अदाणी ही नहीं नरेन्द्र तोमर से लेकर पीएम केयर्स तक के धन और मायावती के उदाहरण को भूलकर कांग्रेस सांसद और व्यावसायी के 350 करोड़ को मुद्दा बनाने की हर जुगत चल रही है
संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों में कोई खास खबर नहीं है। विष्णुदेव साई मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, मायावती ने भतीजे को उत्तराधिकारी बनाया, करणी सेना के नेता की हत्या में दो गिरफ्तार और हत्या से संबंधित अटकलों आदि के साथ कांग्रेस सांसद के ठिकानों पर बरामद राशि 350 करोड़ हुई जैसी खबर इंडियन एक्सप्रेस में भी है। हालांकि यहां यह खबर है कि गिनती पूरी हुई। नवोदय टाइम्स ने तो इसे तीन कॉलम के शीर्षक, काली कमाई पर छिड़ी सियासी लड़ाई शीर्षक से छापा है। मैं नहीं जानता पीएम केयर्स के नाम पर चंदा वसूलने वाली पार्टी इस कारोबारी धन पर कैसी सियासी लड़ाई लड़ सकती है और लड़े तो नैतिक रूप से कितनी मजबूत होगी। मीडिया के पक्षपात की बात अलग है। आज जिन अखबारों में विज्ञापन कम है वहां इंडिया गठबंधन की बैठक अब 19 को दिल्ली में जैसी खबरें भी हैं। पर इन लिजलिजी और रूटीन की खबरों में भी ‘चिकित्सकों ने लोगो में धर्म का विरोध किया’ जैसी खबर पहले पन्ने पर नहीं छपी है।
अकेले द टेलीग्राफ में जीएस मुदुर की बाईलाइन वाली यह खबर और दूसरी खबरें छापी हैं जिनकी चर्चा आगे है। इस खबर के अनुसार, डॉक्टरों के एक वर्ग ने चिकित्सा की हिंदू देवी धन्वंतरी को भारत के शीर्ष चिकित्सा नियामक प्राधिकरण के लोगो में शामिल करने की आलोचना की है। इस तरह एक धर्म विशेष से जुड़ी तस्वीर के उपयोग पर सवाल उठाया गया है। वैसे तो यह खबर इधर कुछ दिनों से चल रही है और हाल में मेरे अखबारों में से किसी में पहले पन्ने पर थी। लेकिन विरोध की बात और है तथा उसका पहले पन्ने पर होना ज्यादा जरूरी है। खासकर तब जब कोई दूसरी महत्वपूर्ण खबर नहीं थी। खबर है, चिकित्सकों की देश की सबसे बड़ी संस्था, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने नेशनल मेडिकल कमीशन से अपने लोगो को संशोधित करने के लिए कहा है। ऐसा कहते हुए इस बात पर जोर दिया गया है कि चिकित्सा के पेशे को “धर्म-तटस्थ” होना चाहिए। इनमें इसके नियामक और वैधानिक संस्थान शामिल हैं।
आईएमए ने अपने नेशनल प्रेसिडेंट, शरद अग्रवाल और राष्ट्रीय सचिव अनिल नायक के दस्तखत वाले एक बयान में कहा है, “एनएमसी का नया लोगो चिकित्सक के रूप में हमारे बुनियादी मूल्यों के खिलाफ है।” आईएमए ने आगे कहा है, “यह चिकित्सकों की शपथ और कर्तव्य, जो किसी विशेष धर्म के प्रति नहीं है, के अनुरूप नहीं है। ऐसा लोगो एनएमसी जैसी संस्था की गरिमा और मर्यादा के लिहाज से भी असंगत है।” एनएमसी या नेशनल मेडिकल कमीशन, मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) की जगह लेने के लिए 2020 में स्थापित चिकित्सा शिक्षा और मेडिकल प्रैक्टिस के लिए एक नियामक निकाय है। इसके एक सदस्य ने कहा कि आयोग ने सार्वजनिक परामर्श की प्रक्रिया के बाद नया लोगो अपनाया है।
एनएमसी की एथिक्स और चिकित्सा पंजीकरण बोर्ड के सदस्य योगेंदर मलिक ने कहा, एमसीआई का लोगो ग्रीक धार्मिक छवि को प्रदर्शित करता था और भारत में दशकों से इसका इस्तेमाल किया जाता था। मलिक ने कहा, “हमें लगा कि एक नए लोगो की आवश्यकता है। व्यापक सार्वजनिक परामर्श के बाद, एनएमसी ने इस लोगो को पारित कर दिया… हमने धन्वंतरि की छवि को रंगीन करने का भी फैसला किया ताकि छपे तो यह स्पष्ट रूप से दिखाई दे और अच्छा दिखे।” उन्होंने कहा कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि तस्वीर पर विवाद क्यों है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस लोगो में धन्वंतरि देवी की तस्वीर के साथ भारत अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में लिखा गया है। यह अंग्रेजी में इंडिया लिखने के प्रचलन का उल्लंघन तो है ही तमाम भारतीय भाषाओं (और धर्मों) की भी उपेक्षा है जो खबर का भाग नहीं है।
खबर के अनुसार, आईएमए ने कहा कि उसे नए एनएमसी लोगो पर अपनी “कड़ी आपत्ति और अस्वीकृति” व्यक्त करने के लिए मजबूर किया गया है। यह “हमारे बुनियादी लोकाचार और हमारे महान राष्ट्र द्वारा सदियों से चलाये जा रहे मूल्यों के विपरीत है”। आईएमए ने आगे कहा, “किसी भी राष्ट्रीय संस्थान के लोगो को हमारे सभी नागरिकों की आकांक्षाओं को समान तरीके से और सभी मामलों में तटस्थ रहकर प्रदर्शित करना चाहिए, जिससे समाज के किसी भी हिस्से या वर्ग के किसी भी तरह से नाराज होने की आशंका समाप्त हो जाए।” कहने की जरूरत नहीं है कि यह मामला भले सरकार के खिलाफ हो पर सरकार का सार्वजनिक विरोध भी है। इसे नहीं छापकर अखबारों ने चिकित्सकों की मांग और विरोध को कमजोर किया है सरकारी कार्रवाई का समर्थन भी। जो मीडिया का काम नहीं है।
अखबारों में सरकार विरोधी यह मामूली सी खबर पहले पन्ने पर नहीं है लेकिन कांग्रेस सांसद के घर में नकद मिलने की खबर का सरकारी प्रचार या उसकी खबर प्रमुखता से है। इसमें मामला यह है कि घपला हो या भ्रष्टाचार, एक ऐसे व्यक्ति से संबंधित है जो सत्ता में नहीं है, किसी कमाऊ पद पर नहीं है और विपक्षी दल का सांसद है। ऐसा व्यक्ति कोशिश करके भी उतना नहीं कमा सकता है जितना अनैतिक और अनुचित पीएम केयर्स में पड़ी धन राशि ब्याज में सार्वजनिक तौर पर कमा रही है। वैसे भी, नकद धन हमेशा अवैध नहीं होता है। जब सरकार जांच कर ही रही है तो यह जांच पूरी होने तक खबर भले है, बहुत बड़ी बात नहीं है। आप जानते हैं कि पीएम केयर्स कोविड के दौरान जनता की सहायता के लिए बना था। अंतिम उपलब्ध सूचना के अनुसार 11.01.2022 को इसमें 70,13,99,98,196 रुपये थे। इससे पहले के वित्त वर्ष की राशि थी, 30,76,62,56,047 और बाकी की राशि एक वर्ष में इकट्ठी हुई और खर्चों के बाद बढ़ी है। मोटे तौर पर आप इसे 3077 करोड़ और 7014 करोड़ मान सकते हैं और कैसे इकट्ठा हुई है, सबको मालूम है। खबर है कि इसमें 2913 करोड़ रुपये सरकारी फर्मों ने दिये हैं जो सीएसआर के पैसे भी हों तो दूसरे सार्वजनिक काम रोक कर दिये गये हैं जिसका राजनीतिक उपयोग और लाभ हो सकता है। यह तथ्य है कि पीएम केयर्स में इतना पैसा रहते हुए कई लोग बिना इलाज कोविड से मर गये, कइयों को कोई मुआवजा नहीं मिला और अभी भी लोग कोविड की पीड़ा झेल रहे हैं, मर रहे हैं।
इस सूचना के बावजूद कि सत्तारूढ़ दल को दान और चंदे के रूप में भारी राशि मिल रही है और जनहित के काम करने वाले तमाम गैर सरकारी संगठनों को विदेशी चंदा / दान लेने से रोक दिया गया है। दूसरी ओर, सार्वजनिक तौर पर कहा जा चुका है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और उनके पदनाम से चलने वाला यह ट्रस्ट सरकारी नहीं है, आरटीआई के तहत नहीं है, कोविड लगभग खत्म हो चुका है और इसके पैसे से जो वेंटीलेटर खरीदे गये खराब थे, काम नहीं आये। यह फंड प्रधानमंत्री राहत कोष के अलावा है। इसके ट्रस्टी कई केंद्रीय मंत्री हैं और पैसे देने लेने के लिए दबाव नहीं भी डाला जाये तो इनके नाम से और पद के दबाव में चंदा आया होगा। जब कोविड के लिये पैसा लिया गया है तो बचा रहना स्वाभाविक है लेकिन राशि इतनी ज्यादा क्यों है? अगर इतनी बड़ी राशि इस तरह एकत्र करके पड़े रहना ठीक है तो 300 करोड़ रुपये की क्या बिसात? वैसे भी, मायावती का मामला सार्वजनिक है जिसमें उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला खारिज किया जा चुका है और यह स्वीकार किया गया है कि वह पैसा उनके समर्थकों ने दिया था।
हमेशा की तरह आज भी द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर कई तस्वीरें हैं जो दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं हैं और इसका एक कारण यह हो सकता है कि ये सरकार विरोधी है। इनमें एक खबर (सिंगल कॉलम) का शीर्षक है, सेल्फी प्वाइंट्स के बाद प्रधानमंत्री के भाषण पर यूजीसी की तानाशाही। यही नहीं, द टेलीग्राफ ने आज अपनी एक खबर से बताया है कि कल यानी इतवार, 10 दिसंबर 2023 को यूनिवर्सल डिकलरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स की 75वीं सालगिरह (अमृत महोत्सव याद है?) थी। सरकार तथा भाजपा ने दुनिया भर में मनाये जाने वाले मानावधिकार दिवस की उपेक्षा की। इसके बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने जाति और धर्म से अलग हरेक नागरिक के अधिकारों के महत्व पर जोर दिया और कहा कि गरीबी व बढ़ते अपराध के कारण लोगों की सुरक्षा खतरे में है। आज यह खबर भी दूसरे कई अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है।
केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल जब एक कांग्रेस सांसद और कारोबारी के ठिकानों से बरामद 300 करोड़ की नकदी को मुद्दा बनाने की कोशिश में हैं तो एक तथ्य यह भी है कि केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल को उसका 1.15 लाख करोड़ रुपया नहीं दिया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस संबंध में प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा है और राज्य में एक रैली में कहा है कि हमें हमारा पैसा नहीं दे सकते तो पद छोड़िये। एक रैली में उन्होंने कहा, हमारा पैसे दीजिये नहीं तो गद्दी छोड़िये, हमारा पैसा दीजिये नहीं तो बिदाई लीजिये। द टेलीग्राफ ने आज इस खबर को भी पहले पन्ने पर छापा है। कहा जा सकता है कि बंगाल की इस खबर को कोलकाता से छपने वाले द टेलीग्राफ ने भले पहले पन्ने पर छापा है दिल्ली के लिए यह पहले पन्ने की खबर नहीं है। लेकिन तथ्य यह भी है कि आज दिल्ली के अखबारों में जब रूटीन खबरें ही हैं तब एंटायर पॉलिटिकल साइंस के लिहाज से महत्वपूर्ण यह खबर पहले पन्ने पर हो सकती थी या आज भी नहीं है।
dilip singh
December 11, 2023 at 7:18 pm
say mp nhi cg ke cm sir