दो मातहतों में झगड़ा हो तो सबसे उचित यही होता है कि दोनों को पहले झगड़ा निपटाने के लिए कहा जाए और इसके लिए उन्हें पद से हटाना पहली जरूरत है। अगर झगड़े का कारण भ्रष्टाचार का आरोप हो और झगड़ने वाले ऐसे आरोंपों की जांच करने वाली देश की सबसे प्रतिष्ठित कही जाने वाली एजेंसी के नंबर वन और टू हों तो एजेंसी की छवि बचाने के लिए भी हटाना या छुट्टी पर भेजना बुनियादी जरूरत है। चूंकि झगड़े की जड़ रिश्वत खोरी का आरोप है और सरकार भ्रष्टाचार दूर करने के वादे पर सत्ता मे आई थी और प्रधानमंत्री का सूत्र वाक्य रहा है, “ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा” इसलिए इस मामले की निष्पक्ष जांच दूसरी बड़ी जरूरत है।
पर जैसा कि दिग्गज पत्रकार वेद प्रताप वैदिक ने लिखा है, इस सरकार ने अपना अनाड़ीपन दिखा ही दिया। सीबीआई निदेशक को हटाना और राकेश अस्थाना की जांच कर रहे अधिकारियों को जनहित में कालापानी की सजा देना असल में अस्थाना को बचाने की कोशिश लग रही थी यह कौन नहीं समझता। हटाने या छुट्टी पर भेजने का निर्णय विधिवत लेना चाहिए – यह भी बताना पड़ेगा। और जैसी कि उम्मीद थी सुप्रीम कोर्ट में वही हुआ जो होना था। अब भुगतो।
ठीक है कि सीबीआई में तैनात अधिकारी पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं होने चाहिए। तैनाती के बाद लगने की तो गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए। पर ये सब बातें तैनाती से पहले सोचने की है। तैनाती के बाद आरोप लग जाए तो एजेंसी की साख के लिए ही सही, उसकी जांच होनी चाहिए थी क्योंकि ऐसा नहीं है कि आरोप पहले नहीं थे। जब आरोप के बावजूद नियुक्त किया गया तो आरोप लगने ही थे और आरोप सार्वजनिक हो गए तो उन्हें नजरअंदाज करने का यह मतलब नहीं हो सकता है कि सीबीआई का अधिकारी भ्रष्ट हो ही नहीं सकता या उसपर लगने वाले भ्रष्टाचार के आरोप गलत ही होंगे। अगर ऐसा होता भी तो साख बचाने के लिए निष्पक्ष जांच जरूरी थी। पर ऐसा कुछ नहीं करके जो किया गया वह राकेश अस्थाना को बचाने की कोशिश तो थी ही और जो भी हो।
आलोक वर्मा को हटाने के कारण और राकेश अस्थाना को बचाने की सरकारी कोशिशों को ऐसे देखिए जैसे वैदिक जी देख रहे हैं। पेश है नया इंडिया में आज प्रकाशित उनकी यह बेबाक टिप्पणी।
तीन दिन पहले मैंने लिखा था कि केंद्रीय जांच ब्यूरो के दोनों झगड़ालू अफसरों- आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना– को छुट्टी पर भेज दिया जाए और सारे मामले की निष्पक्ष जांच करवाई जाए। सरकार ने यह काम उसी रात कर दिखाया लेकिन जैसा कि वह प्रायः करती रहती है, इस मामले में भी उसने अपना अनाड़ीपन दिखा दिया। सीबीआई के मुखिया को लगाने और हटाने का अधिकार न तो प्रधानमंत्री को है, न गृहमंत्री को है और न ही केंद्रीय निगरानी आयोग को है।
यह अधिकार कानून के मुताबिक उस कमेटी को है, जो प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और संसद में विपक्ष के नेता को मिलाकर बनती है। आलोक वर्मा, जो कि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के मुखिया है, उन्हें इस कमेटी की राय के बिना ही छुट्टी पर भेज दिया गया है। अब वर्मा ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा दिया है। जाहिर है कि सरकार को वहां मुंह की खानी पड़ेगी, हालांकि सरकार कह सकती है कि वर्मा को हटाया नहीं गया है, सिर्फ छुट्टी पर भेजा गया है।
इतना ही नहीं, सरकार ने न. 2 अफसर राकेश अस्थाना को भी छुट्टी पर भेज दिया है लेकिन उनकी जांच कर रहे दर्जन भर अफसरों का भी तबादला कर दिया है और उनकी जगह ऐसे अफसरों को नियुक्त कर दिया है, जिनकी निर्भयता और निष्पक्षता पर पहले ही प्रश्नचिन्ह लग चुके हैं। कुल मिलाकर सरकार ने मध्य-रात्रि में तत्काल कार्रवाई की और दोनों शीर्ष अफसरों के दफ्तरों को सील कर दिया, जो कि सराहनीय है लेकिन अस्थाना की जांच कर रहे एक वरिष्ठ अफसर को अंडमान-निकोबार तबादला कर दिया गया है। वहां किसी अफसर को भेजने का अर्थ क्या होता है, यह हमारे नेताओं को क्या पता नहीं है ?
इसका अर्थ है, सजा। क्या इस अफसर को यह सजा इसलिए दी गई है कि वह गुजरात केडर के राकेश अस्थाना के भ्रष्टाचार के पुराने कारनामों को उजागर कर रहा था। ऐसा करने से नेताओं की बदनामी होगी, यह उन्हें पता है लेकिन इसके बावजूद इस रामभरोसे सरकार ने यह जिम्मेदारी अफसर भरोसे छोड़ दी है, ऐसा लगता है। कांग्रेसी नेता राहुल गांधी का कहना है कि आलोक वर्मा रेफल सौदे की जांच पर अड़े हुए थे, इसीलिए उनके खिलाफ यह कार्रवाई की गई है और सरकार गुजरात केडर के अस्थाना को बचाने में जुटी हुई है। यदि राहुल अपनी बात के लिए कुछ ठोस प्रमाण जुटा पाए तो सरकार के लिए संसद का यह शीतकालीन सत्र बहुत ज्यादा गर्मी पैदा कर देगा।
वरिष्ठ पत्रकार और अनुवादक संजय कुमार सिंह की रिपोर्ट। संपर्क : [email protected]