निखिल कुमार-
ओमप्रकाश वाल्मीकि की जूठन को बहुत दिनों से पढ़ने की लालसा थी जो कल जाकर पूरी हुई। यह एक ऐसी किताब है जो दिमाग़ को झकझोरने का काम करती है। यह किताब उन सभी के लिए जरूरी है, जिन्हें लगता है कि देश मे आरक्षण जरूरी नही हैं या अगर आरक्षण रखना ही है तो इसका आधार आर्थिक रखिए या जिन्हें अपने सनातन होने पर गर्व है या जिन्हें लगता है कि जाति तो बीते जमाने की बात है और आज के समय मे कोई भी जाति को नही मानता है। लेकिन मुझे यकीन है कि ये लोग इसे पढ़ेंगे ही नही। आर्टिकल 15 जैसी फिल्में और जूठन जैसी किताबें सबसे ज्यादा इन्हीं लोगों को देखनी/पढ़नी चाहिए लेकिन इन्हें देखते/पढ़ते वे लोग हैं जो जातिवाद और धर्म को पंजे से निकल चुके हैं।
क़िताब को पढ़ते समय शरीर मे सिहरन पैदा हो जाती है और आश्चर्य होता है कि समाज इस घिनौनी व्यवस्था को कैसे स्वीकार कर ले रहा है लेकिन फिर इसका उत्तर भी तुरंत मिल जाता है और उत्तर है क्योंकि समाज की ऊंची जातियों को इससे फायदा है।
हालांकि ध्यान देने योग्य यह बात है लेखक ने अपने जीवन की जिस समय की घटनाओं का जिक्र किया है उस समय भारत ग़रीबी से ग्रस्त था और उस समय सामान्य किसान भी उन्हीं समस्याओं से पीड़ित था जिन समस्याओं को एक दलित भोग रहा था। एक सामान्य किसान भी उतनी ही मेहनत करता था जितनी एक दलित को करनी पड़ती थी। एक जगह लेखक लिखता है कि उनका घर मिट्टी का था तो बरसात में उस घर की छत से कई जगहों से पानी टपकने लगता था और टपकते पानी के नीचे कोई बाल्टी या बर्तन रखना पड़ते थे। यह समस्या लेखक के परिवार ने 1960 के दशक में झेलनी पड़ी थी और हमें 1990 के दशक में। किताब पढ़ते समय यही लग रहा था जैसे हमारे परिवार की ही यह कहानी है। कहीं भी जाकर देख लो, आपको गरीबों की एक सी समस्याएं मिलेंगी। और इन समस्याओं से निजात तभी पाई जा सकती है जब गरीबी अपना दामन छोड़े।
एक सामान्य किसान और एक दलित में सिर्फ जाति का अंतर है। ग़रीबी से निजात पाई जा सकती है लेकिन जाति से नही। लेखक कई जगह लिखता भी है कि उसके पिता को लगता था कि शिक्षा जाति से छुटकारा दिला देगी लेकिन मैं उनका ये वहम कैसे तोड़ू? कैसे बताऊँ कि जाति एक ऐसी चीज है कि आप कितना भी पढ़ लें लेकिन आप अपनी जाति से पीछा नही छुड़ा सकते हैं। लेखक अपने जीवन के कई प्रसंग लिखता है जिनमे वो बताता है कि जब वह एक प्रतिष्ठित कम्पनी में प्रतिष्ठित पद पर आसीन है और एक प्रसिद्ध लेखक भी है लेकिन फिर भी लोगों के व्यवहार में जाति जानने के बाद परिवर्तन आ जाता है और वे किनारा कर लेते हैं।
कैसा लगता होगा अग़र आपके अंदर काबिलियत कूट-कूटकर भरी है और जो लोग आपकी विद्वानता के प्रशंसक हैं, वहीं लोग आपकी जाति जानने के बाद आपसे बात भी ना करें।
दलित घर मे पैदा होने का मतलब है कि गरीबी और अशिक्षा साथ मे मिलती हैं। दलितों के बच्चें गरीबी के कारण बीच मे ही पढ़ाई छोड़कर नौकरी करने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर हम अपने घर पर भैसों के लिए बरामदा बनवा रहे हैं। उस बरामदे को बनाने का ठेका मेरे साथ मे पढ़ने वाले एक लड़के ने लिया है। ग़रीबी के कारण उसको पढ़ाई बीच मे छोड़नी पड़ी थी। एक और दलित लड़का मुझसे भी ज्यादा पढ़ने में तेज था। मुझे लगा था कि वो अपने जीवन मे बहुत आगे जाएगा लेकिन उसको भी बीच मे ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी और आज कोई छोटी-मोटी नौकरी कर परिवार को विरासत में मिली गरीबी से लड़ने का प्रयत्न कर रहा है। उस जैसे बहुत से लड़के थे जो मेरे साथ पढ़ते थे लेकिन उन सबको बीच मे ही पढ़ाई छोड़कर जीविकोपार्जन के साधन खोजने पड़े।
पड़ोसी गाँव के दलितों के पास अपनी जमीनें नही हैं इसलिए वे अन्य किसानों की जमीनों पर मजदूरी कर अपना पेट पालते हैं। वे लोग 1-2 भैस या बकरी भी रखते हैं जिन्हें खिलाने के लिए घास लानी होती हैं। अपने खेत नही हैं तो उन्हें अन्य किसानों के खेतों में से घास काटनी पड़ती है। उस बेकार घास के लिए भी उन्हें गालियाँ सुनने को मिलती हैं। उनके पास जमीन क्यों नही हैं, शायद ही किसी ने इस बात पर सोचा हो। चुहड़े, भंगी, चमार जैसे शब्द उच्च जातियों में गाली के रूप में प्रयोग होते हैं। हमारा घर भी कोई अपवाद नही और जब मैं उन्हें ऐसा करने से टोकता हूं तो मुझे ही चमार बोल देते हैं।
एक उच्च जाति का व्यक्ति यह कह सकता है कि वह जातिवाद को बिल्कुल नही मानता है लेकिन जब भी कहीं उसकी जाति की प्रशंसा होती है तो उसका सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है, या अगर बात जान पर बन आये और उसे लगे कि अब उसकी जाति ही उसको बचा सकती है तो वह बिना पूछें अपनी जाति बता देगा। वह ऊपरी तौर पर जाति को नही मानता है लेकिन जाति से अपने को जोड़े भी रखता है। जाति का दंश दलित से पूछो, पितृसत्ता का एक महिला से, और रंगभेद का काले वर्ण के इंसान से। एक गोरे ब्राह्मण के लिए ये तीनों सामान्य बात हो सकती हैं लेकिन इन तीनों के लिए यह सामान्य नही है।
ऐसे ही एक दलित यह कह सकता है कि मैं जातिवाद और धर्म को नही मानता हूं। लेकिन बाकी समाज तो मानता है ना। उससे समय-समय पर लोग उसकी जाति पूछेंगे और अगर वह नही बतायेगा तो कहीं और से जांच-पड़ताल करके उसकी जाति निकाल ही लेंगे और फिर उसको अपने से नीचा समझेंगे। उसका जाति से कोई लेना-देना नही है लेकिन फिर भी बाकी समाज उसको सिर्फ उसकी जाति से ही जानेगा और उसे उसकी जाति के हिसाब से ही सम्मान देगा।
दंगों के समय यह देखने को मिलता है कि सिर्फ धर्म पूछकर लोग मारे जाते हैं। दंगाइयों से आप कितना ही बोल लो कि आप किसी भी धर्म को नही मानते हैं और आप नास्तिक हैं लेकिन उन्हें नास्तिकता का कांसेप्ट समझ ही नही आएगा। उनके लिए या तो आप हिन्दू नास्तिक हैं या मुस्लिम नास्तिक हैं, सिर्फ नास्तिक नही हैं। हम अपने आप को नास्तिक बोलते हैं लेकिन फिर भी सरकारी कागजों में अपना धर्म और जाति लिखते हैं। तो कहां पीछा छुड़ा पाएं हैं अपनी जाति औऱ धर्म से।
दो लोग अगर आपस मे पहली बार मिलते हैं तो बात-बात में वे एक-दूसरे की जाति जानने का प्रयत्न अवश्य करते हैं। जाति जानने के बाद वे decide करते हैं कि सामने वाले से कितनी दोस्ती करनी हैं। हमें यह लगता है कि हम जातिवाद को बिल्कुल नही मानते हैं लेकिन फिर भी हम ऐसी बहुत सी बातों को कह देते हैं जो एक दलित के लिए सामान्य नही हो सकती हैं और उन्हें बुरा लग सकता है। मैंने जाने- अनजाने में कुछ लोगों को ऐसी बातें बोली हैं जो मुझे नही बोलनी चाहिए थी। और अग़र मुझे उनसे कभी मिलने का मौका मिला तो मैं उनसे माफी मांगूंगा। मुझे नही पता कि मैं उनकी माफी का हकदार हूं भी या नही।