नलिनी सिंह की घटिया मानसिकता को समझना-जानना है तो उनकी बेटी द्वारा लिखित उपन्यास Daughter By Court Order पढ़ें

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Sanjaya Kumar Singh : पहली बार अंग्रेजी का कोई उपन्यास पूरा पढ़ा। उपन्यास हिन्दी के भी मैंने लगभग नहीं पढ़े हैं। विज्ञान का छात्र रहा हूं और इंजीनियरिंग पढ़ना था इसलिए साहित्य-कहानी में दिलचस्पी रही नहीं। वो तो पत्रकारिता का चस्का लगा और जनसत्ता में नौकरी मिल गई कि दिल्ली चला आया और जब तक तय हुआ कि पत्रकारिता की नौकरी मेरे लिए नहीं है, अनुवाद करके गुजर-बसर करने लायक कमाने लगा था। नौकरी छोड़कर भी काम चलता रहा और मैं पत्रकार ही रह गया। पर यह अलग मुद्दा है और बताना यह था कि अंग्रेजी का जो पहला उपन्यास मैंने पढ़ा वह क्या है और क्यों पढ़ा।

पत्नी अस्पताल में थीं और लैपटॉप पर मैं काम नहीं करता, कई दिन अस्पताल में रहने के कारण अखबार पढ़ने के बाद भी समय बच जा रहा था तो लगा कि एक चर्चित उपन्यास पड़ा है, क्यों नहीं उसे पढ़ डाला जाए। और पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। उपन्यास है- ‘डॉटर बाई कोर्ट ऑर्डर’ और इसे लिखा है मशहूर टीवी पत्रकार नलिनी सिंह की बेटी रत्ना वीरा ने।

असल में यह कहानी रत्ना वीरा की अपनी कहानी है और आदर्श बेटी के मेरे पैमाने पर रत्ना एकदम फिट बैठती हैं। बिहार के एक जमीन्दार परिवार में पैदा हुआ और जमशेदुपर के टेल्को कॉलोनी में पला-बढ़ा मैं जब दिल्ली आया तभी महिलाओं पर अत्याचार आदि के बारे में पता चला और घरेलू हिन्सा रोकने के लिए कानून बनाए जाने तक की स्थितियों के बारे में जानने के बाद महिला सशक्तिकरण के बारे में मेरी राय है कि बेटी को इतना मजबूत बनाया जाना चाहिए कि जरूरत पड़े तो पिता और भाई से भी लड़कर अपना हक ले सके। रत्ना वीरा की कहानी की मूल किरदार ने पिता और भाई से भी क्रूर अपनी मां से लड़ाई लड़ी। उस मां से जिसके अच्छे राजनैतिक संपर्क हैं और जो उसे जिन्दा दफन करने की धमकी देती है। दूसरी ओर, उसके दो छोटे बच्चे हैं और पति से भी अलग हो चुकी है।

कहानी की मुख्य किरदार अरण्या के पति कृष ने हालांकि उसका पूरा साथ दिया है पर यह लड़ाई उसने लगभग अकेले लड़ी है। पारिवारिक स्थितियां ऐसी थीं उसकी बुआ (बिहार में फुआ कहते हैं और पुस्तक में भी फुआ ही कहा गया है) जो उसकी सहेली जैसी थीं मुकदमे के दौरान उससे खुलकर बातें नहीं करती थीं और पहली बार खुलकर बात तब की जब मामला निपट गया। कहानी यह है कि अरण्या की मां उसके पढ़े लिखे पिता को किसी लायक नहीं रहने देती और ना वो कोई काम करते हैं और ना कमाते हैं। दादा के देहांत के बाद मां संपत्ति पर कब्जा करना चाहती हैं और इसमें अपनी बेटी को कोई हिस्सा नहीं देती हैं। इससे बचने के लिए वे अदालत को बताती ही नहीं हैं कि उनकी कोई बेटी भी है और जब बेटी को पता चलता है कि मां दादा की संपत्ति में उसे हिस्सा नहीं देना चाहती हैं तो वह मुकदमा दायर करती है और इस दरम्यान मां अदालत में कहती हैं कि उन्हें याद नहीं है कि उनकी कोई बेटी भी है। आखिरकार अदालत अरण्या को मान्यता देती है और वह अदालत के आदेश से बेटी का हक पाती है। इसी लिए पुस्तक का नाम है – डॉटर बाई कोर्ट ऑर्डर।

आंखें खोल देने वाली कहानी। महिलाओं और बेटियों को मजबूत बनाने की हवाई बातें करने वालों को बताती है कि आप बेटियों को पढ़ाओ बाकी वो खुद संभाल लेगी। काश यह पुस्तक हिन्दी में होती तो वो लोग भी इसे पढ़ पाते जो बेटियों को सिर्फ शादी करने के लिए पढ़ाते हैं और पढ़ाने पर खर्च करने की बजाय दहेज इकट्ठा करते हैं और आखिरकार दुल्हा खरीद लाते हैं या फिर कम पैसे होने का बहाना बनाकर बेमेल शादी कर देते हैं उसका हिस्सा नालायक बेटे को देकर उसे भी किसी लायक नहीं छोड़ते और यह कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।

वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह के फेसबुक वॉल से.

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