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पैराडाइज पैपर्स : साक्ष्यों का अपमान करती पत्रकारिता

विवेक शुक्ला

लोकतंत्र में मीडिया को अपने कामकाज को  निर्भीकता से करने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलना स्वाभाविक है। सच्चा लोकतंत्र तब ही फल-फूल सकता है जब प्रेस की आजादी संदेह से परे हो। पर इमरजेंसी के काले दौर को छोड़कर  हमारे यहां कमोबेश सभी केन्द्र और राज्य सरकारें सुनिशिचित करती रही हैं कि किसी भी परिस्थिति में प्रेस की आजादी पर हमला ना हो। ये तो सिक्के का एक पहलू है। हाल के दौर में बार-बार देखने में आ रहा है कि कुछ अखबार, खबरिया टीवी चैनल और न्यूज वेबसाइट किसी व्यक्ति या संस्था के ऊपर ठोस और पुख्ता साक्ष्यों के बिना भी आरोप लगाने से नहीं चूकते।  इन्हें भारतीय सेना के पाकिस्तान में किए गए सर्जिल स्ट्राइक पर भी संदेश था। कुछेक मीडिया घराने रंगदारी में भी लिप्त रहते हैं विज्ञापन पाने के लिए। ये स्टिंग आपरेशन करके किसी अफसर, किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि या खास शख्स को बदनाम करने के बदले में पैसे की मांग करने से भी पीछे नहीं हटते। ये भारत की पत्रकारिता का नया मिजाज है। आप कह सकते हैं कि बीसेक  साल पहले तक हमारे देश के मीडिया में नहीं होता था।

<script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"></script> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({ google_ad_client: "ca-pub-7095147807319647", enable_page_level_ads: true }); </script><p style="text-align: center;"><strong>विवेक शुक्ला</strong></p> <p>लोकतंत्र में मीडिया को अपने कामकाज को  निर्भीकता से करने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलना स्वाभाविक है। सच्चा लोकतंत्र तब ही फल-फूल सकता है जब प्रेस की आजादी संदेह से परे हो। पर इमरजेंसी के काले दौर को छोड़कर  हमारे यहां कमोबेश सभी केन्द्र और राज्य सरकारें सुनिशिचित करती रही हैं कि किसी भी परिस्थिति में प्रेस की आजादी पर हमला ना हो। ये तो सिक्के का एक पहलू है। हाल के दौर में बार-बार देखने में आ रहा है कि कुछ अखबार, खबरिया टीवी चैनल और न्यूज वेबसाइट किसी व्यक्ति या संस्था के ऊपर ठोस और पुख्ता साक्ष्यों के बिना भी आरोप लगाने से नहीं चूकते।  इन्हें भारतीय सेना के पाकिस्तान में किए गए सर्जिल स्ट्राइक पर भी संदेश था। कुछेक मीडिया घराने रंगदारी में भी लिप्त रहते हैं विज्ञापन पाने के लिए। ये स्टिंग आपरेशन करके किसी अफसर, किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि या खास शख्स को बदनाम करने के बदले में पैसे की मांग करने से भी पीछे नहीं हटते। ये भारत की पत्रकारिता का नया मिजाज है। आप कह सकते हैं कि बीसेक  साल पहले तक हमारे देश के मीडिया में नहीं होता था।</p>

विवेक शुक्ला

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लोकतंत्र में मीडिया को अपने कामकाज को  निर्भीकता से करने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलना स्वाभाविक है। सच्चा लोकतंत्र तब ही फल-फूल सकता है जब प्रेस की आजादी संदेह से परे हो। पर इमरजेंसी के काले दौर को छोड़कर  हमारे यहां कमोबेश सभी केन्द्र और राज्य सरकारें सुनिशिचित करती रही हैं कि किसी भी परिस्थिति में प्रेस की आजादी पर हमला ना हो। ये तो सिक्के का एक पहलू है। हाल के दौर में बार-बार देखने में आ रहा है कि कुछ अखबार, खबरिया टीवी चैनल और न्यूज वेबसाइट किसी व्यक्ति या संस्था के ऊपर ठोस और पुख्ता साक्ष्यों के बिना भी आरोप लगाने से नहीं चूकते।  इन्हें भारतीय सेना के पाकिस्तान में किए गए सर्जिल स्ट्राइक पर भी संदेश था। कुछेक मीडिया घराने रंगदारी में भी लिप्त रहते हैं विज्ञापन पाने के लिए। ये स्टिंग आपरेशन करके किसी अफसर, किसी निर्वाचित जनप्रतिनिधि या खास शख्स को बदनाम करने के बदले में पैसे की मांग करने से भी पीछे नहीं हटते। ये भारत की पत्रकारिता का नया मिजाज है। आप कह सकते हैं कि बीसेक  साल पहले तक हमारे देश के मीडिया में नहीं होता था।

मीडिया की लक्ष्मण रेखा

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मीडिया का अपनी लक्ष्मण रेखा को पार करने का एक गंभीर मामला विगत जून महीने में कर्नाटक में सामने आया। कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष केबी कोलीवाड ने राज्य विधानसभा के कुछ विधायकों के ख़िलाफ़ अपमानजनक आलेख लिखने के मामले में  पत्रकार रवि बेलागेरे समेत एक कन्नड़ पत्रिका के दो पत्रकारों को एक साल जेल की सज़ा सुनाई। कोलीवाड ने जेल की सज़ा के अलावा दोनों पर दस-दस हज़ार रुपये का जुर्माना भी लगाया है। कोलीवाड ने कहा, ‘मैं विशेषाधिकार समिति की सिफारिशों को मंज़ूरी देता हूं जिसने हाय बेंगलुरू और येलहांका वॉयस के संपादकों को एक साल के लिए जेल भेजने और उन पर 10,000 रुपये का जुर्माना लगाने की अनुशंसा की थी।’

दरअसल सदन की विशेषाधिकार समिति ने कोलीवाड के अलावा दूसरे विधायकों के ख़िलाफ़ लेख प्रकाशित करने के लिए यह सज़ा सुनाई थी। कोलीवाड के ख़िलाफ़ ‘हाय बैंगलोर’के सितंबर 2014 के अंक में लेख प्रकाशित किया गया था। रवि बेलागेरे कन्नड़ टेबलॉयड ‘हाय बैंगलोर’ के संपादक हैं जबकि ‘येलहांका वॉयस’ के संपादक अनिल राजू हैं। इस सारे केस का एक अहम बिन्दु ये भी रहा कि कर्नाटक में एक-दूसरे की राजनीतिक शत्रु कांग्रेस और भाजपा ने मिलकर सदन में यह मामला उठाया।

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अनदेखी साक्ष्यों की

अब असली मुद्दे पर आते हैं। क्या प्रेस की आजादी का अर्थ ये हुआ किसी पत्रकार, अखबार, टीवी चैनल वगैरह को किसी की इज्जत उतराने की अनुमति मिल जाती है? कतई नहीं। पत्रकारिता का मूल आधार है साक्ष्य। साक्ष्यों के बिना किसी पर आरोप लगाना पत्रकारिता के सिद्धातों के साथ खिलवाड़ करने के समान है। ये बेहद गंभीर मामला है। लेकिन यह हो रहा है। कम से कम कुछ पत्रकार और मीडिया संस्थान तो ये करने से पीछे नहीं हटते।कर्नाटक में दो विधायकों को  जेल की सजा सुनाए जाने के बाद दिल्ली के प्रेस क्लब में
 मीडिया पर हमले’ विषय पर सार्थक चर्चा भी हुई। उसमें  वक्ताओं ने महसूस किया कि मानहानि जैसे मामलों में जेल की सजा विधानसभा के विशेषाधिकारों का दुरुपयोग है। इस पर सहमति या असहमति हो सकती है। लेकिन मीडिया के दिग्गजों ने इस ओर कोई चर्चा करना उचित नहीं समझा कि इस बेहतरीन पेशे में कुछ अराजक और भ्रष्ट तत्व प्रवेश कर चुके हैं। ये किसी की जीवन भर की इज्जत को अपने अधकचरे ज्ञान और साक्ष्यों के बल पर तार-तार कर देते हैं। क्या इसे ही पत्रकारिता कहते हैं?

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एक दौर में ब्लिटड अखबार के संपादक आर.के.करंजिया अपने साप्ताहिक अखबार में समाज के खासमखास शख्सियतों के खिलाफ अभियान चलाते थे। वे  बदनाम भी हुए, पर बाज नहीं आए। अभी कुछ समय पहले रामनाथ गोयनका जैसी महान शखिसयत द्वारा शुरू किए गए इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने खबर छापी कि एनडीटीवी खबरिया चैनल बिक गया है। उसे स्पाईजेट एयरलाइन ने खरीद लिया है। पर दो -तीन के भीतर ही वो खबर टांय-टांय फिस्स हो गई। एनडीटीवी के मालिक प्रणव राय और स्पाईजेट की तरफ से बयान आ गए  कि ये खबर बेबुनियाद है। इसके बाद भी इंडियन एक्सप्रेस ने माफीनामा छापने की जरूरत नहीं समझी। इस तरह के आपको दर्जनों उदाहरण दिए जाते सकते हैं। अभी कुछ दिन पहले इसी अखबार ने पैराडाइज पेपर के आधार पर कई नामी हस्तियों को भ्रष्ट करार दिया। लेकिन उसी पैराडाइज पेपर में पी.चिदंबरम, सचिन पायलट, शोभना भरतिया और सुभाष चंद्र के भी नाम हैं। उन्हें इस अखबार नें छोड़ दिया। क्यों?

ना करें सरकार का गुणगान

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प्रेस की स्वतंत्रता का अर्थ है दायित्वों और कर्तव्यों का साथ-साथ चलना। हां, मीडिया  से केवल सरकार के गुणगान करने की भी अपेक्षा नहीं की जाती।  लेकिन,वो अपने दायित्वों को लेकर सजग भी रहे। कर्नाटक विधानसभा में विशेषाधिकार हनन के मामले में कुछ पत्रकारों को सजा दिए जाने के बाद बीते अगस्त महीने में दिल्ली की एक अदालत ने कहा है कि “प्रेस को कोई ऐसी टिप्पणी करने, आलोचना करने या आरोप लगाने का विशेषाधिकार नहीं है जो किसी नागरिक की प्रतिष्ठा को धूमिल करने के लिए पर्याप्त हो।” ये खबर दि वायर में छपी थी। अतिरिक्त जिला न्यायाधीश राज कपूर ने कहा कि पत्रकार किसी अन्य व्यक्ति से बेहतर स्थान वाले व्यक्ति नहीं हैं। प्रेस को संविधान के तहत किसी नागरिक के मुकाबले कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हैं। अदालत ने कहा कि प्रेस को टिप्पणी करने, आलोचना करने या किसी मामले में तथ्यों की जांच करने के कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हैं तथा प्रेस के लोगों के अधिकार आम आदमी के अधिकारों से ऊंचे नहीं हैं।

मीडिया और सर्जिकल स्ट्राइक

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आपको याद होगा कि पठानकोट, पुंछ और उरी पाकिस्तान ने जब सब्र का बांध तोड़ दिया तो मजबूर होकर भारत को सर्जिकल स्ट्राइक का सहारा लेना पड़ा। भारतीय कमांडो ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में  घुसकर आतंकियों को ढेर किया। इस खतरनाक ऑपरेशन को अंजाम देकर हमारे जवान सुरक्षित अपनी सीमा में लौट भी आए। पर उस सर्जिकल स्ट्राइक की विश्वसनीय पर भी मीडिया का एक तबका सवाल खड़े करता रहा। ये भूल गए कि देश हित के सवालों पर भारत को एक होना चाहिए। सर्जिकल स्ट्राइक यानी दुश्मन को उसी के घर में घुसकर मार गिराना। ऐसे हमले बड़े पैमाने पर नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं बल्कि सीमित दायरे में मौजूद दुश्मन को मार गिराने के लिए किए जाते हैं। हमारे जाबांज सैनिकों के शौर्य की अनदेखी की  मीडिया के एक हिस्से ने। देश ने करगिल या उससे पहले पाकिस्तान के साथ हुई जंगों में मीडिया का इस तरह का चरित्र नहीं देखा था।

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अंत में कर्नाटक के मामले पर फिर से बात करना समीचीन रहेगा। चूंकि संविधान विधायकों और सांसदों को विशेषाधिकार देता है। उसी के चलते कर्नाटक के कुछ विधायकों की बात को सुना गया। पर एक आम नागरिक पर यदि मीडिया बेबुनियाद टीका-टिप्पणी  करेगा तो उसे कौन न्याय दिलायेगा? अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक लक्ष्मण रेखा है। कोई उसका उल्लंघन या  दुरुपयोग नहीं कर सकता।सदन के पास विशेषाधिकार हनन के मामले में किस तरह के अधिकार होने चाहिए, इस मुद्दे पर बहस होती रही है। कोई संहिता न होने की वजह से यह पूरी तरह सदन पर निर्भर करता है कि वह जिस मामले को चाहे विशेषाधिकार हनन का मामला बता दे। इस लिहाज से स्थिति और स्पष्ट और पारदर्शी बनाई जा सकती है। अगर विधायिका विशेषाधिकार के मामले में संहिता बनाए और न्यायपालिका तय करे कि विशेषाधिकार हनन होने पर संबंधित समिति क्या-क्या सजा सुना सकती है,तो सही रहेगा।  और दूसरी बात ये कि मीडिया भी अपनी प्रसार संख्या या टीआरपी बढ़ाने के लिए पत्रकारिता के स्थापित नियमों के साथ खिलवाड़ ना करे।

लेखक विवेक शुक्ला वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे यूएई दूतावास, नई दिल्ली में  सूचना अधिकारी भी रह चुके हैं. उनसे संपर्क 9818155246 के जरिए किया जा सकता है.

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