अमरीक-
पंजाब के बौद्धिक जगत में रामेश्वर पांडे की जगह…
दो दशक पहले तक अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में तो यह होता था कि किसी दूसरी भाषा की महत्वपूर्ण किताब की समीक्षा अंग्रेजी में प्रकाशित हो। हिंदी में ऐसा नहीं होता था। कम से कम 20-25 साल पहले तक। शायद ‘दिनमान’ में उस वक्त की महत्वपूर्ण अंग्रेजी तथा दूसरी भाषाओं में प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा/समीक्षा कभी-कभार हिंदी में दी जाती थी। उत्तर भारतीय अखबारों में ऐसा नहीं होता था। यहां तक कि किताबों पर पूरा एक पन्ना देने वाले ‘जनसत्ता’ में भी। ‘अमर उजाला’ में भी इसे लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं थी। सीपीएम महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत भारतीय राजनीति में अहम भूमिका के लिए जाने जाते हैं। वह उन विरले राजनीतिकों में से एक हैं, जिन्होंने कई बार देश की राजनीति की दिशा और दशा को बदला। लेकिन उन पर एकाध से ज्यादा किताबें नहीं हैं। गूगल के जरिए भी आप उन्हें बहुत ज्यादा नहीं जान सकते।
खैर, कभी मेरे दोस्त रहे पंजाबी पत्रकार और दैनिक ‘देशसेवक’ के युवा संपादक शमील की एक उम्दा किताब, ‘हरकिशन सिंह सुरजीत: जिन्ना राहां दी मैं सार ना जाना’ आई। (अब शमील कनाडा के एक रेडियो में हैं)। हाथ में आते ही, एक बैठक में मैं पूरी किताब पढ़ गया। सुरजीत पर लिखी गई इकलौती और नायाब किताब! पांडे जी से स्वाभाविक जिक्र किया। विस्तार से उस किताब की सामग्री की चर्चा की। रामेश्वर पांडे हरकिशन सिंह सुरजीत के मुरीद थे और उनकी बहुत इज्जत करते थे। कहा कि इस किताब पर फौरन लिखो। मैंने पूछा सर, किसके लिए? बोले कि ‘अमर उजाला’ के लिए ही लिखोगे। अन्यत्र कहीं लिखने के लिए मैं कैसे कह सकता हूं।
विस्तृत समीक्षा लिखी और वह आधे पेज पर अमर उजाला में प्रकाशित हुई। वहां कार्यरत कुछ नपुंसक बड़बोले धीमी आवाज में कुछ बड़बड़ाए भी। लेकिन समीक्षा और अखबार की ओर से उसकी प्रस्तुति को पाठकों की चौतरफा वाहवाही मिली। अखबार में ही कार्यरत किसी दिलजले ने श्री अतुल महेश्वरी को बेनाम चिट्ठी भेज दी कि अब अखबार का पूरी तरह से पंजाबीकरण किया जा रहा है, जो इसका भट्ठा बैठा देगा। चिट्ठी की प्रतिलिपि मेरठ से पांडे जी के पास आई तो उन्होंने विस्तृत औपचारिक जवाब दिया और फोन पर इस बाबत अतुल जी से बात भी की।
हिंदी अखबार में पंजाबी किताब की समीक्षा एक किस्म का प्रयोग था जो कामयाब रहा। उसके बाद गुरदयाल सिंह, दिलीप कौर टीवाण, सुरजीत पातर, संतराम उदासी और लाल सिंह दिल के पंजाबी संग्रहों सहित अन्य कुछ उल्लेखनीय किताबों पर भी लिखा और छापा गया। पंजाबी बुद्धिजीवियों और लेखों के साक्षात्कार भी दिए गए। सराहना मिली कि हिंदी के एक अखबार ने पंजाबी बौद्धिक जगत का विशेष नोटिस लेकर बहुत बड़ा काम किया है। इससे पहले ऐसा होना तो दूर की बात; सोचा तक नहीं गया था।
उन लेखकों से हम थोड़ा दूर रहते थे जो खुद अपनी कमजोर कृति के साथ अमर उजाला दफ्तर चले आते थे और स्पेस चाहते थे। ठीक उन्हीं दिनों फीचर पन्नों में से किसी एक में मेरा नियमित स्तंभ ‘इन दिनों’ शुरू हुआ। उसमें क्षेत्र के हिंदी और पंजाबी लेखकों की मुख्तसर चर्चा होती थी। हम बताते थे कि उस लेखक की फलां किताब आई है या इस लेखक को विशेष सम्मान मिला है। वह स्तंभ धीरे-धीरे बहुत लोकप्रिय हो गया। कोई दस साल पहले मैं ‘दैनिक भास्कर’ में ‘इन दिनों’ के नाम से उसकी रविवारीय पत्रिका ‘रसरंग’ के लिए नियमित सप्ताहिक स्तंभ लिखने लगा।
श्री रामेश्वर पांडे को पता चला तो बहुत खुश हुए। बोले कि ठीक ढंग से बोया जाए तो फूल बहुत अच्छा-निखरकर आता है। लाजवाब खुशबू बिखेरता है। अनुज चंडीदत्त शुक्ल बहुत कम उम्र में दुनिया से रुखसत हो गया। उसने मेरा यह स्तंभ दैनिक भास्कर के झारखंड-बिहार संस्करण में भी शुरू करवाने की कोशिश की थी। कभी-कभार कुछ (बहुत अच्छे पारिश्रमिक के साथ) लिखवाया करता था।
रामेश्वर पांडे के रहते अमर उजाला, जालंधर में बेशुमार समावेशी संस्कृति के पक्षधर और पंजाबियत के प्रबल पैरोकार अनेक पंजाबी लेखकों के साक्षात्कार विस्तार से प्रकाशित हुए। कुछ को राष्ट्रीय संस्करण में भी जगह मिली। पांडे जी को एक नोट बना कर दिया जाता था जिसमें उस लेखक का प्रोफाइल आदि रहता था। शायद ही उन्होंने किसी लेखक से प्रकाशनार्थ बातचीत के लिए रोका हो या बातचीत के बाद उसके कथन पर कलम चलाई हो।
हिंदी के दो लेखक पंजाबी लेखकों के खिलाफ पांडे जी के कान भरा करते थे। आखिर एक दिन आजिज आकर पांडे जी ने उनमें से एक को सख्ती के साथ कह दिया कि पंजाबी लेखकों के इंटरव्यू प्रकाशित करना अखबार की नीति का हिस्सा हैं, कृपया आप अपनी मौखिक दखलअंदाजी पर रोक लगाएं। हम वही करेंगे जो संपादकीय नीति ने तय किया है। मेरे बारे में कहा गया था कि मैं ‘जनसंपर्क’ के लिए (भी) ऐसा कर रहा हूं। उनका जवाब था कि पंजाबी का कौन-सा बड़ा लेखक ऐसा है जिससे अमरीक की वाकफियत न हो। उसे जनसंपर्क की क्या जरूरत है?
इसके बाद मैं फीचर विभाग के अपने किसी न किसी साथी को इंटरव्यू के लिए साथ ले जाने लगा और जब वह प्रकाशित होता तो दोनों का नाम बाई लाइन बराबर जाता था। अमर उजाला छूट गया तो काफी सामग्री प्रकाशनार्थ छोड़ कर आया था। पांडे जी ने किसी को ‘किल’ नहीं किया बल्कि लगातार छापा और नोएडा से सब संस्करणों के लिए प्रकाशित होने वाली रविवारीय पत्रिका में भी कुछ महत्वपूर्ण साक्षात्कार छपावाए। रामेश्वर पांडे का पंजाब और पंजाबियत के प्रति रुख उन्हें स्थानीय पंजाबी लेखकों, बुद्धिजीवियों और चिंतकों में तो लोकप्रिय बनाता चला ही गया–आम पंजाबी भी शिद्दत से मानने लगे कि अमर उजाला वाले जो पंजाबी से वाबस्ता हिंदी में छापते हैं; वह पंजाबी पत्र-पत्रिकाओं से भी बेहतर होता है। यह अमर उजाला का हासिल था, पंजाबियों के बीच।
तीन दशक पहले तक स्थानीय हिंदी और पंजाबी अखबार कमोबेश बदनाम थे। अतीत की वे खिड़कियां भी नहीं खोलनी चाहिए। पांडे जी न केवल पंजाब के बौद्धिक जगत में अपनी एक जगह बना चुके थे बल्कि सूझवान स्थानीय राजनीतिक भी उन्हें अतिरिक्त सम्मान देते थे। राजनीतिक दलों के नेताओं से अपनी पहल पर मिलने से उन्हें गुरेज था लेकिन बहुत ज्यादा इसरार के बाद चले भी जाते थे। एक बड़े राजनेता ने मुझे बताया कि पांडे जी ने मेरे घर आना था और हम साथियों ने एक दिन पहले निर्णय किया कि अमर उजाला का संपादक आ रहा है तो पार्टी की तरफ से उसे विज्ञापन भी दिया जाए। पांडे जी जब चलने लगे तो एक चेक लिफाफे में डाल कर उन्हें दिया गया तो उन्होंने पूछा कि इसमें क्या
है। मेजबान ने साफ कह दिया कि पूरे एक पेज के विज्ञापन का अग्रिम भुगतान है। रामेश्वर पांडे ने कहा कि माफ कीजिए आप मेरा अपमान कर रहे हैं। आपको हमारे विज्ञापन प्रमुख को बुलाना चाहिए था। अमर उजाला में तो रिपोर्टर भी विज्ञापन नहीं लेता और मैं तो फिर भी स्थानीय संपादक हूं! तब के अमर उजाला की यही नीति थी। संपादकीय विभाग अखबार बनाता था, प्रसार विभाग उसकी बिक्री में इजाफे के लिए काम करता था और विज्ञापन विभाग का काम विज्ञापन जुटाना था।
जालंधर के सुखचैन रेस्टोरेंट (जो शायद अब बंद हो गया) में जालंधर संस्करण के साथियों की पहली मीटिंग में खुद दिवंगत अतुल महेश्वरी ने यह आदेश जारी किया था कि अमर उजाला का कोई भी पत्रकार किसी से, किसी भी बहाने विज्ञापन नहीं लेगा बल्कि विज्ञापन विभाग के प्रतिनिधि को भेज देगा। बहुत बाद में काफी कुछ बदला तो यह आलम भी बदल गया लेकिन इतनी अराजकता फिर भी नहीं फैली, जितनी समकालीन दूसरे अखबारों में संक्रमण रोग की तरह फैली हुई थी।
सर का कद बहुत बड़ा था। यहां जब तक रहे किराए के मकान में रहे, बेशक भत्ता कंपनी की ओर से मिलता हो। जबकि उनके कतिपय वरिष्ठ सहयोगियों ने अलग-अलग शहरों मे तीन-तीन आलीशान कोठियां बनाकर किराए पर चढ़ा दीं। पत्रकारिता में भ्रष्टाचार के जरिए कमाए काले धन के बूते। हम पत्रकारों को ‘सूत्र’ बड़ी आसानी से मिलते हैं! उन्हीं में से कुछ सूत्रों ने कागजात की प्रतिलिपियां दिखाते हुए यह सब बताया।
बहरहाल, पांडे जी विज्ञापन की पेशकश करने वाले उक्त नेता से नाराज नहीं हुए, बस उसे कायदे से विनम्रता के साथ समझा दिया कि विज्ञापन और गिफ्ट संस्कृति को वह नापसंद करते हैं। उनके रिश्ते नहीं बिगड़े बल्कि दोस्ती हो गई। कम लोग जानते हैं कि रामेश्वर पांडे कभी भाजपा का आधार स्तंभ रहे/बड़े नेता मुरली मनोहर जोशी के बहुत करीब भी थे। वह सीधा फोन पर उनसे बात किया करते थे। मानव विकास संसाधन मंत्री बने, तब भी।
5 जून को पांडे जी के सुपुत्र राजन हेमंत से फोन पर बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि केंद्रीय विद्यालयों में एडमिशन के लिए मुरली मनोहर जोशी का स्टाफ बगैर कहे हर साल सिफारशी सहायता किया करता था। खैर, निधन के दिन उक्त राजनेता का फोन मुझे आया लेकिन मैं इस हालत में नहीं था कि पिक कर पाऊं। बाद में फोन पर काफी देर तक पांडे जी की बातें होती रहीं। उस घटना का जिक्र भी आया। उन्होंने तो कहा ही, मेरा भी मानना है कि अखबार चाहे अमर उजाला हो, आज कौन संपादक/पत्रकार विज्ञापन की कमीशनखोरी नहीं करता होगा? कुछ लोग अपवाद हैं। शायद यह बात गलत भी हो और सुनी- सुनाई पर आधारित हो।
रामेश्वर पांडे जालंधर आते-आते उदारवादी वामपंथी हो गए थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ लोगों से भी उनके अच्छे संबंध थे। वे संबंध, ‘संबंध’ ही रहे। आगे की लकीरों को पांडे जी ने पार नहीं किया। नहीं तो अमर उजाला का पंजाब संस्करण, दैनिक जागरण सरीखा बन जाता। उनसे पंजाब के डेरावाद पर खूब बात होती। प्रमुख डेरों पर अकेले-अकेले हम घंटों चर्चा किया करते थ। कुछ डेरों में हम गए भी। उन्हें राधा स्वामी डेरे की संस्कृति अच्छी लगी। वहां उन्होंने उनका काफी साहित्य खरीदा और अध्ययन किया। फिर एक दिन कहा कि महाराज चरण सिंह का जन्मदिवस करीब आ रहा है। उन पर पूरे एक पेज की सामग्री तुम खुद लिखो। एक बॉक्स आइटम हिमाचल प्रदेश से मंगाया गया।
रामेश्वर पांडे ने सोची-समझी नीति के तहत पूरा पेज निकलवाया था। उसका मुफीद असर पड़ा। हिंदी अखबार पढ़ने वाले राधास्वामी समुदाय के बेशुमार अनुयायी हमारे पक्के पाठक बन गए। किसी साथी ने उन्हें सुझाव दिया कि फलां डेरे पर भी पेज निकालिए, इससे भी काफी फायदा होगा। पांडे जी ने कहा कि राधा स्वामी डेरे का अक्स एकदम साफ-सुथरा है। जबकि उक्त डेरा विवादास्पद है। उसकी तो खबर भी नहीं छपनी चाहिए, पूरा पेज देना तो दूर की बात है।
थोड़ा पीछे चलते हैं। जब हरकिशन सिंह सुरजीत पर पंजाबी में लिखी किताब की समीक्षा अमर उजाला में छपी तो जानबूझकर मैंने कुछ अनछुए पहलुओं के प्रसंग उसमें दिए। एक शाम पांडे जी ने बुलाकर कहा कि कल सुरजीत के गांव चलेंगे। वहां उन्हें ठीक वैसा ही मंजर मिला जो किताब में लिखा गया था। सादा किसान परिवार और बगैर ज्यादा तामझाम वाला घर। घर की बैठक में हरकिशन सिंह सुरजीत की पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, अर्जुन सिंह, ज्ञानी जैल सिंह, शंकर दयाल शर्मा, अटल बिहारी वाजपयी, सुषमा स्वराज, शरद पवार, राजीव गांधी से लेकर नेल्सन मंडेला और दुनिया भर की तमाम राजनीतिक हस्तियों के साथ फोटो लगे हुए थे। बेशक कॉमरेड की मर्जी के बगैर उन्हें लगाया गया था।
सुरजीत सालों-साल गांव नहीं जाते थे। जाते तो चंद घंटों के लिए ठहरते थे। पांडे जी को पूरा घर और उनके खेत दिखाए गए। बस यही हरकिशन सिंह सुरजीत की भौतिक पूंजी थी। लौटते वक्त उन्होंने कहा कि वह खुद सुरजीत पर लिखेंगे लेकिन ‘आजकल-आजकल’ में वक्त बीतता गया और पहली ही पंक्ति लिखने के बाद पांडे जी ने न जाने कितने कागज फाड़े। लेख के नसीब में गोया पांडे जी के हाथों लिखे लफ्ज़ नहीं थे!
जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा पंथक राजनीति के कद्दावर नेताओं की पहली कतार की शख्सियत थे। कुछ मामलों में उनका कद प्रकाश सिंह बादल से भी बड़ा था। फीचर में रहते हुए भी मैं उन पर बावक्त लिखता रहता था। एक बार उनकी व्यक्तिगत जिंदगी पर लिखते हुए उनकी सादगी का जिक्र तो किया ही, यह भी लिखा कि वह तकरीबन तय सुबह चार बजे से अपने गांव-घर से निकलते हैं लेकिन शाम/रात अपने घर ही बिताते हैं। पांडे जी पूरा एक दिन उनके साथ रहना चाहते थे। जत्थेदार अमर उजाला को अच्छी पत्रकारिता करने वाला अखबार मानते थे। बंदोबस्त हो गया कि पांडे जी पूरा दिन उनके साथ रहेंगे।
रात फतेहगढ़ साहिब के सर्किट हाउस में पड़ाव डाला गया और सुबह जत्थेदार की गाड़ी में वह बैठ गए। रात तक उन्हीं के साथ रहे और फिर सर्किट हाउस आ गए। जत्थेदार गुरचरण सिंह टोहड़ा के साथ पूरा एक दिन बिताने के बाद बोले कि ,”यह तो फकीर सियासतदान हैं। इन पर लंबा लिखूंगा।” मेरी जानकारी में कई बार शुरुआत हुई लेकिन वह लिख नहीं पाए। उन दिनों ऑनलाइन किताबें नहीं मिलतीं थीं। रामेश्वर पांडे जानते थे कि उदय प्रकाश ने राधाकृष्णन प्रकाशन के लिए मार्क टुली व सतीश जैकब की अंग्रेजी किताब, ‘अमृतसर: मिसेज गांधीज लास्ट बेटल’ का हिंदी अनुवाद, ‘श्रीमती गांधी की आखिरी लड़ाई’ शीर्षक के तहत किया है। वह किताब आउट ऑफ प्रिंट थी और अब भी उपलब्ध नहीं है।
पांडे जी ने जब किताब के लिए कहा तो अखबार शुरू हुए चारेक महीने ही हुए थे। मेरे पास उसकी प्रति थी। मैंने बाखुशी उन्हें दे दी। उन्होंने कहा बाबू, दी गईं किताबें बहुत कम वापिस मिलती हैं। इस मामले में मुझ पर भी एतबार मत करो। पैसे ले लो और फोटोस्टेट करवा कर दे दो। मैंने कहा सर आप इसे रखिए। मैंने इसे कई बार पढ़ा है और अब तो इसका पंजाबी संस्करण भी आ रहा है। मैं वह ले लूंगा। पांडे जी ने वह किताब पूरी पढ़ी और कहा कि मार्क टुली और सतीश जैकब ने ऑपरेशन ब्लू स्टार तथा पंजाब समस्या का एक भी पहलू नहीं छोड़ा। घटनाक्रम का तारतम्य इस किताब का सबसे बड़ा हासिल है। तुम्हारा साधुवाद कि किताब मुझे पढ़ने के लिए दी।
मैंने कहा सर, यह कह कर मुझे क्यों शर्मिंदा करते हैं। पांडे जी बोले कि मैंने वही कहा है जो सच है–किसी को भी शर्मिंदा करना मेरे मिजाज में नहीं। क्या तुम मुझे इतना ही समझते हो!
सो सूबे का बौद्धिक जगत पांडे उनके सरोकारों के चलते खूब मान-सम्मान देता था। जबकि अमर उजाला के समकालीन तथा प्रतिद्वंदी अखबारों के मालिक और संपादक कॉरपोरेट जगत की हस्तियों से मिलकर गदगद होते थे। पंजाब के बौद्धिक जगत का प्यार रामेश्वर पांडे का बहुत बड़ा हासिल था। आने वाली पीढ़ियों को इसे समझने में वक्त लगेगा!
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अनिल कुमार पाण्डेय
July 9, 2023 at 8:52 pm
अच्छा और सुंदर लिखा गया है| रामेश्वर पाण्डेय जी के बारे में पहली बार जाना और सुना| आपकी संस्मरणात्मक अभिव्यक्ति बहुत सुंदर है| बधाई और शुभकामनाएँ सर…कभी उन दो लेखकों के बारे में भी जानना चाहूँगा…सादर