Om Thanvi : दुश्मनों के पेट में फिर बल पड़ गए। कहते हैं, महाकवि बिहारी के नाम पर दिया जाने वाला केके बिड़ला फाउंडेशन का पुरस्कार मैंने कल्याण सिंह के हाथों क्यों ले लिया? अगर मुझे चुनाव की सुविधा होती तो आयोजकों से कहता किसी लेखक के हाथों दिलवाइए। इसके बावजूद, सच्चाई यह है कि पुरस्कार मैंने कल्याण सिंह के हाथों नहीं, राज्यपाल के हाथों लिया है; राज्यपाल जो संविधान की सत्ता का प्रतीक होता है, संविधान का प्रतिनिधि और कार्यपालक होने के नाते। राजभवन कल्याण सिंह या भाजपा की मिल्कियत नहीं है।
पुरस्कारों से मुझे खास खुशी नहीं होती, लेकिन एक लाख रुपये से जरूर होती है। बेरोजगारी में और ज्यादा। बिड़ला लोग कंजूस हैं जो 24 बरसों से एक लाख की राशि को जड़ रखे हुए हैं, वरना मेरी खुशी (और दुश्मनों की नाखुशी) और बढ़ी होती! मेरे लिखे की कद्र कोई भी करे – चाहे सरकार भी – इसमें मुझे क्या गिला? (कभी कोई ढंग का काम कर लेने का हक बेढंगे लोगों को भी होना चाहिए कि नहीं?)
अफसोस बस इस बात का है कि राजभवन में मैंने क्या कहा इसकी चर्चा दिलजले लोगों ने नहीं की – वे करेंगे भी क्यों? पुरस्कार ग्रहण करने के बाद मैंने देश में व्याप्त सांप्रदायिकता की बात की, उसे मिलने वाली शह की निंदा की; इस हिंसक दौर पर यह टीका मैंने दो रोज पहले कट्टरपंथियों के हमले के शिकार हुए प्रो. कुलबर्गी के कत्ल का जिक्र करते हुए की। इससे पहले राजभवन के भीतर सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ बोलने कब कौन नाशुक्रा पहुंचा होगा, मेरी किताब पर मुझे ही पुरस्कार लेने न लेने का उपदेश झाड़ने वाले जरा यह तो बता दें!
जनसत्ता के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.