रवीश कुमार-
अगर ख़बर नौ बजे आने के कारण अमर उजाला ने पेज 9 पर छापा है तो वही ख़बर देर से आने के कारण भास्कर ने पहले पेज पर छापा है।
आप दोनों अख़बारों की ख़बर में दी गई जानकारी को देखें। फिर तय करें कि अख़बारों और चैनलों के इस्तमाल से कैसे पहले एक पाठक और फिर एक नागरिक की हत्या की जा रही है।
मीडिया भारत में मुर्दा लोकतंत्र चाहता है।
भास्कर और उजाला के पास लोगों की कमी नहीं है। फिर भी उजाला ने पाठकों को अंधेरे में रखा और भास्कर ने अंधेरे से निकालने का काम किया।
मैं केवल इस खबर की बात कर रहा हूँ।
हिन्दी प्रदेश के नौजवान एक दिन जब पूरी तरह बर्बाद कर दिए जाएँगे तब शायद कुछ नौजवानों को होश आएगा कि पता किया जाए कि उनकी बर्बादी की वजहें क्या रहीं। उन्हें पता चलेगा कि जिन हिन्दी अख़बारों को उनके घरों में दशकों से पढ़ा जाता है उनके कारण भी बर्बाद हुए।
ख़बरों को जस का तस रख देने की आड़ में सरकार का क्या एजेंडा चल रहा है, तब उन्हें समझ आने लगेगा कि हिन्दी के अख़बार हिन्दी के पाठकों को सूचना के नाम पर उसी हद तक सूचित करना चाहते थे जिससे उनके बीच न सूचना की समझ बने और न ही सूचना को अभिव्यक्त करने की भाषा बने। एक ढीला-ढाला नागरिक तैयार हो। हिन्दी चैनलों की तरह हिन्दी अख़बारों का कम मूल्यांकन या विश्लेषण होता है।
उदाहरण के लिए आज के अमर उजाला अख़बार में सरकारों द्वारा पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं के फ़ोन की जासूसी का पर्दाफ़ाश करने वाली ख़बर पेज 9 पर है। अगर यह ख़बर देर से आने के कारण यह भीतर के पन्ने पर छोटी और मामूली ख़बर के रूप में लगी है तो कोई बात नहीं। एक दिन और देखा जा सकता है कि अगले दिन इस खबर को किस जगह पर लगाई जाती है जिससे पाठकों का ध्यान जाए।
यही नहीं उस ख़बर के भीतर की एक एक लाइन ध्यान से देखिएगा। इस तरह से ख़बर लिखी जाएगी जैसे कोई ख़बर ही न हो। फ़िलहाल अमर उजाला को अपना नाम अमर अंधेरा रख लेना चाहिए। सरकार को कितनी राहत मिली होगी।
हिन्दी प्रदेशों को युवाओं को सत्यानाश मुबारक। आप हैं तो असाधारण लेकिन आपको साधारण बनाने के लिए कितनी शक्तियाँ काम कर रही हैं उसका आपको अंदाज़ा नहीं है।
आप देख सकते हैं कि अमर उजाला ने अपने पाठकों को अमर अंधेरा में रखने के लिए कितनी मेहनत से पेगसस की ख़बर को पेज 9 पर छुपाई है।
यह सही है कि पेगसस जासूसी कांड की ख़बर को पेज नंबर 9 पर नीचे सिंगल कॉलम में छापने के कारण अमर अंधेरा कहा है लेकिन इसी अख़बार में एक पत्रकार हैं परीक्षित निर्भय। परीक्षित कोरोना को लेकर अच्छी ख़बरें कर रहे हैं।
पूरे अख़बार में परीक्षित की ही ख़बर स्तरीय होती है। आज जो उन्होंने ख़बर की है क़ायदे से उसे पहले पन्ने पर होना चाहिए था। जिस दवा को सरकार ने कोरोना के इलाज की गाइडलाइन से हटा दिया है उसे अब राज्यों पर थोपा जा रहा है। कहा जा रहा है कि स्टॉक ले जाएँ और स्वास्थ्यकर्मियों को दे दें। अगर ऐसा है तो यह क्रिमिनल है। अख़बार को पहले पन्ने पर लगा कर सवाल करना था।
जैसा कि मैंने कहा है कि अमर उजाला एक डरा हुआ अख़बार है। वह छप तो जाता है मगर दिखना नहीं चाहता। इस तरह से लिखना नहीं चाहता जिससे कि पाठक की नज़र पड़ जाए। इस तरह से छापता है जिससे सरकार की नज़र न पड़े ।
Comments on “रवीश ने ‘अमर उजाला’ का नया नाम रखा- ‘अमर अंधेरा’, बोले- यह डरा हुआ अख़बार है!”
स्तरीय खबरें अब यहाँ छापना बंद है। दिल्ली एनसीआर के जब जिम्मेदार अधिकारी को ही समझ नहीं है तो क्या होगा। यहाँ हिंदी प्रदेश के युवाओं को गिना नहीं जाता। अखबार में दिल्ली शहर और नोएडा शहर की खबरें और समझ देखिए तब अधिकारी का बुद्गी विवेक पता चलता है। परीक्षित वाकई बहुत अच्छा लिखते है, पर जिम्मेदार डेस्क और अधिकारी खबर की 3 तेरह कर देते हैं। प्रदेश के पेज पर फिर भी अछी लग जाती है।
भाई साहब नोएडा में बढ़िया काम करने वालों को अधिकारी टिकने नहीं देता। बात समझ में नहीं आती तो तुरंत स्थानांतरण करवा देता है। बता देता है कंपनी ने कर दिया और खुद यहाँ बैठ कर 6 साल से मलाई खा रहा है। जिसे खबरों का ज्ञान नहीं, उसे दिल्ली नोएडा जैसे जगहों का संपादक बनाया गया है। हिंदी पट्टी के खबरनवीसों वाला लक्षण और गुण नहीं है। ये तो लेमनचूस बेचने भर के लिए ठीक है अखबार बेचने के लिए नहीं। खबर से कमाई करनी आती है, खबर लिखने नहीं आती। मीठी मीठी बातें करके फसा लेता है सबको। ऐसे में अखबार में तो अंधेरा होगा ही। उचक्कों का बसेरा है।