रविवार की रात एनडीटीवी ने प्रतिबंधित डॉक्यूमेंट्री ‘इंडियाज़ डॉटर’ के नाम पर घंटे भर तक स्क्रीन पर सिर्फ एक जलता दीया दिखाया। इस तरह के प्रसारण पर कई लोगों का कहना था कि इसमें बलात्कार के एक दोषी को मंच दिया गया है। एक यूज़र ने ट्विटर पर लिखा कि एनडीटीवी तुम बहुत पक्षपाती हो और संदिग्ध हो। अन्य एक और ने लिखा – अगर एनडीटीवी को हमेशा के लिए बंद कर दिया जाए तो ये बहुत बड़ी मदद होगी। एक अन्य की प्रतिक्रिया थी- पहले एनडीटीवी अपने पसंद के मंत्री बनवाना चाहता था, और अब वो सरकार से अपनी मर्ज़ी के फैसले चाहता है। जनवादी लेखक संघ का कहना है कि ‘इंडिया’ज डॉटर’ पर पाबंदी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आघात है।
लेकिन इस डॉक्यूमेंट्री के सह-निर्माता पत्रकार दिबांग ने लिखा- चुप्पी बहुत कुछ बयान कर गई। स्पष्टता और बुलंदी के साथ। पत्रकार तवलीन सिंह लिखती हैं- इतने सार्थक तरीक़े से इंडियाज़ डॉटर पर प्रतिबंध का विरोध करने के लिए शाबाश एनडीटीवी। सेंसरशिप के ख़िलाफ़ एक घंटे तक कुछ नहीं। पत्रकार सुहासिनी हैदर ने लिखा- अगर सरकार डॉक्यूमेंट्री पर ख़ामोशी चाहती है, तो उसे वही मिली। जरा सावधानी बरतिए कि आप क्या चाहते हैं।
जनवादी लेखक संघ के महासचिव मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और उप महासचिव संजीव कुमार का कहना है कि ‘इंडिया’ज डॉटर’ पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया जाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गहरा आघात है। जनवादी लेखक संघ इसकी कड़े शब्दों में निंदा और मांग करता है कि इस फ़िल्म पर से अविलंब प्रतिबंध हटाया जाए। यह फ़िल्म हमारे समाज की स्त्री विरोधी मानसिकता की भयावह सच्चाई का आईना है, जिस पर प्रतिबंध के जरिए पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है।
जनवादी लेखक संघ का स्पष्ट रूप से मानना है कि यह फ़िल्म भारत की प्रतिष्ठा पर किसी तरह का आघात नहीं पहुंचाती बल्कि इस पर पाबंदी ने भारतीय प्रतिष्ठा को गहरा नुकसान पहुंचाया है। मुकेश सिंह का बयान उस पुरुष मानसिकता को व्यक्त करता है जिसे हम आये दिन देखते सुनते हैं, जो निर्लज्जतापूर्वक बलात्कार जैसे जघन्य कांड के लिए स्त्रियों के पहनावे और उनके व्यवहार को ही दोषी ठहराते हैं। संघ परिवार से जुड़े नेता और साधु-साध्वियां ऐसे बयान देने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। यह फ़िल्म मुकेश सिंह और बचाव पक्ष के वकीलों के बयानों को महिमामंडित नहीं करती वरन उनके बयानों के जरिए हम अपने देश में स्त्री विरोधी पुरुष मानसिकता की व्यापक स्वीकृति के भयावह सच से रुबरु होते हैं। यही मानसिकता इस प्रतिबंध के पीछे भी काम कर रही है जो समझती है कि इस तरह की फ़िल्मों को लोगों तक पहुंचने से रोककर भारत में स्त्रियों की वास्तविक दशा के बारे में दुनिया को भुलावे में रखा जा सकेगा। जनवादी लेखक संघ का मानना है कि जब तक हम समाज की इस भयावह सच्चाई को स्वीकार कर उसे बदलने के लिए संघर्ष नहीं करते, तब तक न जाने कितनी निर्भयाओं को इस मानसिकता के आगे अपना बलिदान देना पड़ेगा।