राजेश प्रियदर्शी-
बुरा वक़्त कैसा होता है यह अप्रैल का महीना हमें दिखा रहा है. बीबीसी की पुरानी साथी, ज़ोरदार पत्रकार और बेहतरीन प्रसारक रेणु अगाल ने भी साथ छोड़ा.
रेणु कुछ दिनों पहले सड़क हादसे का शिकार हुई थीं. नोएडा के कैलाश हॉस्पिटल में उनका निधन हो गया. ऊर्जा और गर्मजोशी से भरपूर रेणु हमारे दौर की बेहतरीन जर्नलिस्ट थीं,
इन दिनों हिंदी ‘द प्रिंट’ का संपादन कर रही थीं. रेणु से वीमेन प्रेस क्लब में लंच पर मिलने का करार था जो अब कभी पूरा नहीं होगा. विदा रेणु, जब भी बीबीसी के हमारे पुराने दिनों की बात होगी तुम्हारी बहुत याद आएगी.
समीरात्मज मिश्रा-
आज सुबह-सुबह यह हृदय विदारक ख़बर मिली।
बीबीसी में हमारी वरिष्ठ साथी रहीं और इस समय द प्रिंट की संपादक रेणु अगाल जी का निधन हो गया। पिछले महीने एक सड़क दुर्घटना में उन्हें गंभीर चोट आ गई थी और तब से अस्पताल में ही थीं।
बीबीसी में उनके स्नेहिल व्यवहार को कभी भूल नहीं सकता। इतनी वरिष्ठ पत्रकार होते हुए भी हमेशा मित्रवत स्नेह देती थीं। बीबीसी में उन्होंने बहुत कुछ सिखाया था।
रेणु जी से अक्सर फ़ोन पर बातचीत होती थी और मिलना भी होता था। कोरोना त्रासदी के दौरान भी कई बार बात हुई और हर बार अपने चिर-परिचित अंदाज़ में उन्होंने कहा, “यार, ये मुसीबत (कोरोना त्रासदी) कम हो तो मिलें हम लोग”
आज उनके यही शब्द कानों में गूंज रहे हैं।
अलविदा रेणु जी।
इरा झा-
हमारी प्यारी दोस्त रेणू अगाल का अभी अभी निधन हो गया।वो प्रिंट हिंदी की संपादक थीं। उसे जानते कितना वक्त हुआ ये याद नहीं पर शायद मेरी तरह हर किसी को लगता था कि हम उसे जन्म जन्मांतर से जानते हैं। पता नहीं विधाता का ये कैसा न्याय है।इस वक्त उसके परिवार को उसकी सख्त जरूरत थी। रेणु पूरी तरह चिंता मुक्त जाए और दूसरी दुनिया में सुकून से रहे यहीं कामना है।मेरी प्यारी रेणु तुम्हें इरा दी का बहुत प्यार।
प्रिय दर्शन-
क़रीब दो घंटे एक तस्वीर खोजता रहा- रेणु अगाल के साथ। वह बहुत प्यारी सी तस्वीर थी। जाने कहां खो गई। अब कभी नहीं मिलेगी।
जैसे रेणु अगाल भी नहीं मिलेगी। वह भी जाने कहां खो गई। उसके साथ हुए हादसे की ख़बर सुनी थी। सोचा था, ठीक हो जाएगी तो इस बार मिलेंगे। यह वह वादा था जो फोन पर हमने कई बार दुहराया था।
वह मेरे उपन्यास ‘ज़िंदगी लाइव’ के बिल्कुल पहले पाठकों में थी। तब उसने पेंगुइन छोड़ा ही था। मैंने उसे कंप्यूटर पर टंकित प्रति भेजी थी। जब वह जगरनॉट से जुड़ी तो उसका फोन आया- अगर किसी को उपन्यास नहीं दिया है तो उसे हम छापेंगे। उसके आग्रह की आत्मीयता भी एक वजह थी कि मैंने हार्पर इंडिया के साथ पत्र व्यवहार के बिल्कुल आख़िरी चरण में पांव खींच लिए और उपन्यास जगरनॉट को देने का फ़ैसला किया। रेणु की ही वजह से जगरनॉट ने किसी भी भाषा में सबसे पहला करार मुझसे किया था। उपन्यास का अंग्रेजी में अनुवाद भी करवाया। तब हम आपस में पार्टी करने का खूब वायदा करते, लेकिन ग़म रोज़गार के ऐसी हसरतों पर भारी पड़ते।
हालांकि जगरनॉट से जिस तरह किताब छप कर आई, उससे मैं बहुत निराश हुआ। मैंने अपनी निराशा छुपाई नहीं और रेणु से बहुत तीखे ढंग से बात की। इस बातचीत के बाद हम दोनों एक-दूसरे से आहत थे। इसके बाद अगली बातचीत दोनों तरफ़ से इस खयाल से लैस थी कि हम दोनों एक-दूसरे को चोट नहीं पहुंचाएंगे- अतिरिक्त सतर्क, अतिरिक्त विनम्र और पारस्परिक शिकायतों के प्रति भी सद्भाव से भरी हुई।
लेकिन रेणु को एहसास था कि मेरी किताब के साथ शायद न्याय नहीं हुआ। किताब का दूसरा संस्करण आया तो उसने आइआइसी की अनेक्सी में एक कार्यक्रम रखवाया। इस कार्यक्रम में उदय प्रकाश और संजीव कुमार शामिल थे।
बहरहाल, वह जगरनॉट भी छोड़ गई। हालांकि इसके बाद भी हमारी बातचीत का सिलसिला चलता रहा, बल्कि वह ज़्यादा सहज हो गया, क्योंकि उस पर अब लेखक-प्रकाशक संबंध का बोझ ढोने की मजबूरी नहीं थी।
अक्सर उसके संदेश किसी का फोन नंबर लेने के लिए आते। हम बात करते और मिलने के वादे को किसी रूढ़ि की तरह दुहराया करते।
वह बहुत सहज और शालीन थी- और बहुत चौकन्ने ढंग से एक रेखा अपने चारों ओर खींचे रहती थी। मुझे अक्सर लगता था कि वह मूलतः अंग्रेजी से हिंदी में आई थी और हिंदी साहित्य की गहराई से- चाहे वह जैसी भी हो, उसका परिचय नहीं था। लेकिन इस अपरिचय को वह बहुत सहजता से साहित्य की अपनी कुल समझ से पाट लिया करती थी।
उससे मेरी पहली मुलाकात राज्यसभा टीवी में उर्मिलेश जी द्वारा किए जाने वाले कार्यक्रम ‘मीडिया मंथन’ की रिकॉर्डिंग के दौरान हुई थी। उसके बाद हमें मित्र बनने के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ा। बस यह नहीं पता था कि जीवन की बेख़बरी भरी यात्रा में वह इस अनायास ढंग से हमें छोड़ भी जाएगी। उसकी सौम्य मुस्कुराहट बेशक हम तक लौट लौट आती रहेगी।