मदन मोहन सोनी-
प्रख्यात फिल्म अभिनेता रणदीप हुड्डा (Randeep Hooda) ने मणिपुर की अभिनेत्री लिन लैशराम से शादी रचा ली। मैतेई रीति रिवाज से हुई इस शादी में दुल्हन लिन लैशराम (Lin Laishram) सोने के गहनों से लदी दिखाई दी।
रणदीप लिन की इस शादी ने पिछले कई महीनों से नफरत और हिंसा की आग में झुलस रहे मणिपुर को प्यार का मरहम लगाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस विवाह ने उत्तर भारत और उत्तर पूर्व भारत के रिश्तों को मजबूत किया है।
रणदीप और लिन (Lin Laishram) की इस शादी ने इतिहास के कई पन्नों को भी फिर से खोला है। महाभारत काल में इंद्रप्रस्थ के युवराज अर्जुन का विवाह मणिपुर की राजकुमारी चित्रांगदा से हुआ था। अब 5000 साल बाद उसी इंद्रप्रस्थ के इलाके के हरियाणवी रणदीप हुड्डा का विवाह उसी राजसी अंदाज में हुआ जहां दुल्हन लिन परंपरागत सोने के आभूषण पहने नजर आई।
रणदीप की दुल्हनिया ने जिस तरह से शाही अंदाज में गहने पहने हुए थे, उसने बड़े बड़े रईसों की शादी की चमक को फीका कर दिया है। रणदीप और लिन की शादी में जहां मैतेई परंपरा की दिव्यता झलक रही थी तो वहीं सोने के गहनों की चमक भव्यता प्रदर्शित कर रही थी।
रंगनाथ सिंह-
हैरत से तक रहा है जहाने-वफा मुझे… मीडिया में नौकरी करने की वजह से आपको डायना के ब्याह से लेकर जॉनी डेप के तलाक तक की खबर पर नजर रखनी होती है। बाकी लोगों के लिए यह मनोरंजन होगा, लेकिन मीडिया में यह काम का हिस्सा है। सेलेब वेडिंग एक पूरी बीट बन चुकी है। पत्रकार अनुरंझन झा ने वेडिंग केंद्रित एक टीवी चैनल ‘शगुन टीवी’ लॉन्च किया था। आर्थिक मामलों के जानकार आजकल आँकड़ों में बताने लगे हैं कि भारत में शादी-ब्याह कितने हजार करोड़ का कारोबार है।
कुछ साल पहले एक भारतीय अभिनेत्री का ब्याह हुआ तो उनके बिजनेस एक्यूमेन की बहुत तारीफ हुई क्योंकि उन्होंने शादी से जुड़ी लगभग हर चीज को कमॉडिटी या मर्चेंडाइज में कनवर्ट कर दिया था। दूसरी तरफ हमारे बीच ऐसे राजनेता भी हैं जिनके चुनावी हलफनामे में उनकी कुल जितनी जायदाद बतायी गयी है, उससे ज्यादा उन्होंने अपनी शादी में एक-दो दिन में खर्च कर दिया।
आदर्श रूप में कहा जाए तो किसी अपरिचित की शादी से किसी अन्य का कोई लेना-देना नहीं होता लेकिन इस आदर्श की सीमा वहीं समाप्त हो जाती है, जहाँ से सेलेब्रिटी की दुनिया शुरू होती है। अमीर लोग, प्रभावशाली लोग, प्रसिद्ध लोग, कैसे रहते हैं, क्या करते हैं, क्या खाते हैं, इत्यादि जानने के लिए बाकी की 90 प्रतिशत दुनिया बेकरार रहती है। जो बेकरार नहीं रहते, उनमें भी मेरे जैसे काफी होंगे जो गाहे-बगाहे अमीरों के रहन-सहन में ताक-झाँक करने से खुद को नहीं रोक पाते।
अगर बात देखने-दिखाने भर की हो तो ज्यादा बात न होती। बात बढ़ती है, रोलमॉडलिंग की मानवीय प्रवृत्ति की वजह से। कोई कितना भी चतुर-चालाक क्यों न हो, मेरी राय में कम से कम 95 प्रतिशत मनुष्यों को रोलमॉडल की जरूरत पड़ती है। बड़े स्तर पर देखें राम, बुद्ध, मूसा, ईसा, मोहम्मद, मार्क्स, लेनिन, चे ग्वेरा इत्यादि भी रोलमॉडल ही हैं। लोग उनका अनुसरण करते हैं। वैचारिक दुनिया की तरह भौतिक दुनिया में भी रोलमॉडलिंग के बिना ज्यादातर लोगों का काम नहीं चलता।
आमतौर पर यही सत्य है कि आदमी वही चाहता है, जो उसने कहीं देखा-सुना होता है। कैमरे के आविष्कार से पहले, देखने और चाहने के बीच ऐसा लॉन्ग डिस्टैंस रिलेशन नहीं था। उसके पहले की चाहना ज्यादातर श्रव्य, अनुभव एवं स्मृति आश्रित थी। अब बहुत सारी चाहतें, दृश्य आश्रित है। ऐसे में सेलेब्रिटी वेडिंग को रिप्लिकेट करने की वृत्ति स्वाभाविक है। इसके उदाहरण हमें अपने आसपास अक्सर दिखते हैं।
दिल्ली-मुंबई के लोगों का नहीं पता लेकिन काशी में किसी जमाने में दीवार पर लिखा मिलता था कि महँगी शादियाँ हमें गरीब बनाती हैं! दहेज अभिशाप है, लड़का-लड़की एक समान, बच्चे दी ही अच्छे। जाहिर है कि भारत की जनसंख्या इस बात की गवाह है कि दीवार पर लिखे नारों को हर कोई समान गम्भीरता से नहीं लेता लेकिन कुछ लोगों पर वो असर करते हैं, इसीलिए ही वे लिखे जाते हैं।
कई लोगों ने रणदीप हुड्डा की शादी की तुलना किसी गरीब की शादी से कर के बाइनरी अपोजिशन बनाने की कोशिश की। रणदीप हुड्डा की शादी ने बड़े-बड़े अमीरों की शादी को फीका कर दिया मतलब वह भी अमीर लेकिन उसने अपने अमीर वर्ग के बीच बाकियों की शादी को फीका कर दिया। अमीर लोगों के बीच उन लोगों के बीच ही अपनी शादी को स्पेशल बनाने की हिरिस ज्यादा पायी जाती है। तर्क सिद्धान्त और तुलनात्मक अध्ययन के सिद्धान्त, दोनों ही इसकी पुष्टि करेंगे कि रणदीप की शादी की तुलना उसके वर्ग की अन्य शादियों से ही होगी। लाल राशन कार्ड धारकों को इतनी फुरसत भी नहीं मिलती होगी कि वो मेरे फेसबुक पर आकर जिरह करें। मिडिल क्लास के लोगों से मेरा अनुरोध रहता है कि कृपया गरीब की पीठ के पीछे छिपकर जिरह न किया करें। जो कहना है अपने क्लास में रहकर सीधे-सीधे कहा करें।
महँगी शादियों की आलोचना वाले नारे जिन लोगों ने जिस सोच से दीवारों पर लिखे-लिखवाए होंगे, उसी सोच के प्रभाव में मुझे रणदीप की शादी दिव्य और सात्विक लगी और मैंने उसपर पोस्ट लिखी। मेरे अन्दर इतनी सलाहियत नहीं है कि पहली नजर में पहचान सकूँ कि दूल्हन के लिबास में कितना गोल्डेन गोटा है, और कितना गोल्ड। उसपर ध्यान तब गया, जब कुछ लोगों की टिप्पणी आयी। उसके बाद गहने देखे तो वो परंपरागत ही दिखे। दूल्हन ने न तो डिजाइनर लहँगा पहन रखा था, न जुलरी। उसने परंपरागत किस्म के गहने ही पहने हैं। कुछ लोगों की टिप्पणी से लगा कि इस तरह के गहने पहनने वाली दूल्हन में सादगी नहीं हो सकती! यह उनकी दृष्टि है। मेरी दृष्टि ने जो देखा, मैंने वही लिखा।
मेरी राय में रणदीप हुड्डा ने अपनी शादी से एक रोलमॉडल प्रस्तुत किया है। कुछ लोगों को उनका रोलमॉडल पसन्द आया, जिनमें से एक मैं भी हूँ क्योंकि जब एक इंटरनेशनल मीडिया संस्थान में एक दशक से ज्यादा समय तक काम करने वाले एक सज्जन ने मुझे बताया कि अपनी शादी के लिए उन्हें अपना प्रोविडेंट फंड तुड़ाना पड़ा तो मुझे झटका लगा। यह बात एक दशक पहले की है लेकिन मुझे आज तक नहीं भूली है। उसके बाद से ऐसे कई तजुर्बे हो चुके हैं। तब मुझे बनारस में दीवारों पर लिखे नारे याद आने लगे। महानगरों में रहने वाले मिडिल क्लास के लिए शादी कम से 10 साल के सेविंग को स्वाहा करने का जरिया बन चुकी है। कुछ लोग यह खुशी-खुशी करते हैं, कुछ लोग लोक-लाज के डर से।
इस विषय पर निजी चर्चा के दौरान एक मित्र ने कहा था कि शादी एक ही बार होती है, तो क्या दिक्कत है दस साल की सेविंग खर्च करने में! उनकी दलील सुनने के बाद मैंने इस विषय पर चर्चा करनी बन्दी कर दी थी। एएनआई से रणदीप की शादी के वीडियो और फोटो आने लगे तो बचपन में पढ़े पुराने नारे कुलबुलाने लगे। कम से कम मीडिया वाले समझते होंगे कि एएनआई को फॉलो करना भी एक रोग है। जिसे आपको दूसरों ने लगाया होता है लेकिन आप ताउम्र बीमार रहते हैं। एएनआई फॉलो करने की लत या बीमारी न होती तो मुझे पता भी नहीं चलता कि रणदीप भाई का ब्याह हो गया है। वेडिंग जर्नलिज्म और उससे जुड़ी चीजों से मेरा कोई निजी नाता नहीं है।
सोशलमीडिया की एक बात अच्छी है कि इसने दुनिया की एक बहुत बड़ी गुत्थी सुलझा दी है। वह गुत्थी है कि लोग सोचते क्या हैं! किसी जमाने के लेखक-कलाकार-नेता क्या सोचते हैं, यह हम सब जानते हैं। आम लोग क्या सोचते हैं, यह जानने का इतना सटीक तरीका पहले नहीं था। नाऊ वी नो ईच अदर वेरी वेल टाइप मामला हो गया है। इंस्टैंट पब्लिक रिएक्शन के जमाने में व्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, तोल्सतोय, प्रेमचंद होते तो उन्हें पता चलता कि पाठकीय प्रतिक्रिया क्या होती है! खैर, जैसा की गांधी जी ने कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है! एक मित्र ने अपनी फेसबुक पर बैनर लगाया था कि मेरे फेसबुक ही मेरा सन्देश है! उसे आगे बढ़ाते हुए कहना चाहूँगा कि इंस्टैंट सोशलमीडिया कमेंट ही पाठकों के असल सन्देश हैं।
दोस्तों, रणदीप और लिन का शुक्रिया कि उनकी शादी की एक तस्वीर के बहाने हम लोग एक दूसरे की सोच के बारे में और बहुत कुछ जान गये। शेष, फिर कभी। आज के लिए राम-राम।