विवेक कुमार-
अंधेरे में भटक रही गांडा जनजाति पर शोध के लिए डॉ राजाराम त्रिपाठी को मिलेगी डॉक्टरेट की उपाधि
7 सालों के कठोर परिश्रम तथा तमाम कठिनाइयों के उपरान्त अंततः डॉ राजाराम त्रिपाठी को 5 मार्च को शहीद महेंद्र कर्मा शासकीय विश्वविद्यालय जगदलपुर में होने वाले दीक्षांत समारोह में माननीय गवर्नर महोदय तथा माननीय मुख्यमंत्री विष्णु देव साय एवं माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी की वर्चुअल उपस्थिति में डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की जाएगी।
इस अवसर पर अपनी शोध यात्रा के अनुभव साझा करते हुए डॉक्टर त्रिपाठी ने बताया कि उन्हें भी समाचार पत्रों के माध्यम से यह पता चला है। अपने शोध के बारे में उन्होंने कहा कि अन्य जनजातीय एवं अनुसूचित जातियों पर देश में कई शोध हुए हैं किंतु मेरी जानकारी केअनुसार गांडा जनजाति पर यह अपने आप मे अनूठा,पहला व अब तक का एक मात्र शोध है। ऐतिहासिक अध्ययन तथा शोध से पता चला कि गांडा जनजाति के साथ बहुत बड़ा संवैधानिक धोखा और पक्षपात हुआ है जिसके कारण इस जाति के लोगों की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थिति में लगातार गिरावट आई है।
सामाजिक स्थिति कि अगर हम बात करें कि वे आज यह समुदाय समाज के सबसे अंतिम पायदान पर खड़े हैं। अपनी हीन स्थिति को प्रदर्शित करने में शर्म तथा संकोच के कारण आज इस जनजाति के लोग मजबूरी में समाज में अपनी वास्तविक वस्तुस्थिति को छुपाने के लिए नाना प्रकार के साधन अपना रहे हैं। जबकि इतिहास बताता है कि पूर्व में यह जाति तरह-तरह के कलाओं में प्रवीण होने के साथ ही शूरवीर तथा युद्ध के मोर्चे पर सदैव अग्रिम पंक्ति में लड़ने वाली बहादुर व सम्मानित जनजाति मानी जाती थी। जनजातीय क्षेत्रों में लोकशिल्प, घड़वा शिल्प, बुनकर कार्य, मृदा शिल्प तथा लोक वाद्ययंत्रों जैसे कि देसी नंगरा, तुड़बुड़ी बाजा बजाने से लेकर इन बाजों को बनाने तक सभी शिल्पगत तथा कलागत कार्य इनके द्वारा ही किया जाता रहा है।
एक और बड़ा तथा महत्वपूर्ण योगदान इस समुदाय का यह रहा है कि यह जनजाति गांव के अन्य सभी समुदायों के लोगों का सदियों से जड़ी बूटियां से तथा परपंरागत तरीकों से इलाज करते रहे हैं। इनके पास दर्जनों असाध्य बीमारियों के भी प्रभावी प्राकृतिक इलाज मौजूद रहे हैं, जिनका विश्व में कहीं भी पूर्ण इलाज संभव नहीं है। हालांकि इस जाति को उपेक्षित किए जाने के उपरांत धीरे-धीरे इनका सदियों से संचित अनमोल ज्ञान का खजाना विलुप्त होता जा रहा है। गांडा जनजाति सदियों से ही जनजातीय समुदाय का अभिन्न अंग रहा है। यह सदियों से जंगलों में जनजातीय समुदाय के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में साथ रहते आए हैं इनके जाति उपनाम, कुल गोत्र, टोटम आदि सभी स्थानीय जनजातीयों से शत प्रतिशत साम्यता पाई जाती है।
इनके देवी देवता तथा उनकी पूजा अर्चना की विधि, तिथि त्यौहार जन्म विवाह तथा मरण के सभी संस्कार भी कमोवेश एक समान हैं। किंतु आजादी के बाद अज्ञानता, त्रुटिपूर्ण एवं गलत सर्वेक्षण के कारण इन्हें आदिम जनजाति की श्रेणी से हटाकर अनुसूचित जाति तथा कहीं-कहीं पर अन्य पिछड़ा वर्ग में डाल दिया गया है। इससे इन्हें अपनी सदियों से काबिज कास्त की जमीनों पर अधिकार मिलने में बाधा आई और यह भूमिहीन रह गए। शिक्षा तथा राजनीति के क्षेत्र में भी इसी कारण ये वंचित रह गए।
कारखाने में मशीनों से तैयार की गई सस्ती वस्तुओं के गांव के बाजारों में आने के बाद इनका लोह शिल्प का, मिट्टी शिल्प का, कपड़े बुनने का गढ़वा शिल्प का काम तथा आमदनी दोनों ठप्प पड़ गई। दूसरी तरफ इस पक्षपात पूर्ण वर्गीकरण के कारण इनका सामाजिक स्थान बहुत नीचे हो गया। डॉ त्रिपाठी ने इन सारे ऐतिहासिक तथ्यों को प्रमाण के साथ अपने शोध में प्रस्तुत किया है। निश्चित रूप से समूची गांडा जनजाति के लिए डॉ राजाराम त्रिपाठी का यह यह शोध अंधेरे में भटक रहे समुदाय के लिए एक मार्गदर्शक मशाल की तरह है।
इस शोध के बारे में जानकर गांडा समाज के कई पढ़े लिखे विद्वतजनों ने तथा जनप्रतिनिधियों ने डॉक्टर राजाराम त्रिपाठी को गांडा समाज का सबसे बड़ा हितैषी घोषित करते हुए उनके शोध को मील का पत्थर माना है। इस समाज के सामाजिक संगठनों ने डॉक्टर त्रिपाठी को उनके शोध पर बधाई देते हुए उन्हें उनका सार्वजनिक अभिनंदन कर सम्मानित करने की बात भी कही है।
हल्बी भाषा-शास्त्र पर प्रथम पीएचडी डॉ अखिलेश को मिलेगी
इसी 5 मार्च को शहीद महेंद्र कर्मा शासकीय विश्वविद्यालय जगदलपुर में होने वाले दीक्षांत समारोह में माननीय गवर्नर महोदय तथा माननीय मुख्यमंत्री विष्णु देव साय एवं माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी की वर्चुअल उपस्थिति में अन्य सुधार्थियों के साथ डॉक्टर अखिलेश त्रिपाठी को भी हल्बी भाषा-शास्त्र पर उनके शोध हेतु डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की जाएगी।
इस अवसर पर अपनी शोध यात्रा के अनुभवों साझा करते हुए डॉ अखिलेश ने कहा कि हल्बी पर शोध करना बड़ा कठिन एवं दुष्कर कार्य था। दरअसल इस विषय पर इससे पूर्व कोई शोध कार्य नहीं किया गया था इसलिए रेफरेंसस का का अकाल था। जबकि रियासत कालीन बस्तर में राजभाषा के पद पर आसीन रही हल्बी बोली इस सम्पूर्ण क्षेत्र की संपर्क बोली के रूप में विद्यमान रही है। परन्तु यह दुर्भाग्य ही है कि विभिन्न कारणों से यह अन्यान्य बोली भाषाओं से प्रभावित हो रही है। इस प्रक्रिया में वर्तमान समय में इसका रूप विकृत हो रहा है।
यदि हल्बी बोली के संरक्षण, संवर्धन की ओर शासन-प्रशासन, शैक्षणिक संस्थानों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा प्राथमिकता के आधार पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह बोली भी उसी प्रकार खतरे में पड़ जाएगी जैसे क्षेत्र की अन्य कई बोलियां प्रचलन से बाहर होकर या तो विलुप्त हो गई या किसी अन्य समर्थ बोली या भाषा में विलीन होकर अपना अस्तित्व खत्म कर बैठी।
गौरतलब तथ्य है कि जब एक बोली मरती है तब बोली के साथ-साथ तीज-त्यौहार, रिश्ते-नाते, रहन-सहन संस्कृति बोली के साथ साथ खत्म होते जाते हैं।
वर्तमान समय में हल्बी बोली के संरक्षण, संवर्धन की ओर यद्यपि शासन-प्रशासन, शैक्षणिक संस्थानों, सामाजिक संस्थाओं व व्यक्तिगत रूप से इसमें उत्थान करने का यथा संभव प्रयास किया जा रहा है परन्तु इससे और अधिक प्रयास किये जाने की आवश्यकता प्रतीत होती है। इसके अतिरिक्त और भी कई कारणों से समाज में हल्बी बोली के प्रयोग एवं विस्तार की स्थिति में निरन्तर संकुचन आता जा रहा है। अतः इन कारणों का अध्ययन और खासकर इस बोली के लेखन को आबद्ध करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।
शोधकर्ता द्वारा जब इस संबंध में विश्वविद्यालय, महाविद्यालय, पुस्तकालय, संग्रहालयों में भी इस विषय पर किसी भी प्रकार के शोध, लेख आदि का सर्वथा अभाव पाया गया, इनके अंश मात्र ही मिल पाये जिससे प्रतीत होता है कि इस बोली का इतिहास भी विलुप्तीकरण की ओर अग्रसर हो रहा है। बाजार में भी इस विषय के लेख, किताब या अन्य किसी भी प्रकार के शोध पत्रों की उपलब्धता न के बराबर है। हल्बी बोली का यह पराभव अत्यंत चिंता का विषय है।
छत्तीसगढ़ हिंदी साहित्य परिषद, संपदा समाजसेवी संस्थान, जनजातीय कल्याण एवं शोध संस्थान सहित कई सामाजिक तथा साहित्यिक संगठनों ने डॉक्टर त्रिपाठी को उनके शोध तथा आंचल की लोकप्रिय भाषा को बचाने के लिए उनके प्रयासों के लिए उन्हें बधाई तथा शुभकामनाएं दी हैं।
विवेक कुमार जनजातीय शोध एवं कल्याण संस्थान से जुड़े हैं.