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सुख-दुख

पहले प्रदीप संगम, फिर ओम प्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी का जाना….

एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग या दुर्योग, जो कहिए… मेरे ज्यादातर प्रिय पत्रकारों का समुदाय धीरे-धीरे सिकुड़ता छोटा होता जा रहा है… दो-तीन साल के भीतर एकदम से कई जनों का साथ छोड़कर इस संसार को अलविदा कह जाना मेरे लिए स्तब्धकारी है… पहले आलोक तोमर, फिर प्रदीप संगम, उसके बाद ओमप्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी… असामयिक रणछोड़ कर चले जाना या जीवन के खेल में आउट हो जाना हर बार मुझे भीतर तक मर्माहत कर गया… सारे पत्रकारों से मैं घर तक जुड़ा था और प्यार दुलार का नाता बहुत हद तक स्नेहमय सा बन गया था… इनका वरिष्ठ होने के बाद भी यह मेरा सौभाग्य रहा कि इन सबों के साथ अपना बोलचाल रहन-सहन स्नेह से भरा रसमय था… कहीं पर कोई औपचारिकता या दिखावापन सा नहीं था… यही कारण रहा कि इनके नहीं होने पर मुझे खुद को समझाने और संभलने में काफी समय लगा…

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एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग या दुर्योग, जो कहिए… मेरे ज्यादातर प्रिय पत्रकारों का समुदाय धीरे-धीरे सिकुड़ता छोटा होता जा रहा है… दो-तीन साल के भीतर एकदम से कई जनों का साथ छोड़कर इस संसार को अलविदा कह जाना मेरे लिए स्तब्धकारी है… पहले आलोक तोमर, फिर प्रदीप संगम, उसके बाद ओमप्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी… असामयिक रणछोड़ कर चले जाना या जीवन के खेल में आउट हो जाना हर बार मुझे भीतर तक मर्माहत कर गया… सारे पत्रकारों से मैं घर तक जुड़ा था और प्यार दुलार का नाता बहुत हद तक स्नेहमय सा बन गया था… इनका वरिष्ठ होने के बाद भी यह मेरा सौभाग्य रहा कि इन सबों के साथ अपना बोलचाल रहन-सहन स्नेह से भरा रसमय था… कहीं पर कोई औपचारिकता या दिखावापन सा नहीं था… यही कारण रहा कि इनके नहीं होने पर मुझे खुद को समझाने और संभलने में काफी समय लगा…

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फिलहाल तो बात मैं संतोष जी से ही शुरू करता हूं । मेरा इनसे कोई 23 साल पुराना नाता रहा। भीकाजी कामा प्सेस के करीब एक होटल में शाम के समय कुछ लोगों से मिलने का कार्यक्रम था । मेरे पास अचानक हिन्दुस्तान से संतोष जी का फोन आया- अनामी शाम को एक जगह चलना है, तैयार रहना। मैने जब जिज्ञासा प्रकट की तो वे बौखला गए। अरे जब मैं बोल रहा हूं तो फिर इतने सारे सवाल जवाब क्यों? बस् इतना जान लो कि जो मेरी नजर में सही और मेरे प्रिय पत्रकार हैं, बस्स मैं केवल उन्ही दो चार को बुला भी रहा हूं।

उल्लेखनीय है कि इससे पहले तो मेरी संतोष जी से दर्जनों बार फोन पर बातें हो चुकी थी, मगर अपने अंबादीप दफ्तर से 100 कदम से कम की दूरी पर एचटी हाउस की बहुमंजिली इमारत में कभी जाकर मैं संतोष जी से मिला नहीं था। ना ही कभी या कहीं इनसे मिलने का सुयोग बना था। मैं फटाफट अपने काम को निपटाया और फोन करके एचटी हाउस के बाहर पहुंच गया। वहां पर संतोषजी पहले से ही मौजूद थे। मुझे देखते ही बोले- अनामी… मेरे सिर हिलाने पर उनने लपक कर मुझे गले से लगा लिया। साले कलम से जितना आक्रामक दिखते हो उतना तीखा और आक्रामक तो तुम लगते नहीं। अब इस पर मैं क्या कहता… बस्स जोर से खिलखिला पड़ा तो वे भी मेरे साथ ही ठहाका लगाने लगे। यह थी मेरे प्रति संतोष जी की पहली प्रतिक्रिया।

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देर रात तक मेहमानों के संग बातें होती रहीं और साथ में मदिरामय माहौल भी था। इससे मैं काफी असहज होने लगा तो संतोष जी मुझे कमरे से बाहर ले गए और ज्ञान प्रदान किया। जब तुम कहीं पर पत्रकार के रूप में जाओ तो जरूरी नहीं कि सारा माहौल और लोग तुम्हारी अपेक्षाओं या मन की ही बातें करेंगे। कहीं पर असामान्य लगने दिखने से बेहतर है कि तुम खान पान पर अपने ध्यान को फोकस कम करके काम और जो बातचीत का सेशन चल रहा है उसमें औरों से हटकर बातें करो ताकि सबों का ध्यान काम पर रहे और खान पान दोयम हो जाए। इन गुरूमंत्रों को बांधकर मैं अपने दिल में संजो लिया और अंदर जाकर बातचीत के क्रम को एक अलग तरीके से अपने अनुसार किया।

पत्रकारिता के लगभग दो दशक लंबे दौर में बहुत दफा इस तरह के माहौल का सामना करना पड़ा। जब अपने साथी मित्रों का ध्यान काम से ज्यादा मदिरा पर रहा तो मैंने अपने अनुसार बहुत सारी बातें कर ली और मदिरा रानी के संग झूले में उडान भर रहे मेरे मित्रों ने मेरी बातों पर कोई खास तवज्जो नहीं दी। इसके फलस्वरूप मेरी रिपोर्ट हमेशा औरों से अलग और कुछ नयी रहती या होती थी। इस पर अगले दिन अपने साथियों से मुझे कई बार फटकार भी खानी पड़ी या कईयों ने मुझे बेवफा पत्रकार का तगमा तक दे डाला था कि खबरों के मामले में यह साला विश्वास करने लायक नहीं है। आपसी तालमेल पर भी न्यूज को लेकर किसी समय सीमा का बंधन नहीं मानेगा।

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तमाम उलाहनों पर भिड़ने की बजाय हमेशा मेरा केवल एक जवाब होता कि न्यूज है तो उसके साथ कोई समझौता नहीं। इस तरह के किसी भी संग्राम में यदि मैं कामयाब होता या रहता तो संतोषजी का लगभग हमेशा फोन आता, वेरी वेरी गुड अनामी डार्लिंग। वे अक्सर मुझे मेरे नाम के साथ डार्लिंग जोडकर ही बोलते थे। मैने उनसे कई बार कहा कि आप जब डार्लिंग कहते हैं तो बबल कहा करें जिससे लोग समझेंगे कि आप किसी महिला बबली से बात कर रहे हैं…. अनामी में डार्लिंग जोडने से तो लोग यही नहीं समझ पाएंगे कि आप किसी को अनामी बोल रहे है या नामी बोल रहे है या हरामी बोल रहे हैं। मेरी बातें सुनकर वे जोर से ठहाका लगाते… वे कहते- नहीं, बबल कहने पर ज्यादा खतरा है यार… अनामी इतना सुंदर और अनोखा सा इकलौता नाम है कि इसको संबोधित करना ज्यादा रसमय लगता है।

इसी तरह के रसपूर्ण माहौल में मेरा नाता चल रहा था. मुझसे ज्यादा तो मुझे फोन करके अक्सर संतोषजी ही बात करते थे। हमेशा एचटी हाउस की जगत विख्यात कैंटीन में मुझे बुलाते और खान पान के साथ हमलोग बहुत मामले में बात भी कर लिया करते थे। उनका एक वीकली कॉलम दरअसल दिल्ली की समस्याओं पर केंद्रित होता था। कई बार मैने कॉलम में दी गयी गलत सूचनाओं जानकारियों तथ्यों और आंकड़ो की गलती पर ध्यान दिलाया तो मुझे हमेशा लगा कि शायद यह उनको बुरा लगेगा। मगर एक उदार पत्रकार की तरह हमेशा गलतियों पर अफसोस प्रकट किया और हमेशा बताने के लिए प्रोत्साहित किया।

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हद तो तब हो गयी जब कुछ प्रसंगों पर लिखने से पहले घर पर फोन करके मुझसे चर्चा कर लेते और आंकड़ो के बारे में सही जानकारी पूछ लेते। उनके द्वारा पूछे जाने पर मैं खुद को बड़ा शर्मसार सा महसूस करता कि क्या सर आप मुझे लज्जित कर रहे हैं, मैं कहां इस लायक कि आपको कुछ बता सकूं। मेरे संकोच पर वे हमेशा कहते थे कि मैं भला तुमको लज्जित करूंगा, साले तेरे काम का तो मैं सम्मान कर रहा हूं, मुझे पता है कि इस पर जो जानकारी तुम दोगे वह कहीं और से नहीं मिलेगी।

उनकी इस तरह की बातें और टिप्पणियां मुझे हमेशा प्रेरित करती और मुझे भी लगता कि काम करने का मेरा तरीका कुछ अलग है। आंकड़ो से मुझे अभी तक बेपनाह प्यार हैं क्योंकि ये आंकड़े ही है जो किसी की सफलता असफलता की पोल खोलती है। हालांकि अब नेता नौकरशाह इसको लेकर काफी सजग और सतर्क भी हो गए हैं मगर आंकडों की जुबानी रेस में ज्यादातर खेलबाजों की गाड़ी पटरी से उतर ही जाती है। संतो,जी र मेरा प्यार और नेह का नाता जगजाहिर होने की बजाय लगातार फोन र कैंटीन तक ही देखा जाता। हम आपस में क्या गूफ्तगू करते यह भी हमारे बीच में ही रहता।

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एक वाक्या सुनादूं कि जब वे मयूरविहार फेज टू में रहते थे तो मैं अपने जीवन में पहली और आखिरी बार किसी पर्व में मिठाई का एक पैकेट लेकर खोजते खोजते सुबह उनके घर पर जा पहुंचा। । घर के बाहर दालानव में मां बैठी थी। मैने उनसे पूछा क्या आप संतो,जी की मां है ? मेरे सवाल पर चकित नेत्रों से मुझे देखते हुए अपने अंचल की लोक भाषा में कुछ कहा जिसका सार था कि हां । मैने उनके पैर छूए और तब मेरा अगला सवालथा कि क्या वे घर पर हैं ? मां के कुछ कहने से पहले ही तब तक भीतर से उनकी आवाज आई जी हा अनामी डार्लिंगजी संतोष जी घर पर हैं आप अंदर आईए। उनकी आवाज सुनकर मां ने जाने का रास्ता बना दिया तो मैं अंदर जा पहुंचा।

मेरे हाथ में मिठाई का डिब्बा देखकर वे बोल पड़े ये क्या है ? थोडा तैश में बोले गजब करते हो छोटे भाई हो और बड़े भाई के यहां मिठाई लेकर आ गए। अरे बेशरम मिठाई खाने आना चाहिए ना कि लाना। मैं भी थोडा झेंपते हुए कहा कि आज दीवाली था और आप दिल्ली के पहले पत्रकार हो जिसके घर मैं आया हूं। तो बोले- मुझे ही आखिरी पत्रकार भी रखना जब किसी पत्रकार के यहां जाओगे मिठाई लेकर तो वह तेरी ईमानदारी पर संदेह करेगा कि घर में मिठाई के कुछ डिब्बे आ गए तो लगे पत्रकारों में बॉटकर अपनी चौधराहट दिखाने। कुछ देर के बाद जब मैं जाने लगा तो मुझे मिठाई के दो डिब्बे तमाया एक तो मेरी तरफ से तुमको और दूसरा डिब्बा जो लाया था उसके एवज में यह दूसरा डिब्बा।

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मैं दोनों डिब्बे थामकर जोर से हंसने लगा,तो वे थोडा असहज से होते हे सवाल किया कि क्या हुआ? मैंने कहा कि अब चौधराहट मैं नहीं आप दिखा रहे हैं। फिर हमलोग काफी देर तक खिलखिलाते रहे और अंत में फिर चाय पीकर घर से बाहर निकला। दीपावली या होली पर जब कभी शराब की बोतल या कभी कभी बंद पेटी में दर्जनों बोतल शराब की घर पहुंचा देने पर ही मैं अपने उन मित्रों को याद करता जिनके ले यह एक अनमोल उपहार होती। बाद में कई विधायकों को फोन करके दोबारा कभी भी शराब ना भेजने का आग्रह करना पड़ता ताकि मुझे से कपाने के लिए परिश्रम ना करना पड़े।

इसी तरह 1996 के लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली के सांसद सज्जन कुमार की एक प्रेसवार्ता में मैं संतोषजी के साथ ही था। मगर सज्जन कुमार के बगल में एक मोटा सा आदमी बैठा था । दोनों आपस में कान लगाकर सलाह मशविरा कर रहे थे। बातचीत के दौरान भी अक्सर उनकी कनफुसियाहट जारी रही। प्रेस कांफ्रेस खत्म होने के बाद मैं दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के तालकटोरा रोड वाले दफ्तर के बाहर खडा ही था कि सज्जन कुमार के उसी मोटे चमच्चे पर मेरी नजर गयी। तीसरी दफा अंदर से निकल कर अपनी गाड़ी तक जाना और लौटने की कसरता के बीच मैने हाथ जोडते हुए अभिवादन के साथ ही पकड़ लिया। माफ करेंगे सर मैं आपको पहचाना नहीं?

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दैनिक जारगण के रिपोर्टर ज्ञानेन्द्र सिंह मेरे साथ था। मैने अपना और ज्ञानेन्द्र का परिचय दिया तो वो बोल पडा अरे मैं गोस्वामी एचटी से । मगर इस क्षणिक परिचय से मैं उनको पहचान नहीं सका। तब जाकर हिन्दुस्तान के चीफ रिपोर्टर रमाकांत गोस्वामी का खुलासा हुआ। मैने कहा कि सर आप मैं तो सज्जन का कोई पावर वाला चमच्चा मान रहा था। मेरे यह कहने पर वे झेंप से गए मगर तभी उन्होने हाथ में लिए अंडे पकौडे और निरामिष नाश्ते को दिखाकर पूछा कुछ लोगे ? मैने उनसे पूछा कि क्या आप लेते है ? तो वे एक अंहकार भाव से बोले मैं तो पंडित हूं ? तब मैंने तुरंत पलटवार किया मैं तो महापंडित हूं इसको छूता तक नहीं। मेरी बातों से वे बुरी तरह शर्मसार हो उठे। मगर कभी दफ्तर में आकर मिलने का न्यौता देकर अपनी जान बचाई। मैने इस घटना को संतोषजी को सुनाया तो मेरी हिम्मत की दाद दी। हंसते हे कहा की ठीक किय़ा जो लोग पत्रकार होकर चमच्चा बन जाने में ज्यादा गौरव मानते हैं उनके साथ इस तरह का बर्ताव जरूरी है।

शांतभाव से एक प्यार लगाव भरा हमारा रिश्ता चल रहा था कि एकाएक पता लगा कि वे अब दैनिक जागरण में चले गए. इस खबर पर ज्यादा भाव ना देकर मैं एक बार अपने भारतीय जनसंचार संस्थान काल वाले मित्र उपेन्द्र पांडेय से मिलने जागरण पहुंचा तो संयोग से वहीं पर संतोषजी से मुलाकात हुई। जागरण के कुछ स्पेशल पेज में आए व्यापक परिवर्तनों पर मैने उपेन्द्र से तारीफ की तो पता चला कि आजकल इसे संतोषजी ही देखरहे हैं। तब मैंने पूरे उल्लास के साथ उनके काम करने के अंदाज पर सार्थक प्रतिक्रिया दी। मैंने यह महसूस किया कि वे हमेशा मेरी बातों या सुझावों को ध्यान से लेते थे। मैने कहा भी कि आप आए हैं तो भगवती जागरण में धुंवा तो प्रज्जवलित होनी ही चाहिए। मेरी बातों को सुनकर संतोषजी ने फिर कहा अनामी तेरी राय विचारों का मैं बड़ा कद्र करता हूं क्योंकि तुम्हारा नजरिया बहुतों से अलग होता है। यह सुनकर मैंने अपना सिर इनके समक्ष झुका लिया तो वे गदगद हो उठे। उन्होंने कहा तेरी यही विन्रमता ही तेरा सबसे बड़ा औजार है। लेखन में एकदम कातिल और व्यक्तिगत तौर पर एकदम सादा भोला चेहरा। अपनी तारीफ की बातें सुनकर मैं मारे शरम के धरती में गड़ा जा रहा था।

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जागऱण छोड़कर उपेन्द्र के साथ चंड़ीगढ बतौर संपादक दैनिक ट्रिब्यून में चले गए। 1990-91 में लेखन के आंधी तूफानी दौर में कई फीचर एजेंसियों के मार्फत ट्रिब्यून में मेरी दर्जनों रपट लेख और फीचर छप चुके थे। 193 में मैं जब चंडीगढ़ एक रिपोर्ट के सिलसिसे में गया तो उस समय के ट्रिब्यून संपादक विजय सहगल जी से मिला। परिचय बताने पर वे एकदम चौंक से गए। बेसाख्ता उन्होंने कहा अरे अनामी मैं तो अभी तक अनामी को 40-45 साल का समझ रहा था. आप तो बहुत सारे प्रसंगों पर रोचक लिखते हैं। सहगल जी की बातें सुनकर मैं भी हंसने लगा। लगभग यही प्रतिक्रिया थी पहले चौथी दुनिया और बाद में राष्ट्रीय सहारा के पटना ब्यूरो प्रमुख परशुराम शर्मा की। 1995 में एक दिन नोएडा स्थित सहारा दफ्तर में मिल गए। परिचय होने पर उन्होंने मुझे गले से लगा लिया- अरे बाप रे बाप,  कितना लिखता है तू। मैं तो उम्रदराज होने की सोच रहा था पर तू तो एकदम बच्चा निकला। दो दशक से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी उनका स्नेह बरकरार है।

कभी कभी मैं लिखने की रफ्तार तथा छपने की बारिश पर सोचता हूं तो अब मैं खुद चौंक जाता हूं। पहले लगता था कि मेरे हाथ में सरस्वती का वास हो। लंबा लिखना मेरा रोग था। कम शब्दों में लिखना कठिन होता था। बस कलम उठाया तो नदियां बह चलीं वाली हालत थी। पर अब लगता है मेरे लेखन का खुमार ही पूरी तरह उतर-सा गया हो। अब तो लिखने से पहले उसकी तैयारी करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर लगता है मानो लिखना संभव हो पाता है। मुझे कई बार चंडीगढ भी बुलाया पर मैं जाकर मिल ना सका। उपेन्द्र पांडेय ने मुझे दिल्ली का भी फोन नंबर दिया और कई बार बताया भी कि संतोष, अभी दिल्ली में ही हैं, मगर मैं ना मिल सका और ना ही बातचीत ही हो सकी। अभी पिछले ही माह उपेन्द्र ने फोन करके कहा कि अब माफी नहीं मिलेगी, तुम चंडीगढ़ में आओ, बहुत सारे मित्र तुमसे मिलने के लिए बेताब हैं।

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मैं भी अप्रैल में दो तीन दिन के ले जाना चाह रहा था। इसी बहाने अपनी मीरा मां और रमेश गौतम पापा समेत अजय गौतम और छोटे भाई के साथ एक प्यारी सी बहन से भी मिलता। कभी हजारीबाग में रहकर धूम मचाने वाले ज्योतिषी पंडित ज्ञानेश भारद्वाज की भी आजकल चंडीगढ में तूती बोल रही है. संतोष जी के साथ एक पूरे दिन रहने और संपादक के काम काज और तमाम बातों पर चर्चा करने के लिए मैं अभी मानसिक तौर पर खुद को तैयार ही कर रहा था कि एक रोज रात 11 बजे एकाएक फेसबुक पर भडास4मीडिया में संतोष तिवारी के न रहने की खबर देखकर सन्न रह गया। ऐसा प्रतीत हुआ मानों वे रूठ गए हों मुझसे। कोई उलाहना दे रहे हों कि साले दो साल से बुला रहा हूं तो तेरे को फुर्सत नहीं थी तो ठीक है अब तू चंडीगढ़ आ तो सही पर अब मेरे पास भी तुमसे मिलने का समय नहीं।

मैं इस लेख को देर रात तक जागकर कल ही लिख देना चाह रहा था पर मेरे सामने संतोषजी इस कदर मानों आकर बैठ गए हों कि मेरे लिए उनकी यादों से निकलना और शब्द देना संभव नहीं हो पाया। और अंतत: पौने एक बजे रात को मैंने अपना कम्प्यूटर बंद दिया। आज सुबह से ही मेरे भीतर संतोषजी समाहित से हैं। लगता है मानो वे मेरे लेख को देख रहे हों और जल्दी जल्दी लिखने को उकसा रहे हों। आमतौर पर मेरे नयन जल्दी सजल नहीं होते मगर हिन्दी पत्रकारिता ने एक सुयोग्य उत्साही संपादक को खो दिया है। अपने सहकर्मियों को अपने परिवार का सदस्य सा मानकर प्यार और स्नेह देने वाले दिल्ली में कितने लोग रह गए है? उपेन्द्र पांडेय के लाख कहने पर भी अब तो फिलहाल चंडीगढ जाने का उत्साह ही नरम पड़ गया। किस मुंह से जाउं या किसके लिए? फिलहाल तो संतोषजी की अनुपस्थिति / गैरमौजूदगी ही मेरे को काट रही है. मुझे बारबार अनामी डार्लिंग की ध्वनि सुनाई पड़ रही है कि दिल्ली जैसे शहर में संतोषजी के अलावा और कौन दूसरा हो सकता है जो अनामी डार्लिंग कहकर अपना प्यार स्नेह और वात्सल्य दिखला सके।

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और अंत में, माफ करेंगे प्रदीप संगम जी और ओम प्रकाश तपस जी। आलोक तोमर भैय्या पर तो एक लेख लिखकर मैं अपना प्यार तकरार इजहार कर चुका हूं। मगर आप दोनों पर अब तक ना लिखने का कर्ज बाकी है। पूरा एक लेख आप लोगों पर हो, यह मेरा प्रयास होगा। फिलहाल तो इस मौके पर केवल कुछ यादों की झांकी। संगम जी से मैं सहारनपुर से जुडा था। जिंदगी में बतौर वेतन कर्मी यह पहली नौकरी थी। शहर अनजाना और लोग पराय़े। मगर डा. रवीन्द्र अग्रवाल और प्रदीप संगम ने मुझे एक सप्ताह के अंदर शहर की तमाम बारीक जानकारियों से अवगत कराया। संगम जी के घर के पास में ही मैं भी किराये पर रहता था तो सुबह की चाय के साथ देर रात तक संगम क्लास जारी रहता। भाभी का व्यावहार स्नेहिल और मिलनसार स्वभाव था। इससे मेरे मन के भीतर की लज्जा खत्म हो गई और संगम जी का घर एक तरह से हमारे लिए जब मन चाहा चले गए वाला अपना घर हो गया था। बाद में संगमजी दिल्ली हिन्दुस्तान में आए तो 1988 की बहुत सारी यादें सजीव हो गयी। हम लोग कनाट प्लेस में अक्सर साथ रहते। मगर सपरिवार संगम जी हिमाचल घूमने क्या गए कि पहाड की वादियों में ही एकाएक हमलोगों को अलविदा बोल गए।

यह मेरे लिए भी एक सदमा था। तभी नवभारत टाईम्स में काम करने वाले वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश तपस जी एकाएक हमारे बीच से चले गए। बात 1994 की है जब मैंने दिल्ली के दो गांवों पर एक स्टोरी की. दिल्ली और साक्षरता अभियान को शर्मसार करने वाले दो गांव यमुना नदी के मुहाने पर है। मैं जहांगीरपुरी के निर्दलीय विधायक कालू भैय्या को तीन किलोमीटर तक पैदल लेकर इस गांव में पहुंचा और मुस्लिम बहुल इस गांव की बदहाली पर मार्मिक रपट की। राष्ट्रीय सहारा में खबर तो पहले छपी मगर हमारे डेस्क के महामहिमों के चलते यह खबर पहले पेज पर ना लेकर भीतर के किसी पेज में लगा दी गयी। अगले दिन मैंने काफी नाराजगी भी दिखाई मगर चिड़िया चुग गयी खेत वाली हालत थी।

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खबर छपकर भी मर गयी थी, मगर एक सप्ताह के भीतर ही नवभारत टाईम्स में यही खबर छपी- ‘दिल्ली के दो अंगूठा टेक गांव’। खबर छपने पर दिल्ली में नौकरशाही स्तर पर हाहाकार मचा। सरकार सजग हुई और एक माह के अंदर ज्ञान पुर्नवास साक्षरता आदि की व्यवस्था करा दी गयी। मैने खबर की चोरी पर तपस जी से फोन पर आपत्ति की. मैने कहा कि आपको खबर ही करनी थी तो एक बार तो मुझसे बात कर लेते मैं आपको इतने टिप्स देता कि आप और भी कई स्टोरी बना सकते थे। मैं तो फिर से इस प्रसंग पर अब लिखूंगा ही नहीं क्योंकि पेपर वालों को इसकी समझ ही नहीं है। मेरी बातों पर नाराज होने की बजाय तपस जी ने खेद जताया और मिलने को कहा। जब हम मिले तो जिस प्यार उमंग उत्साह और आत्मीयता से मुझसे मिले कि मेरे मन का सारा मैल ही धुल गया। हम लोग करीब 16-17 साल तक प्यार और स्नेह के बंधन में रहे। इस दौरान बहुत सारी बातें हुई और वे सदैव मुझे अपने प्यार और स्नेह से अभिभूत रखा। मगर एक दिन एकाएक सुबह सुबह तपस जी के भी रूठने की खबर मिली. हर अपना वो वो पत्रकार लगातार मेरी नजरों से ओझल हो रहे हैं जिसको मैं बहुत पसंद करता हूं। हे भगवान मुझे इस दुर्भाग्य से बचाओ प्रभू।

लेखक अनामी शरण बबल आईआईएमसी के पासआउट हैं और कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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