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सुख-दुख

आजतक में कार्यरत रहे पंकज की मौत पर वरिष्ठ पत्रकार संजय सिन्हा ने क्या लिखा, पढ़िए

संजय सिन्हा-

मुझे कुछ शहरों से बिल्कुल प्यार नहीं। पुणे उनमें से एक है। हालांकि ये पुणे वही शहर है, जहां कभी मैं बसना चाहता था। मुझे वहां का मौसम, वहां की बारिश और वहां के लोग बहुत पसंद थे। फिर मुझे उस शहर से नफरत हो गई। हालांकि मुझे बहुत बार पुणे जाना पड़ा, लेकिन यही समझिए कि मन मसोस कर।

मेरा प्यारा छोटा भाई सलिल, जब अहमदाबाद से पुणे शिफ्ट हुआ था तो हम दोनों भाइयों ने मिल कर यही तय किया था कि हम पुणे में फ्लैट खरीदेंगे, साथ रहेंगे। दिल्ली की चिल्ल-पों से दूर। हमने वहां ‘मगरपट्टा’ में फ्लैट देखा था। ‘विमान नगर’ में फ्लैट देखा था।

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लेकिन एक दिन मेरा छोटा भाई बिना किसी से कुछ कहे ऑफिस में बैठे-बैठे यमराज के प्रतिनिधियों की नज़र में आ गया। वो पता नहीं क्यों उसे अपने साथ बिना किसी पूर्व सूचना के, बिना किसी तरह अगाह किए अपने साथ ले गए। चालीस साल की उम्र दुनिया से जाने की नहीं होती है। चालीस साल से कम की उम्र में मैंने सिर्फ फौज से लोगों को रिटायर होते देखा और सुना है। पर मेरा भाई अचानक दुनिया से रिटायर हो गया। वो चला गया। हृदयघात बहाना बना।

मैं पुणे गया था। दिल्ली से पुणे मैं उस दिन कैसे गया था, मुझे याद नहीं। पुणे मैं गया था। वहां उस दिन मेरा सहारा बना था Pankaj P Khelkar। उससे मेरा रिश्ता क्या था? सिर्फ इतना कि मैं आजतक न्यूज चैनल में संपादक था, वो वहां आजतक का रिपोर्टर। नहीं, सिर्फ रिपोर्टर कहना उसकी तौहीन होगी।

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उस दिन वो पूरा दिन मेरे साथ खड़ा था। मुझे नहीं पता था कि मेरे भाई के शव का कब पोस्टमार्टम हुआ। कैसे श्मशान घाट पहुंचा। पंकज हर क्षण साथ था। लगातार। “संजय सर, ये दुनिया है। यहां यही होता है। अच्छे लोगों की ईश्वर को भी ज़रूरत होती है।” ये उसके शब्द उस दिन मेरे लिए हौसला थे। आज शोक।

फिर मैं जितनी बार पुणे गया, मुझे नहीं याद कि पंकज कब मुझसे मिलने नहीं आया। वो हर बार आता था। वो मेरा सहारा था पुणे में। कोई काम, पंकज हाजिर। क्योंकि मेरे छोटे भाई का परिवार पुणे में था, तो मैं दूर दिल्ली में बैठ कर भी पंकज की नज़रों से परिवार का कुशल क्षेम पूछ लिया करता था। कोई समस्या, पंकज हाजिर। कल पता चला कि पुणे में यमराज के प्रतिनिधियों की नज़र पंकज पर पड़ गई। दिल का दौरा पड़ा, पंकज नहीं रहा। मेरे साथी प्रणव रावल ने मुझे जब ये जानकारी दी मैं हतप्रभ रह गया। मुंह से इतना ही निकला, “एक नस, टस से मस और बस।” और बस?

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क्या जीवन इतना ही है। पचास साल में अलविदा? बिना किसी पूर्व सूचना और तैयारी के?

आप पंकज को नहीं जानते होंगे। लेकिन पंकज आप लोगों को जानता था। कहता था कि संजय, जी कभी पुणे में अपने ssfbFamily के सदस्यों का मिलन समारोह कराइएगा। वो मेरी पोस्ट पढ़ता था। एक-एक को नाम से पहचानता था। मुझे बताता था कि संजय सर, ये आपको बहुत प्यार करता है। ये आपको चिकोटी काटता है। आप पत्रकारों को पहचानते हैं, उन्हें जिन्हें रोज टीवी पर देखते हैं। उन्हें नहीं, जो नींव में छिपे होते हैं। जो शुद्ध पत्रकार होते हैं। हालांकि पंकज को लोग पुणे में जानते थे। जानते देश भर में थे, इसलिए नहीं कि आजतक का रिपोर्टर था, इसलिए कि वो सभी के लिए बहुत मददगार था। इसलिए कि वो सभी का एक विनम्र दोस्त था। वो पुणे में ‘आजतक’ था। आजतक पुणे में ‘पंकज’ था।

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वो दिल्ली आता था, मीटिंग वगैरह में तो ऑफिस में मेरे पास आता। शाम को क्या प्रोग्राम है बॉस? डिनर साथ में?

‘आजतक’ में अपने 16 साल के कार्यकाल में मैं जिन कुछ लोगों के बहुत करीब आया, पंकज उनमें से एक था। आम तौर पर मैं ऑफिस और घर के बीच दूरी रखता था, लेकिन पंकज घर में शामिल था। उसके नहीं होने की खबर सुन कर मेरी पत्नी भी खामोश हो गई थी। “संजय, क्या सचमुच भगवान…”

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आप परेशान मत होइगा। मत सोचिएगा कि संजय सिन्हा ने आज की सुबह कहानी नहीं सुना कर एक अनजान शख्स को बयां कर दिया। क्यों? पंकज के माध्यम से ही सही, संजय सिन्हा हर बार ये कहना चाहते हैं कि ज़िंदगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना?

ज़िंदगी सिर्फ एक सफर है। इसे जितना संभव हो सुहाना बनाइए। मत फंसिए। जब तक हैं, खुश रहिए। यात्रा में खुशी ही सर्वोच्च है। संतोष सर्वोच्च है। अलविदा दोस्त। तुम जहां रहोगे, खुशियों का संसार बसाओगे।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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