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पंजाब

पंजाबियत के सच्चे कदरदान रामेश्वर पांडे जी का जिस्म कांपने लगा था और आंखों में पानी था!

अमरीक-

1999 के अंत और सन् 2000 के बीच यहां आने के बाद श्री रामेश्वर पांडे को पंजाब, पंजाबियों और पंजाबियत से गहरा लगाव हो गया। ‘मेला गदरी बाबायां’ में झंडे की रस्म और एक क्रांतिकारी गीत (जिसे बीते कई सालों से कॉमरेड अमोलक सिंह लिख रहे हैं/गीत हर बार अलग होता है) गाया जाता है। वह सारा मंजर अद्भुत होता है। आपकी रगों का खून रफ्तार पकड़ लेता है और दिल की धड़कन भी तेज हो जाती है।

रामेश्वर पांडे ने पहली बार इस रस्म को देखा तो ऐसा ही हुआ। मैं और फोटोग्राफर रंजीत सिंह इस बात के गवाह हैं कि पांडे जी का जिस्म कांपने लगा था और आंखों में पानी था। रंजीत ने मेरे कान में कहा कि इन्हें कुछ हो न जाए, मैंने कहा नहीं बेशक इन्हें पंजाबी नहीं आती लेकिन बॉडी लैंग्वेज कायदे से समझते हैं। यह रामेश्वर पांडे के भीतर का क्रांतिकारी है जो उनकी पूरी देह को झकझोरे दे रहा है।

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रस्म अदा हुई तो कुछ समय बाद पांडे जी भी सामान्य हो गए। मैंने पूछा कोई दिक्कत? जवाब था कि हां, काश! मैं पंजाबी में गाए जा रहे गीत को समझ पाता। एक्शन को अच्छी तरह समझ रहा था। रंजीत सिंह अमर उजाला के होनहार फोटोग्राफर थे। अब उन्होंने प्रेस फोटोग्राफी छोड़ दी है लेकिन उनके पास पांडे जी की कुछ खास तस्वीरें-खास मौकों पर खींचीं गईं जरूर होंगी। थोड़ा चलने-फिरने लायक हुआ तो रंजीत को ढूंढने की कोशिश करूंगा। जालंधर के किसी साथी के पास उनका फोन नंबर या पता ठिकाना हो तो कृपया बताने का कष्ट करेंगे।

मेले में लंगर की व्यवस्था भी रहती है। एक बजे के करीब हमने लंगर ग्रहण किया और सीधे ऑफिस आ गए। पांडे जी ने कहा कि पहले विस्तृत रिपोर्ट लिखो और उसके बाद थोड़ी बातचीत करते हैं। कॉपी तैयार की और उनके सामने रख दी। बीच में कहीं उनका नाम था। उस पर उन्होंने कलम चला दी और कहा कि विवेक जी (शिवकुमार विवेक/तत्कालीन समाचार संपादक) की मेज पर पेपरवेट के नीचे रख आओ। एक कोने में उन्होंने ‘फ्रंट’ लिख दिया था।

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ऑफिस से थोड़ी दूर पान का खोखा लगता था। पांडे जी ने कहा कि वहां से फलां नंबर के दो पान भी लगवा लाओ। उनका सामान उनके आगे रखा तो बातचीत का सिलसिला यहां से शुरू हुआ कि वह ख्यात क्रांतिकारी पंजाबी कवियों के नाम जानना चाहते हैं; जिनका लिखा या जिन पर लिखा हिंदी में भी उपलब्ध हो। मैंने जुझारू कविता के सशक्त हस्ताक्षर लाल सिंह दिल, अवतार पाश, संतराम उदासी, हरभजन हलवावी, अमरजीत चंदन, सुरजीत पातर… आदि का नाम लिया। जिनकी किताबों के अनुवाद सहज उपलब्ध हो सकते थे।

उन्होंने कहा कि ये सब किताबें मुझे चाहिएं। व्यक्तिगत तौर पर। शायद मुझे यह कहकर एक हजार रुपए दिए की नक्सल लहर पर लिखे गए फिक्शन का कुछ हिंदी में अनुदित उम्दा मिले तो उसे भी खरीद लेना। मैंने जसवंत सिंह कंवल के उपन्यास ‘लहू दी लौ’ और ‘रात बाकी है’ का जिक्र किया लेकिन अगले दिन पूरा माई हीरा गेट बाजार पैदल नाप लिया लेकिन दोनों उपन्यासों के हिंदी अनुवाद नहीं मिले। अलबत्ता पंजाबी कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के हिंदी अनुवाद जरूर मिल गए। काफी पैसे बच गए थे। मैंने सोचा पंजाब के लोकाचार अथवा पंजाबियत पर भाषा विभाग द्वारा छापीं गईं कुछ (कमोबेश सस्ती) किताबों के हिंदी अनुवाद पांडे जी के लिए लेता चलूं। छह बजे के करीब दफ्तर पहुंचा तो बड़ा-सा बंडल उनके आगे रखा।

उन्होंने उसे अपनी मेज की एक साइड पर रख दिया। मैंने सोचा था कि उत्सुकतावश वह तत्काल बंडल खोलेंगे। उनके बचे हुए 80 रुपए देते हुए मैंने पूछ लिया, सर एक बार खोल कर देखने का कष्ट कर लेते। बोले कि बाबू खजानों को ऐसे नहीं खोला जाता। बहुत एहतराम के साथ घर ले जाकर खोलूंगा। तब तक मेरा दिल और दिमाग खिला-खिला सा रहेगा। फिर जेब से 80 रुपए निकाले और कहा कि कुछ ‘कर’ लेना इनका! मैंने कहा 80 में क्या आएगा। फिर उन्होंने सौ रुपए का एक नोट और निकाला। कहा कि इतने में कपूरथला बस स्टैंड के सामने वाले अहाते में अच्छी मछली भी मिल जाएगी। आज मैं तुम्हारे साथ नहीं इन किताबों से गुफ्तगू करना चाहता हूं।

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मैंने जानबूझकर न्यू बुक कंपनी से खरीदी किताबों का बिल हिंदी में बनवाया था। न्यू बुक कंपनी जालंधर में किताबों की सबसे बड़ी दुकान है और वहां राकेश कुमार नाम का एक शख्स कर्मचारी है जिसे एक-एक किताब की बाबत मालूम है। हजारों किताबों में से वह किताब निकाल कर सामने रख देता है। मूलतः वह हिंदी भाषी है। उसने अपनी साफ भाषा में बिल बनाया था। पांडे जी उस बिल को बार-बार निहार रहे थे। मैंने जाने की इजाजत मांगी तो उन्होंने कहा कि तमाम कवियों की किताबें मिल गईं? मैंने कहा सर कैसे न मिलतीं। बॉस ने आज स्पेशल फील्ड ड्यूटी पर लगाया था। मुस्कुराकर और हाथ हिला कर उन्होंने जाने का इशारा किया।

दोपहर बारह बजे तक मैं ऑफिस पहुंच जाता था। मेरे आने के ठीक 20 मिनट के बाद पांडे जी आ गए। हाथों में किताबें। सीधा मेरे केबिन में। सिर पर हाथ रखा और कहा कि बाबू क्या खजाना ढूंढ कर लाए हो। कविता पढ़ने का सुख अपनी जगह लेकिन पंजाबियत की बाबत जो सामग्री लाए हो वह बेमिसाल है। सारी रात पंजाबियत वाली किताब पढ़ता रहा। कुछ पन्ने बाकी हैं। तैयारी कर लो-कुर्सी पर बैठकर तो मैंने पंजाब बहुत देख लिया लेकिन अब उसकी आबोहवा में समाना चाहता हूं।

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पहली यात्रा पर निकले वह कपूरथला से अमर उजाला के रिपोर्टर हरनेक जैनपुरी के गांव जैनपुरी की ओर। हरनेक की सादगी और निश्चलता से उन्हें गहरा लगाव था। इत्तेफाक ऐसा हुआ कि ठीक उसी दिन मुझे चंडीगढ़ जाना पड़ा और पांडे जी ने जो समय हरनेक को दिया था, उसके बहुत बाद वह उसके गांव पहुंचे। हरनेक जमीन तथा तहसील के किसी काम से शहर गया हुआ था लेकिन उसके परिवार वालों ने श्री रामेश्वर पांडे की यादगार खातिरदारी की। बोतल तक रखी लेकिन विनम्रता की प्रतिमूर्ति पांडे जी ने कहा कि वह दिन में नहीं पीते। हरनेक के पिता ने कहा कि रात होने वाली है, आपको हम जाने थोड़ा देंगे। इधर, हरनेक का कोई अता-पता नहीं।

पांडे जी ने तमाम पंजाबी पकवान बाखुशी खाए। हरनेक के खेतों में गए। हरनेक के घर वालों ने अपने खेतों में उगाए साग-सब्जियों से पांडे जी की कार की डिग्गी भर दी। हरनेक देर रात लौटा और कई दिन खुद को कोसता रहा कि थोड़ा इंतजार क्यों नहीं किया। पांडे जी का मृत्यु से पहले रामेश्वर सर का उससे वादा था कि वह एक बार जरूर उसके गांव आएंगे। लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। वादा तो मुझसे भी था कि जम्मू जाना है और बीच में जालंधर उतर कर मिल कर जाऊंगा। फिर मैं उन्हें एक दिन अपने नौनिहाल ले गया। वहां जाकर उन्हें बहुत सुकून और खुशी मिली। उसके बाद हम लोग मेरे पुश्तैनी गांव गए। मासी के गांव भी गए।

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शर्तिया है कि पांडे जी को कहीं भी रत्ती भर भी परायापन महसूस नहीं हुआ। जालंधर के उनके घर सरस्वती विहार से हम लोग सुबह 7 बजे मेरे दोस्त विक्रम सिंह सिद्धू की स्कॉर्पियो पर निकले थे। पहला पड़ाव नानका गांव गिद्ड़पिंडी-लोहिया था। वहां खबर कर दी थी कि एक ‘आम जैसा विशेष मेहमान’ आ रहा है। सो जाते ही खातिरदारी का सिलसिला शुरू हुआ। छोलिए के परांठे, ताजा निकला सफेद मक्खन और कढ़े हुए गुलाबी दूध से बना दही। साथ में और बहुत कुछ। पांडे जी की खुराक बहुत कम थी और वह कुछ संकोच कर रहे थे तो मैंने कहा आप छोलिए के एक परांठे पर ताजा सफेद मक्खन और कढ़े हुए दूध का दही खा लीजिए। उन्होंने वैसा ही किया। उन्हें बहुत लुत्फ आया।

बाद में तांबे के बड़े गिलासों में लस्सी आई। उन्होंने वह भी पी। फिर हम पैदल खेतों की तरफ चल पड़े। बड़े मामा को मैंने बहुत पीछे घर-परिवार की बातों में लगा लिया। जानता था कि पांडे जी कुछ भी खाने के बाद हाथ से मसलकर खैनी जरूर खाते हैं और इन लोगों के आगे खाएंगे नहीं। मैंने उन्हें इशारा किया कि वह आराम से खैनी को होठों के हवाले करें। जब तक उनकी खैनी बेअसर होकर खत्म हुई तब तक उनके साथ मामा श्री कदमताल करने लगे। वह पंजाबी में तो पांडे जी हिंदी में बोलें। उन्हें बताया गया कि गांव के दूसरे छोर से मालवा का इलाका शुरू होता है। लगभग सौ साल से ज्यादा पुराने रेलवे पुल से एक बार एक ही गाड़ी गुजरती है और तब दोनों तरफ की आवाजाही रोक ली जाती है। यानी रेलवे का पुल वाहनों और पैदल चलने वालों के भी काम आता था। हफ्ते में एक बार उस हत्यारे पुल को इंसानी लहू चाहिए होता था। हैरान पांडे जी ने मुझसे कहा कि इस पर लिखो। मुझे याद है जो मैंने लिखा उसका शीर्षक था; ‘एक अभिशप्त गांव जहां दोआबा और मालवा बिछड़ते हैं!’

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खैर, पांडे जी को थोड़े आराम की मंशा से हम वापिस घर ले आए और बैठक में लेटने के लिए आग्रह किया। इस बीच दोनों मामा और गांव के कुछ लोग उनसे बतियाते रहे। मेरी बड़ी मामी ने मुझे बुलाया और पूछा कि इन सज्जन से तुम्हारा क्या निजी रिश्ता है। मैंने यूं ही कह दिया कि अंकल यानी चाचा लगते हैं। फिर वह कहने लगीं कि वे और गांव की कुछ अन्य महिलाएं इन्हें एक-दो ‘परोनाचारी’ (यानी मेहमान नवाजी) के गीत जरूर सुनाएंगे। मैंने बहाना लगाया कि पंजाबी इन्हें नहीं समझ आती। मामी बोलीं कि न आए लेकिन हमें तो कई दिन सुकून मिलेगा कि हमने किसी नए मेहमान को कुछ सुनाए बगैर नहीं भेजा। यह ज्यादती भी पांडे जी के साथ हुई। उन्हें गीत का कोई फिकरा समझ नहीं आया और बाद में मुझसे सार पूछा तो मैंने बताया कि मुझे भी नहीं मालूम। इसके लिए तो देवेंद्र सत्यार्थी को कब्र से उठाना पड़ेगा! उन्होंने जोरदार ठहाका लगाया।

हमारा अगला पड़ाव मासी का गांव रुपेवाल था। वहां पांडे जी को दोपहर का भोजन परोसा गया और इतना सब कुछ देख कर वह डर-से गए। मैंने मासी के बेटे की पत्नी यानी अपनी भाभी के आगे बहाना बनाया कि पांडे जी की तबीयत ठीक नहीं है। वह इतना कुछ नहीं खा पाएंगे। पांडे जी ने कुछ खाया और बाकायदा जिद करके मेरे कजिन ने टिफिन में शेष खाना पैक करवा दिया ताकि बाद में खा लें। वहां भी छत पर ले जाकर पांडे जी को खैनी का सेवन करवाया गया। छत से पूरा गांव दिखता था। भाई को पता चल गया तो उसने नाराजगी जाहिर की कि खैनी नीचे भी बड़े आराम से खाई जा सकती थी क्योंकि उनके बड़े ताया खुद सिगरेट पीते हैं। वह उन दिनों इंग्लैंड गए हुए थे।

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गांव रुपेवाल का एक भी घर ऐसा नहीं जहां का कोई बाशिंदा विदेश न गया हो। इसी गांव के ऐन सामने विश्वविख्यात पर्यावरण प्रेमी संत बलबीर सिंह सीचेंवाल (अब राज्यसभा सांसद) का आश्रम है। यानी और रुपेवाल की सड़क के उस पार। वहां भी गए। संत सींचेवाल हिंदी बखूबी समझते हैं और उन्होंने पांडे जी से लंबी बातचीत की। पर्यावरण पर तो की ही। नानकशाही, पंजाब और पंजाबियत पर भी। राजनीति में भी संतजी की गहरी दिलचस्पी है। पांडे जी ने बहुत कुछ नोट किया। संत सीचेंवाल ने उन्हें मोतियों की एक माला तोहफे में दी और मेरी जानकारी के मुताबिक वह अब भी कहीं उनके सामान में जरूर होगी। गाड़ी में बैठ कर उन्होंने माला को चूमा और मेरे हाथ में पकड़ा दी ताकि खैनी मसलते वक्त उनके हाथ माला को न छू जाएं!

इसके बाद हम लोहिया होते हुए मेरे पुश्तैनी गांव पोहोर गए। पहले तो पुराने वामपंथी-समाजवादी पांडे जी ने पूछा कि रेलवे स्टेशन और कस्बे का नाम लोहिया क्या राममनोहर लोहिया के नाम पर रखा गया है। एक बुजुर्गवार ने जवाब दिया कि नहीं। लोहिया का जन्म इस स्टेशन के बनने और कस्बे के बसने की बहुत बाद हुआ था। खैर, पोहोर में पांडे जी ने सिर्फ फीकी चाय पी और कुछ घर का बना नमकीन खाया जो उन्हें इतना स्वादिष्ट लगा कि साथ बंधवा लिया। चार अलग-अलग घरों से लगभग छह सेर नमकीन इकट्ठा हो गया। सामान से गाड़ी की डिक्गी फुल थी। उसी दौरान रामेश्वर पांडे इन्हीं गांवों के साथ लगते सुलतानपुर लोधी भी गए। मैंने कई बार कहा कि यहां सिगरेट-शराब की खुली बिक्री होती है। किसी तरह का सरकारी, सामाजिक अथवा धार्मिक प्रतिबंध नहीं है लेकिन उन्होंने खैनी को हाथ तक नहीं लगाया। तब मेरा ही है यकीन पुख्ता हुआ कि वामपंथी कतिपय शख्सियतों के सच्चे कदरदान भी होते हैं।

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लौटते-लौटते लगभग रात हो चली थी। मेरे दोस्त का इसरार था कि उसके चचेरे भाई का घर पास ही गांव में है। वहां कुछ रसरंजन करके जालंधर की ओर निकला जाए। पांडे जी को एतरज नहीं था। लेकिन वह घर नहीं था बल्कि एक विशाल हवेली थी। आलीशान। एक एकड़ में तो उसका बगीचा था। स्विमिंग पुल तक बना हुआ था। पांडे जी को तो हैरान होना ही था, मैं भी हैरान हुआ। गेस्ट हाउस अलग से जिसके चारों ओर झीलनुमा जगमग करती रोशनी के साथ बनी हुई थीं। चचेरा भाई गांव का सरपंच था। खुलदिली से उसने स्वागत करते हुए घोषणा कर दी कि आप लोग सुबह निकलेंगे। रात यहीं रहेंगे। ऐसा ही हुआ।

वह थोड़ा पढ़ा-लिखा था और जानता था कि जालंधर से एक बहुत अच्छा हिंदी अखबार अमर उजाला निकलता है। उसे बताया गया कि उसके संपादक हमारे साथ हैं। मुर्गा-मीट बनने लगा। इस बीच टेबल पर दो बोतलें आ गईं। मालूम हुआ कि एक स्कॉच व्हिस्की है और दूसरी हाथ से निकाली गई उम्दा देसी दारू! श्री रामेश्वर पांडे ने सुना था कि देसी दारू की डिग्री नहीं होती लेकिन अच्छी हो तो लाजवाब होती है। दोस्त के चचेरे भाई ने यकीन दिलाया कि बड़े से बड़े अफसर और राजनेता उनके यहां की बनी देसी दारु को तरजीह देते हैं। यह उसी कोटे में से है, आप बेहिचक पीजिए और सुबह देखिए। सुबह तक इसका मीठा-मीठा नशा शरीर में रचा-बसा मिलेगा। शुगर के मरीजों के लिए तो यह वरदान है।

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पांडे जी ने चार पेग दो किस्म के नॉनवेज के साथ पूरे आनंद से लिए और देर रात के शानदार रसरंजन के बाद सुबह बगीचे में नंगे पांव और खिले चेहरे के साथ टहलते मिले। मैंने प्रणाम किया। कहने लगे अमरीक, कहते हुए संकोच हो रहा है-क्या देसी दारू की एक बोतल इनसे मांगना मुनासिब रहेगा? मुफ्त लेने का मन नहीं है। मैंने कहा सर, हम एक कस से अपने घर में हैं और दाम की बात करना इन लोगों का अपमान है। बोतल मांगना मुनासिब नहीं रहेगा बल्कि पूरी दो कैनी गाड़ी की डिग्गी में रखवा लेंगे। बशर्ते आपके घर वाले एतराज न करें। उन्होंने कहा कि कुछ नहीं होगा। लेकिन मुझे संकोच है। मैंने कहा मुझे तो नहीं क्योंकि दोस्त और उसके चचेरे भाई पर मेरा पूरा हक है।

खैर, भरपूर ‘कोटा’ गाड़ी की डिग्गी में रखवा दिया गया और बगीचे के कुछ शानदार फल। पांडे जी की ग्रामीण यात्रा की विदाई हुई। रास्ते में मुझसे बोले अखबार का काम निकलने ही नहीं देता, नहीं तो यूं ही घूमते रहें। अब 25 फ़ीसदी समझ पाया हूं कि पंजाब और पंजाबियत क्या है? यहां दूर के रिश्तों को भी कितनी अहमियत दी जाती है। इतनी जिंदादिल कौम के नौजवान उस खेमे में कैसे चले गए जिन के सरगनाओं के हाथ बेगुनाहों के खून से सने हुए हैं। मैंने कहा सर, यह बहुत लंबी चर्चा का विषय है और इस बाबत आपको किसी अलगाववादी पक्ष के विद्वान से मिलाऊंगा।

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एक बात उन्होंने बार-बार दोहराई कि 24 घंटों के बीच काफी हद तक जान गया कि पंजाबियत क्या है और पंजाब क्या? पंजाबियत की इज्जत के मद्देनजर ही मैंने गांव के उन घरों में खैनी का सेवन नहीं किया और पान की तलब भी नहीं लगी। हमें पंजाबियत का सम्मान करना चाहिए तो यह जांबाज कौम पूरे देश की हिफाजत कर सकती है! प्रसंगवश, अपने किसी निजी काम के सिलसिले में रवींद्र कालिया जालंधर आए तो पांडे जी से मिलने अमर उजाला दफ्तर भी आए। दोनों के बीच बातचीत चल रही थी कि अचानक मेरा नाम पुकारा गया। पहुंचा तो पांडे जी ने कालिया जी से परिचय करात हुए कहा कि इसकी वजह से मैंने पंजाब और पंजाबियत के कुछ रंग देखे हैं और क्रांतिकारी स्थानीय पंजाबी कविता से रूबरू हुआ हूं। सचमुच नक्सल लहर की जुझारू पंजाबी कविता अंतरराष्ट्रीय स्तर की है। मैंने बस इतना भर कहा कि सर मैं तो डाकिए तथा गाइड की भूमिका में था। देखा और समझा तो आपकी इंद्रियों ने है। सुनकर वह मुस्कुराए और कालियाजी ने ठहाका लगाया।

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