। इस दौरान उसने न सिर्फ वहां जमी-जमायी, बेहद खर्चीली ‘एलोपैथी’ चिकित्सा पद्धति की चूलें हिलाकर रख दीं बल्कि अरबों डाॅलर के फार्मास्युटिकल उद्योग की जड़ों में भी जमकर मट्ठा डाला। यूएस की तमाम अदालतों में ऐलोपैथी संगठनों और चिकित्सकों ने ‘धोखाधड़ी’ और फर्जीवाड़ा’ के अनेक विवाद दायर हुए। कुछ मामलों में अदालतों ने झटपट सजाएं भी सुना दीं लेकिन प्रकृति में उपलब्ध हवा, पानी, मिट्ठी,धूप और नियंत्रित आहार जैसे तत्वों पर आधारित इलाज की इस फोकटिया पद्धति की लोकप्रियता की लहरें अमेरिका में कम नहीं हुईं ।इतना ही नहीं, यूएस से निकलकर प्रशांत महासागर में हिलोरें मारती ये लहरें पहले यूरोप और फिर वहां से यूरोपीय उपनिवेशों से लदे अफ्रीकी और एशियाई महाद्वीपों तक जा पहुँची। भारत में इसे लोकप्रिय बनाने का प्रारंभिक श्रेय महात्मा गाँधी को जाता है। दक्षिण अफ्रीका में इसका ‘जादू’ देखकर वह हाल ही में स्वदेश लौटे थे।
( क्रमशः जारी)