तख्ता-पलट : रवीश कुमार तो एनडीटीवी ब्रांड से बहुत बड़े हैं!

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संजय कुमार सिंह-

एनडीटीवी तख्ता-पलट से जो सबसे दिलचस्प तथ्य सामने आया है वह यह कि पत्रकार रवीश कुमार एनडीटीवी ब्रांड से बहुत बड़े हैं। रवीश को बधाइयां और शुभकामनाएं – @suchetadalal मुझे लगता है कि इसके लिए प्रणय राय की भी प्रशंसा की जानी चाहिए – कोई लाला अपने संपादक को खुद या संस्थान से बड़ा नहीं होने देता है। तक से लेकर जी में दसियों उदाहरण हैं।

उमेश जोशी-

ब्रांड बड़ा करने के लिए एक चेहरा तो आगे रखना पड़ेगा, यह बात प्रणय रॉय भली तरह जानते थे। अंधों की दौड़ में काना को विजयी होना ही है। जब सारे चैनल गोद में बैठ गए तो एकमात्र यही चैनल था जो तस्वीर का दूसरा रुख दिखा रहा था; यानी एक खास विचारधारा के दर्शकों के लिए यह अंधों में काना राजा था। एनडीटीवी भी गोद में बैठे चैनलों की दौड़ में शामिल हो जाता तो Ravish Kumar का ‘जन्म’ नहीं होता। रवीश कुमार (मुझे नहीं मालुम है कि रविश या रवीश) संपाकीय नीति की ‘उपज’ है। आज एनडीटीवी और रवीश एक दूसरे के पूरक हो गए हैं। रवीश का अस्तित्व एनडीटीवी से ही है और एनडीटीवी का रवीश से। मैने तो रवीश कुमार का दंभ भी देखा है; अन्य पत्रकारों को इतना छोटा मानता है कि उनके ईमेल का जवाब तक नहीं देता है।

संजय कुमार सिंह-

Umesh Joshi जी, रवीश की बुराइयां या उसका दंभ अपनी जगह लेकिन अभी वह मुद्दा नहीं है। प्रणय राय ने अगर ब्रांड बनाने के लिए भी रवीश को आगे किया जो उनका रिश्तेदार नहीं है, निवेशक नहीं है तो बड़ी बात है। ऐसे मामलों में भी अमूमन लोग रिश्तेदारी से आगे नहीं बढ़ते। और फिर वसूली करवाते हैं। रवीश ने प्रणय राय के लिए वसूली नहीं की (और की तो पकड़े नहीं गए) और प्रणय राय ने किसी गैर रिश्तेदार को ऐसा करने दिया – दोनों ही बातें प्रशंसनीय है।

बिपेंद्र बिपेन-

Sanjaya Kumar Singh जी, प्रोफेशनल स्तर पर प्रणब राय खुद सबसे बड़े ब्रांड हैं। कोई टक्कर नहीं। रवीश भेड़ियाधसानी ब्रांड है। मैं प्रोफेशनल प्रणब राय का प्रशंसक हूँ लेकिन व्यवसायी प्रणब का नहीं। NDTV की नींव में इस्तेमाल ईंट किसका है जानकर जानते हैं।

प्रतिमा त्रिपाठी-

Pranav Roy knew the True Value of Ravish Kumar as a reporter.

संजय कुमार सिंह-

Pratima Tripathi जी. ऐसा नहीं है। अपना ये महत्व तो रवीश को भी नहीं मालूम था। वो भी कई तरह के काम पर हाथ आजमा चुके हैं, परेशान रहे हैं और बहुत कुछ करने के लिए तैयार थे। जब सब ठीक रहा तो गाड़ी चल पड़ी। प्रणय राय की खासियत यह है कि उन्होंने रवीश को इंडियाज मोस्ट वांटेड का सुहैब इलयासी नहीं बनने दिया और ना किसी फर्जी स्टिंग करने वाले को मौका दिया और उसे तिहाड़ी बनाया।

उमेश जोशी-

संस्थान से बड़ा कोई नहीं है, ना प्रणय रॉय ना रवीश कुमार। इन दोनों का अस्तित्व एनडीटीवी से है। प्रणय रॉय चाहें तो एक झटके में रवीश को एनडीटीवी से अलग कर उससे वो प्लेटफॉर्म छीन सकते हैं जिस पर रवीश का कद बड़ा दिखाई देता है। दूसरी ओर एक झटके में रवीश एनडीटीवी से अलग होकर प्रणय रॉय को निहत्थे योद्धा की तरह कर सकते हैं। दोनों के अस्तित्व और हैसियत पर असर पड़ेगा, लेकिन एनडीटीवी टीवी अपनी जगह ज्यों का त्यों रहेगा। मालिक अपने संस्थान को हमेशा आगे बढ़ाने की सोचता है। इस काम में जो भी उपयोगी दिखता है, उसे काम करने की पूरी स्वतंत्रता देता है। एक बुद्धिमान मालिक संस्थान के लिए उपयोगी कर्मचारियों के कद कभी नहीं मापता है। वह संस्थान के लिए काम करने वालों का कद मापने में अपना समय बर्बाद नहीं करता। वो जानता है कि कद कितना भी बढ़ जाए, वो रहेगा मेरा नौकर ही। कद मापने का काम संस्थान से बाहर बैठे लोग ही करते हैं।

मुकेश असीम-

2009 में अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने एनडीटीवी को 350 करोड़ रुपए दिये। इंडियाबुल्स से लिया हुआ पुराना कर्ज चुकाने के लिए।
ब्याज की दर – 0%
अर्थात अंबानी एनडीटीवी को 13 साल से औसतन 35 करोड़ रुपए सालाना का ‘अनुदान’ दे रहा था, जिससे एनडीटीवी बिकने या दिवालिया होने से बचा हुआ था। एनडीटीवी को बचाने में अंबानी की कोई तो ‘दिलचस्पी’ रही होगी।

कुछ महीने पहले अंबानी का गठजोड़ एक और मीडिया कंपनी नेटवर्क18 से हो गया। अब एनडीटीवी में अंबानी की ‘दिलचस्पी’ अपना मूलधन निकालने की रह गई। इसके लिए वह इस ‘दिलचस्पी’ को बेचने के लिए बाजार में था और यह बात बाजार में आम होने की वजह से एनडीटीवी का शेयर दाम बढता ही चला जा रहा था। एनडीटीवी के प्रोमोटरों को अगर यह खबर नहीं थी तो इस चैनल को खबरें मिलती कहां से हैं?

खैर, अडानी मीडिया कंपनी खरीदने के इरादे का ऐलान कई महीने पहले ही कर चुका था। आखिर अंबानी ने एनडीटीवी में अपनी ‘दिलचस्पी’ अडानी को बेच दी। रिलायंस की ओर से परिमल नाथवानी द्वारा बाकायदा अडानी को इसके लिए बधाई दी गई है।

एनडीटीवी पिछले तीन दशक से भारतीय सत्ता तंत्र के बढते फासिस्ट रूझान के सफर में अत्यंत उपयोगी सेफ्टी वाल्व का काम करता रहा है, बहुतों के दिमाग में अभी भी जनतंत्र का भ्रम बनाए हुए है। यह इसकी सबसे बड़ी कामयाबी और शक्ति है। चुनांचे उसकी एक कीमत है। यही कीमत उसमें अंबानी और अडानी जैसों की ‘दिलचस्पी’ की वजह है। इस कीमत को बनाए-बचाए रखने के लिए एक लडाई होती दिखाई देना भी जरूरी है, दिखेगी भी।

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