अनिल भास्कर-
रवीश कुमार के इस्तीफे पर जब तक सोशल मीडिया के लड़ाके तलवार भांजते रहे, इग्नोर करता रहा। लेकिन जब पत्रकारिता के कई नामवर कवच-कुंडल के साथ इस मैदान में हुंकार भरने लगे तो स्वाभाविक रूप से असहज होने लगा। रवीश एक उम्दा टीवी प्रेजेंटर हैं, इसे उनके धुर विरोधी भी स्वीकार करेंगे। डिबेट पैनल में शामिल चुनिंदा अतिथियों से व्यंग और तंज भरे कुटिल अंदाज़ में चर्चा पर भी ऐतराज नहीं। इसे उनका सिग्नेचर स्टाइल मानकर स्वीकार किया जा सकता है।
लेकिन उन्हें आधुनिक पत्रकारिता का धर्मगुरु मानते हुए यह घोषणा करना कि उनके एनडीटीवी से नाता तोड़ लेने भर से एक युग का अंत हो गया, समझ से परे है। सवाल यह कि अगर किसी पेशेवर का किसी संस्थान विशेष से बिलगाव युगांत है तो फिर उस पेशेवर की शख्सियत उसकी निजी उपलब्धि है या संस्थान की माया? इस पर सोचा जाना चाहिए।
दूसरे, जिस तरह पत्रकारीय निष्पक्षता और पक्षधरता का भेद मिटाने का कलंक कथित गोदी मीडिया के नुमाइंदों पर लगता रहा है, उससे क्या खुद रवीश कुमार बरी दिखते हैं? क्या यह सच नहीं कि उनकी पत्रकारिता में एक खास पक्षधरता साफ परिलक्षित होती रही है? वह भी अब तक एक खास एजेंडे को ही आगे बढ़ाते नज़र आए हैं? अगर ऐसा नहीं तो फिर उनकी आम पहचान मोदी विरोधी की क्यों? फिर वो जो कर रहे थे वह मोदी विरोधी तमाम राजनीतिक दलों के नुमाइंदों से इतर कैसे? क्यों रवीश के समर्थक और विरोधी भी अपने सियासी रुझानों के सापेक्ष बंटे हैं? इन सवालों पर भी सोचा जाना चाहिए।
रवीश कुमार टीवी स्टूडियो में बैठकर जिस तरह एक दल विशेष की सरकार के खिलाफ मुहिम चलाते रहे, उससे कहीं ज्यादा मुखर विरोध तो विरोधी दलों के प्रवक्ता उसी स्टूडियो में और उनके ही शो में करते रहे। अगर इस तरह रवीश देश की सोई या भटकी हुई जनता को जगा रहे थे तो यह काम कहीं ज्यादा ऊंची आवाज में विरोधी नेता-प्रवक्ता या विरोधी दल के समर्थक करते रहे। तो क्या रवीश से बड़ा सामाजिक-राजनीतिक मार्गदर्शक पत्रकार उन्हें ही नहीं मान लिया जाना चाहिए? जिस सरकार के विरोध का एजेंडा रवीश चलाते रहे, उसके खिलाफ अब तक कितने तथ्यात्मक खुलासे किए उन्होंने? चाहते तो नया ‘तहलका’ क्रिएट कर सकते थे। चैनल प्रबंधन का अभूतपूर्व समर्थन हासिल था उन्हें।
जरा सोचिए, सिर्फ विपक्षी दलों द्वारा सरकार के खिलाफ रची जाने वाली अवधारणाओं को टीवी चैनल के जरिए अपने अंदाज में जनता के सामने परोसने के अलावा उन्होंने सरकार की किन कारगुजारियों का खुलासा अपने पत्रकारीय कौशल से किया? दूसरी तरफ, अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ के पत्रकार यही कौशल लगातार दिखा रहे हैं। ‘टेलीग्राफ’ के पन्नों पर भी यह कौशल स्पष्ट दृष्टिगोचर है। लेकिन उन रिपोर्टरों के नाम तक हमें याद नहीं। इसलिए कि वे सिर्फ तथ्यात्मक खुलासे तक सीमित रहते हैं, पक्षधरता का ठेका नहीं उठाते। आज के ज्यादातर हिंदी अखबार जरूर यह जज्बा और हौसला नहीं दिखा पा रहे, जो बेहद अफसोसनाक है। उनकी तारीफ सिर्फ इसलिए हो सकती है कि वे आज भी विभाजन रेखा पर खड़े हैं।
निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए हमें मीडिया एक्टिविज्म और पार्शियलिज्म के अंतर को ठीक से समझना होगा। मीडिया एक्टिविज्म के तहत किसी खास विषय, मुद्दा या प्रकरण की तह तक पहुंचने और उसे पूरी निष्पक्षता के साथ जनहित में सार्वजनिक करने की प्रवृत्ति होती है, जबकि किसी दल, सम्प्रदाय या अन्य जनसमुच्चय के पक्ष या विपक्ष में इसका विश्लेषण/प्रस्तुतिकरण पार्शियलिज्म। इस लिहाज से दो खेमे में बंटी मीडिया मंडली एक्टिविज्म के नाम पर सिर्फ पार्शियलिज्म करती नज़र आएगी। चाहे सियासी लकीर के आर हो या पार। जिसे हम गोदी मीडिया कहते हों या लुटियंस मीडिया। एक्टिविज्म तो किसी ओर नहीं।
यह एक्टिविज्म इन पारंपरिक मीडिया से कहीं ज्यादा मुखर तो सोशल मीडिया पर है। स्टिंग ऑपरेशन तक अब पार्टियां खुद कर रही हैं, जिन्हें तमाम पारंपरिक मीडिया सिर्फ अपने-अपने गुण-धर्म के हिसाब से अपने-अपने दर्शक-पाठक समूहों तक पहुंचा रहा है।
Arun Sathi
December 4, 2022 at 3:57 pm
लेकिन उन्हें आधुनिक पत्रकारिता का धर्मगुरु मानते हुए यह घोषणा करना कि उनके एनडीटीवी से नाता तोड़ लेने भर से एक युग का अंत हो गया, समझ से परे है।
सटीक