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सुख-दुख

तो, मैं अब चला अपने गांव, सबको राम राम राम….

Yashwant Singh : कल और परसों जिला बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रहूंगा. अपने घनिष्ठ मित्र Prasoon Shukla के सम्मान समारोह में. पेड और प्रायोजित पुरस्कारों की भीड़ में जब कोई अपनी ही माटी के लोगों के हाथों अपनी ही जमीन पर सम्मानित किया जाता है तो उसका सुख सबसे अलग और अलहदा होता है. बस्ती के रहने वाले हैं प्रसून शुक्ला. शुरुआती पढ़ाई लिखाई के साथ-साथ लड़ने भिड़ने जूझने और अंतत: जीत जाने की ट्रेनिंग भी इसी धरती ने दी है.

Yashwant Singh : कल और परसों जिला बस्ती (उत्तर प्रदेश) में रहूंगा. अपने घनिष्ठ मित्र Prasoon Shukla के सम्मान समारोह में. पेड और प्रायोजित पुरस्कारों की भीड़ में जब कोई अपनी ही माटी के लोगों के हाथों अपनी ही जमीन पर सम्मानित किया जाता है तो उसका सुख सबसे अलग और अलहदा होता है. बस्ती के रहने वाले हैं प्रसून शुक्ला. शुरुआती पढ़ाई लिखाई के साथ-साथ लड़ने भिड़ने जूझने और अंतत: जीत जाने की ट्रेनिंग भी इसी धरती ने दी है.

प्रसून के सम्मान समारोह में शिरकत करने के लिए मुझे भी न्योता मिला. समारोहों-आयोजनों के निमंत्रण तो बहुत मिलते रहते हैं लेकिन अपनी व्यस्तताओं, आलस्य और उदासीन मन:स्थिति के कारण शिरकत नहीं कर पाता. पर बस्ती दो वजहों से जा रहा हूं. एक तो दोस्ती-मित्रता का धर्म कहता है कि मित्र-दोस्त के उत्सव और मुश्किल, दोनों का हिस्सा बनो, बिना शर्त और बिना किंतु परंतु के. दूसरा एक बेहद जमीनी और मौलिक आयोजन को जीना-समझना, जिसे न कोई पीआर कंपनी आयोजित करा रही है और न इसके पीछे कोई इवेंट मैनेजमेंट कंपनी की सक्रियता है. ये उन लोगों का आयोजन है जो अपने जिले से निकलने और दूर शहरों के आसमान में जाकर चमक बिखेरने वाले सितारों को अपनी जमीन पर बुलाकर उसे दाद, सपोर्ट, समर्थन, सम्मान देकर ‘अच्छे लोगों के बिखरकर खुशबू के यत्र तत्र सर्वत्र फैला देने’ की परंपरा का आत्मिक और ममत्व भरा जयगान करते हैं.

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बस्ती तक जा रहा हूं तो गाजीपुर कैसे न जाउंगा. चार घंटे का रास्ता होगा ज्यादा से ज्यादा. जब गाजीपुर जाता हूं तो पाता हूं कि वही माटी, वही रास्ते, वही लोग, वही मौसम है यहां का जबसे सांस लेना शुरू किया और आसपास को अपने अंदर के समग्र में चेतन-अवचेतन हालात में समेटना सहेजना शुरू किया. ऐसा लगता है जैसे ब्लड प्रेशर खुद ब खुद लो हो गया. ऐसा लगता है जैसे उत्साह और उल्लास खुद ब खुद अंदर हिलोरें लेने लगा. प्रोफेशनल दिनचर्याओं में कैद शरीर से कोट टाई उतार कर फेंकते हुए घुड़दौड़ी महानगर को दूर छोड़ना तभी संभव है जब आप अपनी मिट्टी, अपनी धरती, अपने गांव-जवार से बिना शर्त सम्मोहित होते रहते हैं. ये वो जगह है जहां ठठाकर बात-बात में हंसने के पीछ कोई कार्य-कारण सिद्धांत काम नहीं किया करते. ये वो जगह है जहां मौन होकर चलने जीने में भी एक इनविजिबिल पाजिटिव एनर्जी आसपास होने का फील दिया करती है. तो आप बस्ती के हों या गाजीपुर के, आप छपरा के हों या होशंगाबाद के, आप जहां के हों, वहां जरूर जाएं. बिना वजह जाएं. उब जाएं महानगरी घुड़दौड़ से तो बिना वजह भाग के जाएं. और, जाएं तो बिना मकसद मिलें, भटकें, खाएं, जिएं. मन-शरीर का इससे बड़ी इनर-आउटर हीलिंग और किसी तरीके से संभव नहीं. तो, मैं अब चला अपने गांव, सबको राम राम राम. 🙂

भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.

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